गलियाँ हमारे संसार की पहुँच हैं सुलझा देती हैं बात की तरह कठिनाई हमारी भाषा का वैभव गलियों से ही बढ़ा है बरहमेश संबंधों को सिरजती-सँवारती छूट गए को मिला ही देती हैं कभी-कभार देती हैं दुर्गम से उबार पार हुआ तो गलियों का ही नाम लूँगा।
हिंदी समय में प्रेमशंकर शुक्ल की रचनाएँ