मम्मी-पापा को लेकर चिन्मय गाँव से आ रहा था। उन्हें लेने के लिए मनजीत स्टेशन
	पहुँच चुकी थी। लेकिन ट्रेन आ ही नहीं रही थी। मनजीत ने घड़ी देखी, थोड़ा वक्त
	और काटना है। उसने सिगरेट सुलगाई। प्लेटफार्म पर आने के बाद उसकी यह तीसरी
	सिगरेट थी। लाइटर बुझने पर देखा, कुछ युवा और कुछ वृद्ध उसे घूर रहे हैं। उसने
	इत्मीनान और उपेक्षा से धुआँ उगल दिया। उसे कोफ्त हुई, दिल्ली में भी औरत के
	पास सिगरेट पीने की आजादी नहीं है। सिगरेट पीती हुई औरत को लोग कितने अचरज और
	दिलचस्पी से देखते हैं! मगर दिल्ली का भी क्या कसूर? यहाँ हर कोई दिल्लीवाला
	तो है नहीं। अब जैसे उसका पति चिन्मय भी दिल्ली का मूल निवासी नहीं है, यू.पी.
	के चिरैयाकोट का है। सास-ससुर आ रहे हैं, वे तो हैं ही चिरैयाकोट के। अचानक
	उसके चेहरे पर हल्का-सा तनाव छाने लगा, सास-ससुर अब क्या यहीं हमारे पास
	रहेंगे? ससुर बीमार हैं तो उनकी बीमारी क्या है? गाँव का मकान लूट लिया गया,
	ढहा दिया गया, ठीक है लेकिन उसे किन लोगों ने ढहाया और क्यों? आखिर खेत और
	बागीचे तो बचे होंगे! अच्छा, कितनी दौलत होगी ससुरजी के पास? सुनते तो हैं कि
	बहुत ज्यादा है।
	ट्रेन की आवाज सुनाई पड़ी। मनजीत ने आखिरी कश लेकर सिगरेट को जूते से मसल दिया।
	उसने सिगरेट का पैकेट और लाइटर पर्स में रखा। मुँह में च्यूइंगम डालकर सामने
	से गुजरती तथा धीमी होती हुई ट्रेन को देखने लगी।
	वह कोच नंबर पाँच के सामने पहुँची तो चिन्मय, सहायजी और कौशल्या उतर रहे थे।
	चिन्मय और कौशल्या ने सहायजी को सहारा दे रखा था। सामान कुली के सिर और हाथों
	में थे। मनजीत ने बढ़कर सास-ससुर के पाँव छुए और पूछा कि यात्रा में कोई कष्ट
	तो नहीं हुआ! सहायजी एक जगह लड़खड़ाए तो फुर्ती से उसने उनको सँभाल लिया।
	स्टेशन से बाहर आकर उसने कार खोलकर सबको बिठाया। पीछे की सीट पर सहायजी बीच
	में बैठे थे। उनके एक तरफ चिन्मय था, दूसरी तरफ कौशल्या। आगे बैठी मनजीत
	ड्राइव कर रही थी। लाल बत्ती आने पर कार रुकी तो उसने कौशल्या को ढाँढ़स दिया,
	"मम्मी, आप परेशान न हों, पापा यहाँ ठीक हो जाएँगे।" अब वह सहायजी से पूछ रही
	थी, "पापा, आपको तकलीफ क्या हुई है?" सहायजी कुछ बोले नहीं। जिस स्थिति में
	थे, स्थिर बने रहे। मनजीत ने सामने के शीशे में देखा, कौशिल्या और चिन्मय
	परेशानी से एक-दूसरे को देख रहे हैं। कौशल्या ने लंबी साँस ली, "इनको आँसुओं
	की बीमारी लग गई है। ये रो नहीं पाते हैं। इनके सारे आँसू सूख गए हैं बहू।"
	"मैं समझी नहीं मम्मी!" उसने कार बढ़ाई। हरी बत्ती हो गई थी। थोड़ी ही देर में
	कार सड़क पर दौड़ रही थी। कौशल्या का कहना जारी था, "गाँव में चाची की मौत हुई,
	ये रोए नहीं। आँगन में चाची की लाश पड़ी थी। पुरखों का मकान ढह गया था, मगर
	इनकी आँख में एक बूँद आँसू नहीं। नहीं आँसू गिरे, कोई बात नहीं, ये दुखी भी
	नहीं हुए। रत्ती-भर अफसोस नहीं किया। चलो यह भी सही, मगर ये तब से पत्थर हो गए
	हैं। न हँसते हैं, न रोते हैं, न बोलते हैं। ऐसा लगता है कि ये सुनते भी नहीं
	हैं। लोग कहते हैं कि आँसू गिर जाएँ तो ठीक हो जाएँगे, पर ये रो ही नहीं रहे
	हैं...।" कौशल्या सुबकने लगीं, "बहू, पता नहीं क्या होनेवाला है।" चिन्मय
	उन्हें चुप कराने लगा। वह सामान्य हुईं तो पछताईं कि पोते के बारे में कुछ
	पूछा ही नहीं, "बहू! मनु कैसा है? अब और बड़ा हो गया होगा?"
	"अच्छा है मम्मी। आप लोगों को बहुत याद करता है। स्कूल गया है, नहीं तो वह भी
	स्टेशन आता।"
	घर पहुँचकर चिन्मय ने डॉक्टर को फोन किया और कौशल्या से कहा, "मम्मी! मैं और
	मनजीत पापा को लेकर डॉक्टर के यहाँ जा रहे हैं।"
	"बेटा, मुझे भी ले चलो, अकेली मैं यहाँ क्या करूँगी।"
	"मम्मी, आप थकी होंगी, फिर डॉक्टर के पास नामालूम कितना समय लगेगा। टेस्ट
	वगैरह भी होना हुआ, तब तो जाने कितना वक्त लगे। और मनु भी स्कूल से आनेवाला
	होगा। आप उससे बातें वगैरह करिएगा न, क्या दिक्कत है।"
	कौशल्या चुप हो गईं। उन्हें बेटे की बातें मुनासिब लगीं। लेकिन जैसे ही कार
	ओझल हुई, उनके मन पर क्या गुजरी कि वह रोने-रोने को हो गईं। पछताने लगीं कि वह
	भी क्यों नहीं गईं। वह खुद को सँभाल न सकीं और फूट-फूटकर रोने लगीं।
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	छोटे से शहर चिरैयाकोट में सहायजी के पास इज्जत, शोहरत और दौलत सभी कुछ था।
	शहर के एक बड़े और पुराने मकान में वह और कौशल्या सुखपूर्वक जीवन बिता रहे थे।
	मकान गुजरे जमाने के स्थापत्य का था, जिसकी दीवारों में आले बने हुए थे और
	मेहराबों का प्रयोग था। कड़ियोंवाली छतें थीं। चौखट लगे दरवाजे थे। बड़ा-सा आँगन
	था। आँगन में तुलसी का बिरवा था। बिरवे के पास आराध्य पत्थर थे। आँगन में ही
	सबसे पहले धूप-हवा आती, आकर पूरे घर में फैल जाती। आँगन के ही रास्ते भोर और
	अँधेरा दाखिल होते।
	यह घर सहायजी को बहुत प्रिय था। इस घर की तरह ही चिरैयाकोट शहर में भी सहायजी
	की जान बसती थी। उनका इसे छोड़कर कहीं जाने का मन नहीं करता था। कहीं जाते तो
	वहाँ पहुँचकर जल्दी-से-जल्दी लौटने की कोशिश में लग जाते थे। चिरैयाकोट ही
	उनका परम तीर्थ था, प्रिय ठंडा प्रदेश था और आधुनिकतम महानगर था। यहाँ तक कि
	चिन्मय के पास भी दिल्ली जाते तो कुछ ही दिनों बाद उनके कानों में चिरैयाकोट
	की साँकलें बजनी शुरू हो जाती थीं और वह वापस आने की तैयारी में लग जाते।
	लेकिन एक दिन न जाने क्या हुआ कि उन पर जुनून सवार हो गया था, चिरैयाकोट
	त्यागकर अपने गाँव में बसने का। वह अपने पुराने स्थापत्यवाले मकान में बैठे थे
	कि फैसला कर दिया कि गाँव रहेंगे। मरेंगे तो अपने पुरखों की मिट्टी में
	मरेंगे। बस यहीं से शुरू होता है सहायजी और कौशल्या की विपत्तियों तथा बरबादी
	का किस्सा। यह किस्सा बेहद मामूली तरीके से शुरू हुआ था मगर जो अब आँसुओं की
	बीमारी जैसे खतरनाक मोड़ पर पहुँच चुका है।
	प्रारंभ कुछ इस तरह हुआ था कि सहायजी थोड़ा-सा अनमने और बेचैन रहने लगे थे।
	अक्सर बोलते-बोलते चुप हो जाते थे या चुप रहते-चुप रहते कि अचानक बोलने लगते
	थे। किंतु यह कोई बहुत अस्वाभाविक बात न थी। कम-से-कम ऐसा तो निश्चय ही नहीं
	कि इसको लेकर परेशान हुआ जाए। इसलिए जीवन अपनी रफ्तार से चल रहा था। पर
	धीरे-धीरे यह होने लगा कि सहायजी गुमसुम रहते कि यकायक चौंककर कह पड़ते,
	"कौशल्या, तुमने कुछ कहा क्या?" तो क्या वह गुमसुम रहने की स्थिति में कोई
	आवाज, कोई पुकार या कोई कथन सुनने लगते थे। एक दूसरी बात भी गौरतलब थी कि चाहे
	जितनी रात हो, यदि कौशल्या सहायजी को आवाज देतीं तो वह बोल पड़ते। इतना ही
	नहीं, कभी-कभी वह रात को उठकर कमरे में टहलने लगते थे। लेकिन कई बार ऐसा भी
	होता था कि शाम होते ही वह मुँह ढँककर सो जाते थे, फिर उठने का नाम न लेते थे।
	बहरहाल, उम्र के इस पड़ाव पर ये सब भी खास चिंताजनक लक्षण नहीं थे और कौशल्या
	ने भी इनको खास तवज्जो न दी थी।
	लेकिन कुछ-न-कुछ था जरूर जो सहायजी की आत्मा पर आघात कर रहा था। कोई व्यथा थी
	जो उनको बेचैन कर रही थी। तभी तो एक दिन विस्फोट हुआ कि वह अब यहाँ से अपना
	डेरा उठा लेंगे और गाँव में रहेंगे।
	उस दिन शाम का समय था, सहायजी घूमकर आए थे और कौशल्या से बात कर रहे थे।
	कौशल्या बोल रही थीं। उनके बोलने की अवधि में ऐसा हुआ कि सहायजी कौशल्या की
	ध्वनियों से मुक्त होने लगे। वह धीरे-धीरे कमरे में कौशल्या की उपस्थिति से भी
	मुक्त हो रहे थे। उनकी इंद्रियाँ जैसे अधोमुखी हो गईं, वह उठकर कमरे में चलने
	लगे। कौशल्या ने यह सब देखा तो हठात् चुप होकर उन्हें देखने लगीं।
	थोड़ी देर बाद सहायजी चुपचाप आकर कुर्सी पर बैठ गए और अपने हाथों को गौर से
	देखने लगे। हाथों में झुर्रियों का जाल फैला हुआ था। उन्होंने सोचा, 'इन्हें
	अभी और ज्यादा निस्तेज होकर सिकुड़ते जाना है।' उन्होंने कौशल्या के चेहरे पर
	नजर डाली। उनकी आँखें वहीं टिकी रह गईं।
	कौशल्या ने पूछा, "क्या देख रहे हैं? झुरियाँ?"
	"नहीं, मैं सोच रहा था।" उनकी आँखें जैसे करीब पचास साल पहले की दुनिया में
	चली गईं, "मैं सोच रहा था कि जब शादी के बाद तुम आई थीं, कैसा महका करती थीं।
	कैसी खुशबू निकला करती थी तुम्हारे शरीर से। होंठ कितने लाल थे। कितनी हँसमुख
	और खूबसूरत थीं तुम।"
	कौशल्या हक्की-बक्की-सी उन्हें घूरने लगीं मगर अपनी तारीफ से हल्का-सा खुश भी
	हुईं। वह इतराईं, "पर तब आपने यह सब कहा नहीं था। अब कहने से क्या फायदा। अब
	हममें वह सब कहाँ बचा है। हाड़-मांस की ठठरी बन गई हूँ।" उनका सिर काँपा। कानों
	की लटक रही लरें हिलीं। हथेलियों से सिर को सहलाया तो ब्लाउज के भीतर बाजू की
	चमड़ी झूलने लगी। वह उदास हो गईं लेकिन तभी कोई खास खयाल उभरा, मुस्कराईं,
	"वैसे मैंने भी तब बहुत-सी अपने मन की बातें आपसे नहीं कही थीं।"
	ऊपर लटका बड़ा-सा पंखा चल रहा था। उसके नीचे कौशल्या और सहायजी आमने-सामने बैठे
	थे।
	कौशल्या बता रही थीं, "जब मैंने आपको सबसे पहले देखा था तो आप कुर्ता-पायजामा
	पहने किसी से बतिया रहे थे। एकदम मोह लिया था आपने मुझको...।" वह लजा गईं।
	सकुचाते हुए कहने लगीं, "शादी के बाद जब मैं सबसे पहली बार ऊपरवाले कमरे में
	गई तो हैरान। वहाँ आपकी फोटो ही फोटो टँगी थीं। एक में आप डिग्री ले रहे हैं।
	एक में सूट पहनकर सिगरेट पी रहे हैं। एक में हैट लगाकर घोड़े पर सवार थे। किसी
	में खिलखिला रहे थे तो किसी में बाग-बागीचे में थे। मैं एक-एक फोटो के सामने
	ठिठक जाती थी...। तो हमको यह बात भी बहुत अच्छी लगी थी।"
	वह चुप हो गईं, क्योंकि उनको महसूस हुआ कि उनके बोलने के बीच में ही सहायजी
	उनकी आवाज और उपस्थिति से दूर चले गए थे। वह हल्का-सा क्षोभ और अपमान महसूस
	करने लगीं। तीखेपन से बोलीं, "सुनिए।"
	सहायजी यथावत चुपचाप बैठे रहे। दुबारा पुकारे जाने पर भी वैसे बने रहे।
	अब कौशल्या घबड़ाईं। उनका क्षोभ, तीखापन लुप्त हो गया। वह निरीह जैसी सहायजी के
	हाथों को हिलाते हुए कहने लगीं, "सुन नहीं रहे हैं क्या?"
	सहायजी ने अचकचाकर कहा, "हाँ... बोलो, क्या बात है?"
	कौशल्या ने सोचा कि उनकी बात का सिलसिला जहाँ पर खत्म हुआ था, उसके आगे बोलना
	शुरू करें। मगर फिर उन्हें लगा कि बुढ़ापे की इस बेला में प्यार-मुहब्बत और
	यौवन की चर्चा कितनी हास्यास्पद तथा बेवकूफी की बात है। लेकिन चूँकि उन्होंने
	सहायजी को तंद्रा से वापस किया था और सहायजी पूछ रहे थे कि क्या बात है; इसलिए
	कुछ-न-कुछ बोलना जरूरी था। अतः महज कुछ कहने की गर्ज से उन्होंने पुराना राग
	छोड़ दिया, "ऐसा है कि हमारा बुढ़ापा बढ़ता जा रहा है। ज्यादा नहीं बची है
	जिंदगी। क्यों न हम अपने बेटे-बहू के पास रहें। वैसे भी वे कब से अपने पास
	रहने के लिए हमें बुला रहे हैं।" उन्होंने सहायजी की तरफ देखा। वहाँ किसी
	किस्म की नाराजगी अथवा असहमति का भाव न पाकर उनका उत्साह बढ़ा, "चले चलिए
	बेटे-बहू के पास दिल्ली। मरें तो कम-से-कम औलाद के पास।"
	सहायजी थोड़ी देर मौन रहे फिर धीमे-धीमे किंतु दृढ़ता के साथ बोले थे, "मैं
	चाहता हूँ कि हम अपने गाँव चलकर रहें। अपने पुरखों की मिट्टी में मरें।"
	कौशल्या भय से थर्रा उठीं। उन्होंने सुना था कि सहायजी के पिता भी इसी तरह एक
	दिन सहायजी की माँ से बोले थे। और उनको लेकर गाँव चले गए थे। गाँव में जो
	छब्बीस कमरों का मकान है, उसकी सबसे ऊपर की मंजिल पर एक कमरे में रहने लगे थे।
	अल्प आहार लेते थे और धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करते थे। एक तरह से बैरागी हो
	गए थे। सहायजी की माँ से भी बहुत कम बोलते थे। वह नीचे के हिस्से में रहा करती
	थीं।
	सहायजी के पिता बस सुबह कुछ समय के लिए नीचे उतरते थे। तब वह गाँववालों को
	होम्योपैथी की दवाएँ देते थे। उनके हाथ में पुण्य था, काफी मरीज ठीक हो जाते
	थे। ग्रामीणों के लिए होम्यापैथी की गोलियाँ महात्माजी का प्रसाद थीं। उनकी
	खड़ाऊँ की खट्...खट् कमरे की तरफ आती सुनाई पड़ती तो रोगियों के चेहरे पर
	श्रद्धा उमड़ने लगती थी। वे लोग वाकई उनको महात्मा मानने लगे थे।
	एक दिन वह ऊपर के अपने कमरे में मरे पड़े मिले। उनके क्रिया-कर्म में सहायजी
	कौशल्या और चिन्मय के साथ कई दिन गाँव रहे। फिर वह माँ को लेकर चिरैयाकोट चले
	आए थे। गाँव में चाची ने माँ को बहुत रोका था पर सहायजी माने नहीं और माँ को
	लेकर ही गाँव से लौटे थे।
	कौशल्या अभी तक काँप रही थीं। क्या सहायजी भी गाँव पहुँचकर बैरागी हो जाएँगे
	और खुद उनको सहायजी की माँ की तरह नीचे के तल्ले में अलग-अलग रहना होगा। क्या
	यह भी ऊपर की मंजिल के कमरे में एक दिन... वह गिड़गिड़ा पड़ीं, "आप दिल्ली चलकर
	क्यों नहीं रहते।"
	सहायजी का निर्णय पक्का था, "चिन्मय के पास रहने का विचार त्याग दो। अब यह तय
	करो कि किस दिन और किस समय चलना है गाँव।" वह पुनः कमरे में चहलकदमी करने लगे।
	कौशल्या हताशा तथा हैरत से उन्हें देख रही थीं...। वह बार-बार इस सवाल से टकरा
	रही थीं कि आखिर ये क्यों नहीं चिन्मय के पास रहने के लिए तैयार हो रहे हैं?
	क्या कारण हो सकता है इसका?
	ऐसा भी नहीं था कि चिन्मय और सहायजी में कोई मनमुटाव या वैमनस्य था। सहायजी का
	चिन्मय पर शुरू से ही अपार स्नेह था। बल्कि इस बात को लेकर चिरैयाकोट में एक
	दंतकथा मशहूर थी कि चिन्मय को जब दिल्ली में नौकरी मिली तो सहायजी ने आदमी
	भेजा था चिन्मय का हाल-चाल लेने के लिए। लौटकर उसने बताया कि नौकरी बहुत अच्छी
	है मगर कार और बंगला नहीं मिला है। सहायजी दिल्ली पहुँच गए। उन्होंने चिन्मय
	को दो चेक दिए, "एक पर मकान की रकम भर लेना, दूसरे पर कार की। आराम से रहो।"
	कार-मकान खरीदकर चिन्मय चिरैयाकोट आया था और माँ-पिता से बोला था, "मुझे आप
	लोगों की एक फोटो चाहिए।"
	सहायजी को चालीस की उम्र तक फोटो खिंचाने का भयानक चस्का था लेकिन बाद में
	उनका मन इससे उखड़ गया था। इसलिए वह चिन्मय को कोई ताजा फोटो नहीं दे सके। एक
	पुरानी तसवीर निकाली और पूछा, "इससे काम चलेगा?" इस तसवीर में सहायजी टाई पहने
	थे और कोट की जेब में गुलाब का फूल टँका था। कौशल्या गुलाब के फूल से भी
	ज्यादा ताजा लग रही थीं। गले में नेकलस था, नाक में नथुनी, कानों में झुमके।
	खुशी चमक आए दो दाँतों से झलक रही थीं।
	चिन्मय ने कहा, "पापा, ये बहुत पुरानी है और ब्लैक एंड व्हाइट है।" उसने नया
	कैमरा खरीदा था और दोनों की तसवीर उतारी थी। उसे सुंदर फ्रेम में मढ़ाकर दिल्ली
	के मकान में अपने बिस्तर के पास रखा था।
	जब उसने उस फोटो के सामने पहली बार सिगरेट जलाई तो घबरा गया। उसे लगा
	मम्मी-पापा देख रहे हैं। उसने सिगरेट बुझा दी। हालाँकि बाद में वह उसी तसवीर
	के सामने शराब पीता था। दो बाजारू औरतों को लेकर सोया भी था। शादी के बाद
	मनजीत के साथ सोता ही था। तसवीर की हाजिरी में ही वह मनजीत को कई बार पीट चुका
	था और मनजीत से कई बार पिट चुका था। चिन्मय का आरोप था कि वह अपने बॉस तथा
	अन्य कई लोगों के साथ रँगरेलियाँ मनाती है जबकि मनजीत की शिकायत थी कि वह अपने
	न जाने कितने दोस्तों की बीवियों और बेटियों को बर्बाद कर चुका था।
	वैसे कौशल्या को यह सब मालूम नहीं था। सहायजी की भी जानकारी में यह बात होगी,
	यह भी संदिग्ध था। कौशल्या को बस यही उलझन घेरे थी कि सहायजी दिल्ली में रहने
	के लिए क्यों नहीं तैयार होते।
	हालाँकि ऐसा नहीं था कि जब सहायजी पर गाँव में रहने की धुन सवार हुई, तभी उनकी
	दिल्ली से अरुचि मुखर हुई थी। पहले भी जब वह वहाँ जाते थे तो उनके दिल में शहर
	चिरैयाकोट की साँकलें बजने लगती थीं। जैसे उनको चिरैयाकोट का नशा था। दरअसल यह
	शहर उनकी लीला-भूमि था। इसके जर्रे-जर्रे का स्पर्श उनके पैरों में था। उनके
	रंध्रों में यहाँ के वृक्षों की हवाएँ थीं और आँखों में ढेर सारे अक्स। कितने
	सारे दोस्त और दुश्मन थे यहाँ। कैसे इससे मुँह मोड़कर कहीं चले जाते वह।
	लेकिन अब यह चिैरयाकोट छोड़कर गाँव जा रहे थे। चिन्मय के फोन पर फोन आ रहे थे।
	मनजीत और मनु का भी दबाव था, वह किसी भी सूरत में गाँव न जाएँ। वहाँ डॉक्टर,
	बिजली और मनोरंजन का अभाव होता है।
	फिर भी वह कौशल्यासहित जा रहे थे।
	चिरैयाकोट में जिसे मालूम हुआ, वह अचंभा कर रहा था। आखिर सहायजी को क्या सूझा
	कि वह शहर छोड़ रहे हैं... चिरैयाकोट ने उनको कभी किसी शिकायत का मौका नहीं
	दिया था। पूरे ठाट-बाट का जीवन यहाँ जीया था उन्होंने। फिर क्यों जा रहे हैं।
	सहायजी के पिता यहीं पर रजिस्ट्रार ऑफिस में बड़े बाबू थे और बेइंतिहा पैसा
	कमाते थे। कहा जाता था कि वह चिरैयाकोट के मोतीलाल नेहरू थे और सहायजी
	जवाहरलाल नेहरू। जब सहायजी लखनऊ में वकालत पढ़ने गए तो उनके पिता ने उन्हें
	मोटर खरीदकर दी थी। वहाँ वह शाम को दोस्तों को मोटर में बैठाकर हजरतगंज की सैर
	कराते थे।
	चिरैयाकोट के जवाहरलाल नेहरू सहायजी स्वयं अच्छे वकील बने। वकालत के पेशे से
	उन्होंने काफी दौलत जुटाई थी। कुछ लोगों का तो कहना था कि सहायजी करोड़पति हैं,
	करोड़पति।
	शहर में सहायजी के खर्च करने को लेकर भी चर्चाएँ रही थीं कभी। कहा जाता था कि
	सहायजी जवानी के दिनों में फुर्सत के वक्त पतंग उड़ाया करते थे। उनकी पतंग में
	दस रुपये का नोट चिपका होता था। उनकी पतंग कभी कटती नहीं थी। कुछ मौकों पर कटी
	तो उसे लूटने के लिए खून-खच्चर हुए। पतंग को लेकर यह भी सुना जाता था कि अपनी
	एक दूर की भाभी से वह सौ रुपये की बाजी लगाकर पतंग लड़ाते थे। इन दूर की भाभी
	से उनकी पतंग लड़ती तो नजारा होता था। गोरी-सुंदर, नई-नवेली भाभी पायल छम-छम
	बजाती हुई छत पर पेंच चलाती और इधर सहायजी डोर बढ़ाते। लोग अपनी-अपनी छतों पर
	आकर, सड़क पर रुककर इन दो लड़वैयों का खेल देखते। अंत में सहायजी की पतंग कट
	जाती थी और उन्हें सौ रुपये देने पड़ते थे। कई लोगों का ऐतबार था कि सहायजी
	जान-बूझकर हारते थे ताकि सौ रुपयों से भाभी की मदद हो क्योंकि भाभी बड़ी गरीब
	थीं।
	सहायजी की शौकीनी के भी किस्से थे। बताते हैं कि किसी जमाने में उनके पास ढेर
	सारे मुल्कों की शराबों का संग्रह था और ज्यादातर बोतलें बड़ी पुरानी थीं। उनके
	घर का पका चावल पूरे मुहल्ले में महकता था। उनकी डायनिंग टेबल पर फलों और मेवे
	की टोकरियाँ पड़ी रहतीं। अब तो खै़र उन्होंने बीमारी तथा अध्यात्म के चलते सब
	त्याग दिया लेकिन वह वक्त भी था, जब उनके मोजे इत्र से नहलाए जाते थे। और यह
	कि उनके पास बेगम अख्तर, नूरजहाँ और बड़े गुलाम अली खाँ के सारे रिकार्ड थे।
	इतना ही नहीं, उन्होंने एक शायर, एक सारंगीवादक और तीन रक्काशाओं जैसे कई
	हुनरमंदों को गाढ़े वक्त में खासी इमदाद दी थी। उनकी इसी दान-वृत्ति की परिणति
	थी, उनके द्वारा माँ-पिता के नाम पर चलाई जाने वाली छात्रवृत्तियाँ।
	वह शहर में रचे-बसे थे, शहर उनमें रचा-बसा था। सभी संप्रदायों के लोगों के बीच
	उनका आत्मीयतापूर्ण आमदरफ्त था। जाने कितने मुसलमान भी उनके दोस्त थे। वह
	चिरैयाकोट के अकेले हिंदू थे जो रमजान के महीने में एक दिन रोजा अफ्तार की
	दावत करते थे। ईद के दिन वह ऐसे उत्साहित रहते गोया खुद पक्के मुसलमान हैं।
	चिकन का कुर्ता-पायजामा पहनकर वह देर रात तक ईद मिलन करते। कई बार वह अपनी कार
	में मुसलमान दोस्तों को बिठाकर ईद मिलन के लिए निकलते थे।
	होली में सहायजी के घर आनेवालों का ताँता लगा रहता था। कौशल्या के अनुसार ऐन
	होली के दिन हजार गोझियाँ खत्म हो जाती थीं। जबकि आने वालों का सिलसिला अगले
	पंद्रह दिनों तक चलता रहता था। सहायजी भी कौशल्या के साथ लोगों के यहाँ होली
	मिलने जाते थे। होली ही नहीं, खुशी का और गम का भी कोई मौका हो, वह शरीक होते
	थे। उनके यहाँ आज तक आया कोई भी निमंत्रण पत्र ऐसा नहीं था जिसकी उपेक्षा की
	गई हो।
	चिरैयाकोट में उनकी लोकप्रियता को देखकर एक राजनीतिक पार्टी ने चुनाव में
	उन्हें अपना प्रत्याशी बनाने की मंशा जाहिर की थी। लेकिन उन्होंने साफ इनकार
	कर दिया था। उनका कहना था कि विधायक या सांसद हो गए तो कई-कई दिनों तक के लिए
	चिरैयाकोट छोड़ना पड़ेगा, और ऐसा कर पाना उनके लिए नामुमकिन है।
	लेकिन वही सहायजी अब हमेशा के लिए चिरैयाकोट छोड़कर गाँव रहने जा रहे थे तो शहर
	हत्बुद्धि था। इन दिनों चिरैयाकोट के ढेर सारे घरों और लोगों के बीच यह प्रमुख
	चर्चा थी कि सहायजी शहर छोड़कर जा रहे हैं। हाँ उनके इस प्रस्थान के कारणों को
	लेकर आम सहमति नहीं थी। अटकलें लगाई जा रही थीं। अलग-अलग राय और अंदाजा था
	लोगों का। मगर सहायजी के अजीज दोस्त मकबूल साहब का अनुमान सभी से जुदा था।
	उनका कहना था, "सहाय घबराहट की वजह से शहरसे रुखसत हो रहे हैं। हाँ...हाँ...
	शहर में ताबड़तोड़ बन रही दुकानों से उनको घबराहट होने लगी थी। उन्होंने मुझसे
	कई बार कही है यह बात कि इतनी दुकानों के बनने से चिरैयाकोट बरबाद हो जाएगा।
	सब जगह दुकानें ही दुकानें हो जाएँगी तो बच्चे कहाँ खेलेंगे और हम बूढ़े लोग
	सुबह की सैर कहाँ करेंगे।" हालाँकि यह बात सही थी कि शहर में भयानक रफ्तार से
	दुकान-निर्माण हो रहा था। गली-सड़क हर जगह दुकानें बन रही थीं। दुकानें घरों
	में घुस गई थीं। कई तो अपने घरों को तोड़कर दुकानें बनवा रहे थे। लेकिन
	सुननेवालों को मकबूल साहब की बात पर यकीन नहीं आ रहा था कि दुकानों को देखकर
	सहायजी को घबराहट होने लगती होगी। फिर मान लो कि घबराहट होती भी होगी तो यह
	असंभव ही है कि इन दुकानों के कारण वह चिरैयाकोट छोड़ रहे हैं। एक-दो को तो
	मकबूल साहब की बात पर हँसी आ गई थी।
	एक तबके की धारणा थी कि सहायजी ने कोई बहुत ज्यादा नहीं कमाया था। और चिन्मय
	को दो चेक देने के बाद वह खाली हो गए थे। अब उनके पास यहाँ गुजारा करने लायक
	पैसा ही नहीं था, इसलिए शहर छोड़कर जा रहे थे। हालाँकि इस मान्यता के लोग बहुत
	कम थे। जो थे भी, वे सहायजी के बारे में बहुत कम जानते थे। अन्यथा उनको मालूम
	होना चाहिए था कि सहायजी की आर्थिक हालत ऐसी गई-गुजरी नहीं है।
	एक मत के मुताबिक सहायजी के चिरैयाकोट त्याग के पीछे कोई गूढ़ कारण नहीं था।
	बात सिर्फ इतनी थी कि उनके दिमाग का कोई पुर्जा ढीला हो गया था। नहीं तो कोई
	बात थी कि जिंदगी यहाँ बिताने के बाद मरने गाँव जा रहे हैं जहाँ बुखार तक का
	इलाज करनेवाला डॉक्टर नहीं मिलेगा। उनके मानसिक संतुलन बिगड़ने के संबंध में यह
	दलील भी दी जा रही थी कि यदि दिमाग सही होता, और वह जाने की सोचते तो दिल्ली
	जाते बेटे-बहू-चिन्मय के पास। यह क्या कि गाँव चले जा रहे थे।
	कौशल्या ने भी इस मसले पर गौर किया था और इस नतीजे पर पहुँची थीं कि गाँव चलने
	के फैसले की वजह सहायजी के स्वभाव में पिछले दिनों से आए हुए बदलाव हैं। उनको
	बार-बार लगता कि यदि सहायजी यकायक अनमने, बेचैन और मायूस न रहने लगे होते,
	बोलते-बोलते खामोश हो जाने या चुप रहते-रहते अचानक चौंक पड़ने के लक्षण उनमें न
	प्रकट हुए होते तो वह गाँव चलने की बात कभी न कहते। हालाँकि कौशल्या के पास
	दोनों के बीच कार्य-कारण संबंध स्थापित करने के लिए ठोस सबूत नहीं थे, फिर भी
	उनको अंतर्बोध के आधार पर ऐसा महसूस होता था। अंततः उन्होंने इस बात पर भी
	विचार किया था कि आखिर सहायजी के स्वभाव में ये परिवर्तन क्यों हुए और कब हुए।
	काफी सोच-विचार करने के बावजूद वह कोई निश्चित राय नहीं बना सकी थीं। हाँ
	अनुमान के तौर पर उनके भीतर दो घटनाएँ अक्सर कौंध जातीं।
	एक यह कि सहायजी काफी रात तक चिटिठयाँ लिखते रहे थे, अखबार पढ़ते रहे थे। उसके
	बाद वह सोने के लिए उठकर चलने को हुए तो लड़खड़ाकर गिर पड़े। ज्यादा तेज नहीं
	गिरे थे, न ही सीढ़ियों पर गिरे थे लेकिन मेज से सिर टकरा गया और वहाँ जख्म हो
	गया था। डॉक्टर ने बताया कि बुढ़ापे में इस तरह लड़खड़ाकर गिर जाना कोई खास बात
	नहीं है। ज्यादा काम करने की वजह से उन्हें चक्कर आया और गिर पड़े। सँभल इसलिए
	नहीं सके कि शरीर में पहले जैसी ताकत, फुर्ती और नियंत्रण कर सकने की सामर्थ्य
	नहीं रही। डॉक्टर ने उनको एक टॉनिक लिखकर जख्म की मरहम-पट्टी कर दी थी। लेकिन
	उनके घाव जल्दी सूखते नहीं थे। शायद इसलिए कि उनको डायबिटीज था। सहायजी मत्थे
	पर जख्म लिए खोए-खोए रहते और निराशा भरी बातें करते। कहते, "जिंदगी में कुछ
	रखा नहीं है। अब हमें सामान समेटने की तैयारी करनी चाहिए।" सामान समेटने की
	तैयारी का अर्थ मौत को स्वीकार करने से भी हो सकता है लेकिन कौशल्या का मानना
	था कि यह भी हो सकता है, कि सामान समेटने का मतलब चिरैयाकोट छोड़ देने से रहा
	हो।
	कौशल्या को जो दूसरी घटना महत्वपूर्ण लगती थी वह यह थी कि लगभग पूरा चिरैयाकोट
	कर्फ्यू की चपेट में था। हिंदुओं-मुसलमानों के बीच दंगा भड़क गया था। बम के
	धमाके अभी भी हो रहे थे। लूटपाट और लाशें मिलने की खबरें थीं। यह पहली ईद थी,
	जिसमें सहायजी मकबूल साहब के दस्तरख्वान पर नहीं बैठे थे और अपने मुसलमान
	दोस्तों के बच्चों को ईदी नहीं दे सके थे। खौफनाक मंजर था। पुलिस की गश्त होती
	रहती थी। सिपाहियों के बूटों की ठक्...ठक् बहुत करीब सुनाई देती। तरह-तरह की
	चीखें, जयघोष, नारों, मारकाट की आवाजें गूँज रही थीं। छतों और गलियों से
	अफवाहें दौड़ रही थीं।
	सहायजी तीन दिनों से घर में पड़े थे। उनको चिन्मय, मनजीत और मनु की बेइंतिहा
	याद आ रही थी। दंगा-रक्तपात यहाँ चिरैयाकोट में हो रहा था और वह बार-बार
	दिल्ली फोन करके चिन्मय से सबकी खैरियत पूछते।
	सहायजी और कौशल्या में यह डर बैठ गया था कि यदि उन्हें कुछ हो जाए तो कौन उनकी
	मदद के लिए आएगा। यही सब सोचकर एक रात वे दोनों काँपने लगे। इसे संयोग ही कहा
	जाएगा कि जब वे काँप रहे थे, बिजली चली गई। अब कमरे में एकांत, अँधेरा और डर
	था। सहायजी ने करवट ली और कौशल्या के पास आ गए। उनके चेहरे को हथेलियों में
	लेकर अंधकार में न जाने क्या देखते रहे। फिर फुसफुसाए, 'कौशल्या!' वह बिस्तर
	पर कौशल्या से लगभग एक दशक बाद बोले थे। उन्होंने दुबारा कहा, 'कौशल्या!' और
	अपना गाल उनके वक्ष पर रख दिया। अँधेरे के कारण पता नहीं चला पा रहा था कि
	सहायजी डरे हुए हैं या कामोद्दीप्त हैं। शायद उनमें दोनों ही उद्वेग थे। शायद
	वह डर से बचने के लिए कामोद्दीप्त हो रहे थे। वह कौशल्या को निर्वस्त्र करने
	लगे। खुद भी वैसे ही हो गए। कौशल्या को बाजुओं में भरा। होंठों को मुँह में
	रखा कि कौशल्या की दाढ़ हिल गई। वहाँ के दो दाँत टूटने के निकट थे। वह दर्द से
	कराहीं। बिजली आ गई। रोशनी में बूढ़े शरीर घृणास्पद लग रहे थे। दोनों ने
	एक-दूसरे को घृणा से देखा। अपने को घृणा से देखा।
	कौशल्या को याद आता है कि इसी के बाद सहायजी के स्वभाव में परिवर्तन स्पष्ट
	रूप से दिखाई पड़ने लगा था। लेकिन अभी वह मुखर नहीं हुआ था कि इसी बीच वह बुखार
	की गिरफ्त में आ गए। तेज बुखार रहने लगा था उनको। हमेशा मस्तक सन...सन करता
	रहता। उजाले में भी लगता, अँधेरा है। अँधेरे में लगता, सब डूब रहा है। अक्सर
	सहायजी की आँखें मुँद जातीं और उनकी चेतना जैसे अतल गहराइयों में डूबने लगती।
	जब ऐसा होता तो उनको लगता कि वह मर-से गए हैं या मर रहे हैं। इस स्थिति में
	विचित्र बात यह होती थी कि उन्हें बचपन, माँ-पिता, गाँव और अनेक मरे हुए लोग
	दिखने लगते थे। पुरानी बातें, पुराने लोग याद आते। माँ-पिता कब के मर चुके थे
	लेकिन उनको इधर कभी-कभी महसूस होता, माँ उनके पास चारपाई पर बैठी हैं। पिता
	जोर-जोर से श्लोक पढ़ रहे हैं। कभी लगता, चाचा कमरे में बठकर टी.वी. देख रहे
	हैं। जबकि चाचा के मरने तक हिंदुस्तान में टी.वी. का प्रचलन ही नहीं था।
	सहायजी को कभी-कभी ऐसा भी एहसास होता कि परिवार के मरे हुए लोग आसमान से उनको
	बुला रहे हैं। तब उनकी घिघ्घी बँध जाती थी जब उनको भयानक चेहरेवाले लोग दिखाई
	देते। बडे-बड़े दाँत-लंबे नाखूनोंवाले काले, भयानक राक्षसों जैसे चेहरे आँखें
	चमकाते हुए उनकी तरफ बढ़ते तो वह अर्धचेतना में ही घिघियाने लगते थे और पसीने
	में भीग जाते थे।
	बुखार के चरम क्षणों में जीवितों में उन्हें सिर्फ चाची दिखाई देती थीं और
	उन्हीं की याद भी आती थी। चाची गाँव के छब्बीस कमरों के मकान में अकेली रह रही
	थीं। वह सहायजी से बारह साल बड़ी थीं और किसी भी दिन परलोक सिधार सकती थीं।
	सहायजी को स्मरण होता, जब चाची गाँव के मकान में चाचा की दुल्हन बनकर आई थीं,
	तब कितने लोग इकट्ठा थे। छब्बीस कमरों का वह घर कितना भरा-पूरा लगता था। ढेर
	सारी मुँहदिखाई मिली थी चाची को। बहुत-सी अँगूठियाँ, बाजू़बंद, कान में
	पहननेवाले आभूषण और प्रचुर नकदी। चाची तब गौरैया थीं। चहचहाहट से सबका दिल जीत
	लेती थीं। लेकिन कैसे सब नष्ट हो गया! चाची को छोड़कर एक-एक सब मरते गए।
	गौरैया-सी चाची अब गाँव में उतने बड़े मकान के थोड़े से हिस्से में छिपकली की
	तरह रेंग रही थीं।
	चाचा की मृत्यु के पहले चाची के आठ बच्चे मरे थे। चाची ने छब्बीस कमरों के घर
	के एक खास कमरे में आठ बच्चे जने थे। सभी मरे हुए पैदा होते थे। बाद में मालूम
	हुआ था कि गर्भाशय में ही शिशु को पीलिया घेर लेता था। यह बात पता चली, तो कोई
	फायदा न था क्योंकि चाची के भीतर हर प्रजनन के बाद शिशु को पीलियाग्रस्त
	करनेवाले तत्व बढ़ जाते थे। अब आठ प्रसूति के बाद उन तत्वों का परिमाण अथाह हो
	गया था। दूसरे यह कि यदि ऐसा न होता, तो भी कोई उम्मीद न बची थी क्योंकि चाचा
	मर गए थे। दरअसल यह जानकारी ही तब हासिल हुई, जब चाचा मरनेवाले थे। वह और चाची
	दोनों मेले में झूले से गिर पड़े थे। वह जिस झूले के जिस हिंडोले में बैठे थे,
	वह हिंडोला टूटकर झूले से गिर गया था। चाचा-चाची खून से लथपथ हो गए थे।
	अस्पताल में खून चढ़ाए जाने के लिए उनके रक्त की जाँच हुई। चाची बच गईं। उनका
	रक्त-समूह ओ पाजिटिव था। चाचा का रक्त-समूह बी निगेटिव था। इस समूह का खून
	मिला ही नहीं, अतः चाचा खत्म हो गए थे। उसी समय पता चला था कि यदि पति-पत्नी
	के रक्त-समूह विरुद्ध जातियों में हुए तो संतान को शिकंजे में लेने के लिए
	पीलिया घात लगाए रहता है। तो इस प्रकार चाची के आठ बच्चे पैदा होने के पहले ही
	मर गए थे। और अब वह विधवा तथा निःसंतान दोनों थीं।
	कितने लोगों की मौतें हुईं। सहायजी के पिताजी छब्बीस कमरोंवाले मकान की सबसे
	ऊँची मंजिल के कमरे में एक सुबह मरे पाए गए थे। वह अपने कमरे में नींद से मौत
	की दुनिया में प्रस्थान कर गए थे। यह वह वक्त था जब गाँव के उस आलीशान मकान
	में चार-चार विधवाएँ मँडरा रही थीं। बाद में चाची को छोड़कर वे अपने-अपने बेटों
	के पास आ गईं। वे अपने बेटों के यहाँ ही मर गईं। पहले चाची की देवरानी मरीं,
	जिन्हें शायद कैंसर हुआ था। उनके मुँह में बड़ा-सा औंधा फोड़ा था। वह
	गों...गों...गुर्र... की आवाजें निकालती चल बसीं। फिर बड़ी जिठानी का किस्सा
	खत्म हुआ। वह बुखार में मर गईं। इसके बाद सहायजी की माँ की बारी थी। उनकी आदत
	थी कि अपनी तकलीफ को जब्त करती रहती थीं। यहाँ तक कि उच्च रक्तचाप की शिकार हो
	गईं लेकिन चुपचाप उसकी मार को सहती रहीं। बहुत हुआ तो कहतीं, "सिर में दर्द हो
	रहा है।" और हिमताज तेल लगा लेतीं। यहाँ तक कि वह बिना चश्मे की थीं, जबकि
	उनकी आँखों की ज्योति कम हो गई थी। आँखों की ज्योति में गिरावट बिटामिन ए की
	कमी के कारण नहीं थी, न आँखों पर अधिक जोर पड़ने से थी। दरअसल उच्च रक्तचाप का
	हमला उनकी आँखों पर भी दाँत गड़ा देता था। इसी कारण उनको एक दिन हार्ट अटैक पड़ा
	तो काफी देर छुपाती रहीं। नतीजतन अस्पताल पहुँचने तक मामला बहुत बिगड़ चुका था।
	घबराकर सहायजी बोले थे, "जितना रुपया लगेगा, वह खर्च करेंगे, बस माँ की जान बच
	जाए।" लेकिन न रुपया, न डॉक्टर उन्हें बचा सके। माँ की मौत के बाद अब पुरानी
	पीढ़ी में चाची ही शेष थीं। चाची को चिरैयाकोट आना पसंद नहीं था और सहायजी को
	गाँव जाना। दोनों की आखिरी मुलाकात चिन्मय की शादी के मौके़ पर हुई थी। चाची
	की कमर झुकने लगी थी तब।
	बीता हुआ सारा कुछ सहायजी के भीतर उमड़ रहा था। मलेरिया के घोर बुखार में वह जल
	रहे थे। उधर उनकी आत्मा में भी हाहाकार मचा हुआ था। जैसे मंथन हो रहा हो। यह
	उनके बुखार का आखिरी किंतु सबसे विस्फोटक पहर था। तमाम दिवंगत परिचित और पुरखे
	अब अधिक तेजी से उनकी चेतना में गतिविधि कर रहे थे।
	वह पुरखों के हलचल-भरे रोमांचक संसार में विचरण कर रहे होते कि अचानक उनके
	कानों में दंगे की आवाजें फटने लगतीं। धाँय...धाँय, चाकू-छुरे की ध्वनियाँ,
	हत्यारों के शोर, खून, मांस, पुलिस-मिलेट्री के बूटों की ठक्-ठक् सब जैसे
	किलकारियाँ भरते हुए उनको दबोच लेते। ऐसे में सहायजी थोड़ी देर छटपटाते फिर
	उनको लगता कि वह निस्पंद पाताल की गहराइयों में डूबते जा रहे हैं। काफी देर
	बाद वह उबरकर ऊपर आते तो घबराहट से भर उठते। पता नहीं वह सपना देख रहे होते या
	सोच रहे होते लेकिन उनको हकीकत की तरह अनुभव होता, वह चिरैयाकोट की ढेर सारी
	दुकानों की भूलभुलैया में भटक गए हैं या कौशल्या भटक गई हैं और वह उनको खोज
	रहे हैं। खोजते-खोजते वह स्वयं भी भटक गए हैं। वह भय से कई बार चिल्ला पड़े थे।
	धीरे-धीरे उनका बुखार उतर गया और वह स्वस्थ हो गए थे। लेकिन वह बुखार की अवधि
	की अनुभूतियों और स्मृतियों से उबर नहीं पाए थे। उन्हें बार-बार लगता कि वह
	निपट अकेले हैं।
	कौशल्या का विश्वास था कि इन्हीं के चलते सहायजी ने चिरैयाकोट छोड़कर गाँव में
	रहने का फैसला किया था। कौशल्या की वह बात सच थी या मकबूल साहब या सहायजी के
	चिरैयाकोट छोड़ने को लेकर चर्चा करनेवाले अन्य लोगों की, निश्चयपूर्वक कुछ कहा
	नहीं जा सकता था। क्योंकि दो टूक हकीकत तो स्वयं सहायजी बता सकते थे और वह
	इसके लिए उपलब्ध नहीं थे।
	वैसे कौशल्या का आकलन ज्यादा तर्कपूर्ण लगता था मगर मकबूल साहब की बातें भी
	निराधार नहीं थीं क्योंकि सहायजी की बीमारी ने यह साफ कर दिया था कि शहर में
	बन रही बेशुमार दुकानों ने उनकी चेतना पर बुरा प्रभाव छोड़ा था। नहीं तो वह
	बुखार में दुकानों की भूलभुलैया में भटकना क्यों महसूस करते। मकबूल साहब तथा
	अन्य चिरैयाकोटवासियों के आकलन में गड़बड़ी यह थी कि वह अधूरा होता था। मसलन
	मकबूल साहब को लिया जाए तो उनकी बात से सहायजी के चिरैयाकोट छोड़ने का आधार
	मिलता था लेकिन उसमें इसका कोई संकेत नहीं था कि वह बेटे के पास दिल्ली न जाकर
	गाँव क्यों जा रहे हैं। ऐसे ही कुछ के विचारों से गाँव जाने की वजह पता चलती,
	किंतु चिरैयाकोट छोड़ने का औचित्य नहीं सिद्ध होता था।
	लेकिन यदि गहराई के साथ सहायजी की बुखार की अवधि की अनुभूतियों की छानबीन की
	जाए तो देखा जा सकता है कि उन दिनों उनके यहाँ दंगों, दुकानों, पुरखों तथा
	यातनापूर्ण दृश्यों का जो कोलाज बनता था, वह यह प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त
	था कि उनका मन चिरैयाकोट से विरक्त हो गया है।
	बहरहाल, सत्य जो भी रहा हो, परिणति यही थी कि सहायजी ने कौशल्या के साथ गाँव
	रहने की तैयारी कर ली थी और अब वह जा भी रहे थे। कौशल्या पड़ोसियों से कह रही
	थीं, "हमारे घर की भी निगरानी आपके जिम्मे है। आपके ही भरोसे घर छोड़कर जा रही
	हूँ।" सहायजी बाहर आए और ताला लगाने लगे। कौशल्या बोलीं, "एक मिनट, रुकिए जरा,
	अभी ताला मत लगाइए।" सहायजी ने दरवाजा खोल दिया और वहीं खड़े रहे।
	कौशल्या घर के भीतर गईं। उनके लिए यह घर सहायजी से चौबीस दिन छोटा था क्योंकि
	वह ब्याह के बाद सीधे गाँव ले जाई गई थीं। वहाँ तेईस दिन बिताने के बाद यहाँ
	आई थीं। उन्होंने चारों तरफ नजर डाली, सब खिड़की-दरवाजे बंद कर दिए थे सहायजी
	ने। वह आँगन में आ गईं। आँगन में तुलसी का पौधा था, उसके पास आराध्य पत्थर थे।
	नल के नीचे प्लास्टिक की पुरानी बाल्टी पड़ी थी। कौशल्या धीरे-धीरे छत की
	सीढ़ियाँ चढ़ने लगीं।
	छत पर अनंत आकाश था। बदली छाई थी। पतंगें उड़ रही थीं। कौशल्या के लिए यह छत
	हमेशा बहुत प्यारी थी। मुहल्ले में छतें आपस में गुँथी-सटी थीं। शुरुआती दिनों
	में वह मौका पाते ही मेंहदी से लाल हाथ-पाँव लिए छत पर पहुँच जाती थीं। उनके
	वहाँ पहुँचते ही मुहल्ले की कितनी सारी बहुओं, बच्चों और ननदों का अपनी-अपनी
	छतों पर आगमन हो जाता था। कौशल्या ने उन दिनों को याद किया और मुस्कराईं।
	उन्हें याद आया, तब वह कितने उत्साह से छत पर फैलाने के लिए बाल्टी में कपड़े
	लेकर आती थीं और देर लगा देती थीं। एक बार का वाकया है कि वह कपड़े फैला रही
	थीं कि बंदर आ गया और उनका लाल रंग का ब्लाउज फाड़ने लगा। तब उनको बहुत शर्म
	लगी थी। वह विहँस पड़ीं।
	"बहुत खुश हो। कोई बात याद आ गई क्या।" सहायजी की आवाज थी।
	कौशल्या ने देखा, वह एकदम उनके पीछे खड़े थे, "आप कब आए यहाँ?"
	"तुम्हारे आने के थोड़ी देर बाद।" सहायजी ने कहा।
	कौशल्या ने लक्ष्य किया कि सहायजी उनसे बात जरूर कर रहे थे लेकिन उन्हें देख
	नहीं रहे थे।
	सहायजी को छत से चारों तरफ चिरैयाकोट ही चिरैयाकोट नजर आ रहा था। एक छोटा-सा
	शहर दूर तक फैला हुआ था।
	कौशल्या को लगा, सहायजी चिरैयाकोट पर इस समय पूरी तरह मुग्ध हैं। उन्हें अवसर
	अच्छा लगा, "एक बार फिर से सोच लीजिए। न हो तो हम यहीं चिरैयाकोट में ही
	रहें।"
	सहायजी कुछ बोले नहीं। एक क्षण के लिए कौशल्या पर नजर डाली, "नीचे दरवाजा खुला
	छोड़ आया हूँ।"
	वे सीढ़ियाँ उतरकर नीचे आ गए थे। बाहर निकलते समय कौशल्या ने तुलसी के पौधे को
	देखा। वह दुखी हुईं कि यह सूख जाएगा। थोड़ी देर के लिए उनके पाँव ठिठक गए।
	सहायजी ने बाहर से कार का हार्न बजाया। कौशल्या जल्दी-जल्दी बाहर आईं। ताला
	बंद करके खींचा, कहीं खुला तो नहीं रह गया। अब तक सहायजी ने कार स्टार्ट कर दी
	थी। कौशल्या तेज कदमों से आकर उनके बगल में बैठ गईं...
	गाँव के मकान में चाची कई वर्षों से अकेले मँडरा रही थीं। पति की मौत पर उनके
	शोक में आँसू से अधिक चीखें थीं। उस समय उनको पति खो देने के संताप से ज्यादा
	इस बात का खौफ हो रहा था कि अब क्या होगा! कैसे पार हो पाएगी जीवन की नौका।
	बच्चे भी नहीं, पति भी नहीं, और सामने थी लंबी जिंदगी। उन्हें वर्तमान निस्सार
	तथा भविष्य भयानक लगने लगा था। गाँव के कई लोगों ने भविष्यवाणी की थी कि वह
	ज्यादा दिन नहीं चलेंगी। कई ने तो उन पर निगरानी रखने की सलाह दी थी कि कहीं
	वह नदी-कुएँ में छलाँग न लगा दें या आग लगाकर या गले में फंदा कसकर अपनी
	इहलीला समाप्त न कर डालें। लेकिन इसके विपरीत उन्होंने जल्दी ही रंग दिखाए।
	संसार उन्हें असार नहीं, अच्छा लगने लगा। वह चीजों पर नजर रखने लगीं। उनका
	खाने-पीने का शौक पुनः शुरू हो गया। वह लहसुन-हरी मिर्च के मिश्रण से एक चटख
	खाद्य सामग्री तैयार करती थीं और रोजाना भोजन के साथ उसका जायका लेती थीं।
	अचार, सब्जियों और किस्म-किस्म की चटनियों की शौकीन वह बदस्तूर बनी रहीं। इतना
	ही नहीं, वह हलवाहे की कामचोरी, अनाजचोरी भी पकड़ने लगीं।
	चाची ने खादी भंडारवाले पंडितजी को बाहर बरामदे से सटी कोठरी किराए पर दे दी
	थी। उसमें खादी भंडार का दफ्तर खुल गया था। कोठरी के सामने के लंबे बरामदे में
	स्त्रिायों की चरखा-सभा लगती। गाँव की तमाम स्त्रियाँ इकट्ठा होतीं और चरखा
	चलातीं। ये लोहे के भारी चरखे थे, जो स्वदेशी आंदोलन के लिए नहीं, कुछ रुपये
	कमाने के लिए चलाए जाते थे। चरखों की चरर...चर्र... के संगीत में स्त्रिायों
	का गायन होता था। वार्ताएँ, निन्दा, हँसी और भद्दे मजाक होते थे। शाम होने पर
	वे अपना-अपना चरखा चाची के दालान में रखकर घर सँभालने चली जाती थीं।
	चाची रात को भी चरखा चलाती थीं। रात में जब अंधकार में डूबा छब्बीस कमरों का
	वह मकान भाँय-भाँय करने लगता था, जब दिन में सोई रहनेवाली उनके बच्चों और पति
	की मौतें और जीवन की यादें जग जाती थीं तब चरखा उनका शस्त्र और कवच बनता।
	कभी-कभी रात के सुनसान में चरखे की आवाज और उनके रुदन की अद्भुत जुगलबंदी पेश
	होती। इस जुगलबंदी में इतना रस था कि कभी-कभी भोर हो जाती। शायद इसलिए चाची
	खादी भंडार से सबसे ज्यादा रूई लेनेवाली और सबसे ज्यादा सूत देनेवाली महिला
	थीं। उनके सूत महीन तथा उच्चकोटि के होते थे। चाची ने न जाने कितनी सूत की
	घुंडियाँ तैयार की होंगी। न जाने कितने वस्त्रों में चाची के चरखे के सूत
	शामिल हुए होंगे। कई सालों की अवधि में रची-बसी थी उनकी तिजारत।
	वह अक्सर सूत के बदले पैसे लेती रही थीं। लेकिन कई बार उन्होंने कपड़े भी लिए
	थे। उनके द्वारा खरीदे गए कपड़ों में दरी, कंबल, धोती, गमछों, चद्दरों आदि के
	अलावा दो कुर्तों के लिए कपड़े भी थे। एक का कपड़ा सहायजी के लिए था, दूसरा
	चिन्मय के लिए। चिन्मय ने उस कपड़े को अटैची में बंद कर दिया था और कई साल बाद
	उसका कुर्ता सिलवाया।
	एक दिन शौक-शौक में चिन्मय की पत्नी मनजीत ने भी पैंट के ऊपर कुर्ता पहन लिया
	था। वह अपने पर मुग्ध हो गई थी। कुर्ते के भीतर से उसके भारी स्तन बहुत ही
	ज्यादा कामोत्तेजक लग रहे थे, इस बात को वह जान चुकी थी। इसलिए उसी कुर्ते में
	वह अपने बॉस से मिली थी। बॉस ने कुर्ता उतारकर खुद पहन लिया था और ठठाकर हँसे
	थे, "देखो, चिन्मय का कुर्ता मैंने पहन लिया है।" वह बाँहों में वक्ष सँभालते
	हुए बोली, "मैं कुर्ता नहीं हूँ।" बॉस ने उसकी बाँहों को खोल दिया, "तुम न
	कुर्ता हो न ब्रा। तुम मेरा प्यार हो।" वह बॉस के सीने से सट गई, "न ये कुर्ता
	आपका है, न मैं आपकी हूँ। ये कुर्ता चिन्मय का है और मैं भी।" बॉस ने जोर से
	हँसकर उसे भींच लिया था।
	घर लौटकर मनजीत ने चिन्मय के सामने कुर्ता उतारा था तो वह चौंक पड़ा था, "तुमने
	कुर्ते के नीचे ब्रा पहना था। अब कुर्ता उतारा है तो ब्रा गायब है। क्या हो गई
	तुम्हारी ब्रा?"
	जब मनजीत बॉस के सीने से चिपकी थी तो उसके सिर का एक बाल कुर्ते की बटन में
	फँस गया था। चिन्मय ने उस लंबे बाल को देखा, "ये लंबा बाल! क्या तुम समलैंगिक
	भी हो गई हो?" वह गुस्से में चिन्मय पर झपट पड़ी थी।
	चाची ने चरखे के पैसों के एक गाय भी खरीदी। गाय के दूध ने चाची के जीवन में
	खुशियाँ भर दी थीं। वह दूध में रोटी भिगोकर खातीं और दही भी जमातीं। गाय से दो
	बछड़े भी हुए थे, जिन्हें चाची ने बेच दिया। वे बैल बनकर कहीं और जाँगर खर्च कर
	रहे थे। वे चाची के काम नहीं आ सकते थे क्योंकि वे बटाई पर खेती करनेवाली
	ठहरीं। गाय की एक बछिया भी हुई थी। बाद में गाय मर गई लेकिन तब तक वह बछिया
	गाय बन गई थी। नतीजतन चाची के दूध-दही सेवन में कोई फर्क नहीं आया।
	गाय के कारण धीरे-धीरे चरखे से चाची का लगाव कम हो रहा था। उनके प्राण गाय में
	बसने लगे थे। वह जैसे उनकी औलाद हो। उसकी सेवा में वक्त बिता देती थीं। बातें
	करती रहतीं। रात को गाय रँभाती तो वह लेटे-लेटे जवाब देतीं, "चुपचाप सो जा।
	सबेरे मिलेगी भूसा-चरी।" बातें वह चरखे से भी करती थीं, लेकिन चरखा बड़ी-बड़ी
	आँखों से उनको देखता नहीं था। पूँछ लहराकर, कुलाँचें भरकर खुशी तो नहीं प्रकट
	करता था।
	यह पाली गाय भी एक बछिया को जन्म देने के बाद मर गई। बछिया जब गाय हुई तो चाची
	उससे परेशान रहने लगीं क्योंकि एक तो वह लतमारू निकल गई। पास जाकर सहलाओ तो
	लात मार देती। मुँह हिलाकर सींग मारने को झपटती। दूध भी कम देती। सबसे बड़ी
	बात, चाची ने इसको एक दिन विष्ठा खाते हुए देख लिया। तब से जब वह दूध का सेवन
	करतीं, उन्हें अपनी गाय का विष्ठा खाना याद आने लगता।
	परिस्थिति विडंबनापूर्ण हो गई थी। उन्होंने गाय के चक्कर में अपने दुख के साथी
	चरखे से अपनापा कम किया था। कम क्या, चरखा चलाना लगभग बंद कर दिया था। उनकी
	उदासीनता के कारण चरखा-सभा प्रधानजी के घर में जुटने लगी थी। खादी भंडार भी
	स्थानांतरित हो चुका था। और अब गाय भी गड़बड़ी कर रही थी। सबसे बुरी बात वह
	विष्ठा खाने लगी थी जो चाची के लिए बरदाश्त के बाहर था। उनको हुई तकलीफ का
	अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि वह टूट गईं और जीवन के उनके लगाव के तंतु
	कमजोर होने लगे थे। इसमें शायद वक्त का भी असर था। हो सकता है कि वह यदि इतनी
	बूढ़ी न हुई होतीं, उनकी कमर कमान की तरह न झुक गई होती तो ऐसा न होता। पर यह
	तो एक अनुमान है। वास्तविकता यह थी कि चाची का मन उचाट हो गया था।
	वह ज्यादातर छत की कड़ियाँ देखने में समय बिताने लगी थीं। उस विशालकाय भवन में
	एक कमरे और रसोई से ही उनका वास्ता रह गया था। शेष घर धूल खा रहा था। छह साल
	हुए होंगे, पूरे मकान में झाड़ई नहीं लगी थी। कुछ कमरे उससे भी पहले से बंद थे।
	ताले लटके रहते। कुछ की चाबियाँ भी खो गई थीं।
	चाची वीतराग रहने लगी थीं। एक दिन अपने केश कतर डाले जबकि विधवा होने पर भी
	उन्होंने इनको नहीं त्यागा था। क्योंकि ये केश काफी नरम, काले, लंबे थे और
	चाचा प्यार के समय इनसे खेला करते थे। झूले के जिस हिंडोले से गिरकर चाचा मरे
	थे, उसमें भी उन्होंने चाची के केशों को छुआ था। वही अब चाची को मुसीबत महसूस
	होने लगे थे। इसलिए उन्होंने एक दिन उन पर कैंची दौड़ा दी।
	उनको अब अपने शरीर तक की परवाह नहीं रह गई थी। कुएँ की जगत् पर खुले में ही
	नहा लेती थीं।
	बस जिह्वा-सुख में उनकी रुचि बची हुई थी। लेकिन खाते-पीते उन्हें गाय के
	विष्ठा-भक्षण की याद आती और वितृष्णा से भर उठतीं। फिर भी वह गाय अपने पास
	रखने के लिए विवश थीं क्योंकि उनको उससे अपनापा हो गया था, इसलिए वह उसे बेच
	नहीं पाती थीं। जैसे कोई अपनी नालायक संतान को बेच नहीं पाता है। फिर क्या
	ठिकाना, दूसरी खरीदें तो वह विष्ठा खानेवाली न हो। नतीजतन वह उसी लतमारू,
	विष्ठा खानेवाली गाय के साथ गाँव के छब्बीस कमरोंवाले मकान में अकेली रह रही
	थीं।
	कार गाँव में दाखिल होने पर सहायजी भावुक हो गए। उन्होंने कार धीमी कर दी।
	इतनी धीमी कि वह जैसे रेंग रही थी। कौशल्या ने पूछा, "गाड़ी इतनी धीमी क्यों कर
	दी?"
	सहायजी ने कोई जवाब नहीं दिया। गाड़ी रोक दी। दरवाजा खोलकर चुपचाप बाहर निकले
	और चारों तरफ देखने लगे। वह विह्वल होकर सब कुछ देख रहे थे।
	यह गाँव का सबसे अधिक रमणीक स्थान था। खड़ंजोंवाली सड़क के दोनों तरफ खूब
	घने-छतनार पेड़ों की कतारें थीं। बगल में बहुत दूर तक फैला हुआ तालाब था। तालाब
	का आखिरी छोर जहाँ खत्म होता था, वहाँ एक शिवाला था। तालाब के किनारे बगुले थे
	तो पेड़ों के झुरमुट में मोर। बरसात की ऋतु के कारण पेड़ हरे-भरे और भारी हो गए
	थे तथा तालाब अधिक जलवान। सहायजी एकदम विभोर थे। वह मुस्करा पड़े। जब बच्चे थे
	तो कितना आते थे इस जगह। इस तार के शिवाले पर जाने की कितनी इच्छा रहती थी
	लेकिन कभी नहीं जा पाए। उन्होंने निश्चय किया, इस बार जरूर जाएँगे शिवाले। वह
	फिर मुस्कराए, मगर अब वह बच्चे कहाँ रह गए हैं।
	"क्या कर रहे हैं वहाँ?" कौशल्या थीं। उनको सहायजी के इस तरह चुपचाप गाड़ी से
	उतर जाने से परेशानी हो रही थी।
	सहायजी धीरे-धीरे चलकर आए और कार का दरवाजा खोला। उन्होंने कार चालू की। कार
	के इंजन के घुरघुराते ही सहायजी को लगा, चारों ओर धूसर रंग छा गया है। वह कार
	चला रहे थे, उसी रेंगती हुई रफ्तार में-और धूसर रंग बढ़ता जा रहा था। बाहर के
	एक-एक दृश्य के प्रति वह अनुराग से भरे जा रहे थे। गाँव उनकी आँखों के रास्ते
	से प्रवेश करके आत्मा में स्थापित हो रहा था। तभी जैसे गोधूलि हो गई हो, उनमें
	पुराने दिनों की अनेक जगहें चमक जाने लगीं। जैसे, छब्बीस कमरोंवाले मकान के
	पिछवाड़े की जमीन चमकी। बारिश में इस जमीन की मिट्टी उभर आती थी और कहीं-कहीं
	चाँदी के सिक्के निकलते थे। इन सिक्कों पर अजीब-सी भाषा में कुछ लिखा होता था।
	इनकी आकृतियाँ भी भिन्न थीं। सहायजी की याद में साठ साल पुराना वह बच्चा उतर
	आया जो जाँघिया पहनकर बारिश में छपाछप नहा रहा था। उसने इन सिक्कों को देखा तो
	खुशी से पागल हो गया। वह उन्हें बटोरकर हाँफते हुए माँ के पास आया, "अम्मा, ये
	पैसे... पिछवाड़े मिले हैं।" माँ सहायजी के हाथ से उन सिक्कों को छीनकर पुनः
	उसी मिट्टी में दबा आई थीं। डाँटा था, "आइंदा कभी जो हाथ लगाया इनको।"
	उन्होंने समझाया था, "बेटे, ये पुरखों का धन है, आत्माएँ इनकी रखवाली कर रही
	हैं। ऐसा पैसा फलता नहीं।" सहायजी ने बड़े होने पर चिन्मय को भी यह बात बताई थी
	तो वह उतावला हो गया था, "पापा, उस जमीन की गहरी खुदाई करके सब धन निकाल लिया
	जाए।" सहायजी ने मना कर दिया था। क्योंकि बचपन में उनको यह भी समझाया गया था,
	यहाँ हल, कुदाल, फावड़े चलेंगे तो मिट्टी पर ही नहीं, पुरखों पर भी चलेंगे।
	धरती से सिक्कों के साथ पुरखों के खून की फुहार भी बरसेंगी। कहीं किसी पुरखे
	की गर्दन निकलेगी, कहीं हाथ, कहीं आँखें निकलेंगी।
	जमीन की तरह ही, सहायजी की भटक रही स्मृति में कभी वह मैदान चमक जा रहा था,
	जहाँ रामलीला और नौटंकी हुआ करती थीं। वह कुआँ जिसमें ग्यारह साल के सहायजी
	गिर पड़े थे। वह वन, जहाँ सहायजी ने पहली बार मोर नाचते हुए देखा था। बाग का वह
	वृक्ष, जिसके जरिए उन्होंने पेड़ पर चढ़ना सीखा था। ये सभी ड्राइविंग करते
	सहायजी के भीतर जाग गए थे। वह जगह बार-बार प्रकट हो रही थी, जहाँ उन्होंने
	पिता के शव को मुखाग्नि दी थी। अंगारों और लपटों के बीच पिता चटख रहे थे।
	सहायजी के सामने वह भुतहा मकान उभरा, जिसके एकांत में तेरह साल के सहायजी को
	एक युवती ने पकड़ लिया था। उसने उनके गालों को काट लिया था और अपने गाल बढ़ाकर
	बोली थी, "लो, अब तुम मेरा काटो...।"
	...छब्बीस कमरोंवाला मकान सामने था। आदिकाल का पुता हुआ, फीका, मनहूस और
	बदरंग। सहायजी उद्विग्न हो गए। मकान के शिखर पर खुदे उनके बाबा के नाम के कुछ
	अक्षर उखड़ चले थे। नाम के दोनों तरफ एक-एक स्त्रियाँ जो शायद परियाँ थीं, माला
	पहना रही थीं। एक परी का कान टूट गया था तो दूसरी परी की आँख फूट गई थी। मकान
	में कई जगह का पलस्तर निकल आया था।
	सहायजी कौशल्या को लेकर दरवाजे की तरफ बढ़े। दरवाजे की कुंडी को स्पर्श किया।
	कितने साल बाद वह उस लोहे को छू रहे थे।
	चाची के कानों में कुंडी खड़की। वह बैठे-बैठे ही बोलीं, "चले आओ।" तभी उन्हें
	याद आया, दरवाजा तो उन्होंने कुत्तों के डर से बंद कर लिया था। वह घुटनों पर
	जोर लगाकर उठीं और झुकी-झुकी चलने लगीं। वह इसी तरह चल सकती थीं क्योंकि उनकी
	कमर कमान की तरह मुड़ गई थी और पैरों में ताकत नहीं बची थी। आज वह कुछ ज्यादा
	ही झुकी थीं। इतना कि यदि अपने दोनों हाथ नीचे लटका देतीं तो लगता कि कोई
	जानवर चल रहा है।
	चाची ने किवाड़ खोले। उनके बाल एकदम सफे़द थे। ठुडढी पर भी बाल निकले हुए थे।
	उनकी गरदन हिल रही थी। सहायजी स्तब्ध हो गए। उन्होंने अपने को सँभाला और
	नमस्ते किया। कौशल्या बैठकर आँचल बढ़ाकर चाची के पाँव पूजने लगीं। चाची के
	चेहरे पर हैरानी का भाव था। वह बोलीं, "कौन लोग हो? हमको ठीक से दिखता नहीं
	है।"
	"हम हैं चाची। हम कौशल्या हैं, ये आपके भतीजे।"
	"तेज बोलो, हमको ऊँचा सुनाई देता है।"
	सहायजी ने जोर से बोलकर परिचय बताया। उनको उम्मीद थी कि उनका नाम सुनते ही
	चाची भावविह्वल हो जाएँगी। उनकी आँखों से आँसुओं की धार बहने लगेगी। आशीष
	देंगी। लेकिन चाची ने ऐसा कुछ नहीं किया। क्योंकि उनके आठ बच्चे गर्भ में
	नौ-नौ महीने रहने के बाद मरे पैदा हुए थे। एकदम आँखों के सामने पति ने खून ने
	लतपथ दम तोड़ा था। एक-एक कर अपनों ने साथ छोड़ दिया था। अंत में गाय भी विष्ठा
	खाने लगी थी। तो जिस चाची को दुखों ने इतनी क्रूरता से पीटा था, वह कैसे
	सहायजी को देखते ही प्यार से मूर्छित हो जातीं या उनका सिर सहलाते हुए
	आशीर्वाद देने लगतीं।
	वह दोनों को भीतर ले आईं। उनसे आँगन में पड़ी खटिया पर बैठने के लिए कहा। स्वयं
	नीचे पड़े पीढ़े पर बैठकर एक टहनी से पीठ खुजलाने लगीं। जमुहाई लेती हुई बोलीं,
	"लगता है, पानी बरसेगा।" सिर हिल रहा था। उन्होंने पूछा, "पानी-वानी पियोगे।"
	सहायजी को गहरा आघात लगा, चाची तो उनके आने पर जरा भी खुशी नहीं प्रकट कर रही
	हैं। और तो और, पानी भी ऐसे पूछ रही हैं जैसे वह महज रस्म अदायगी हो। उनहोंने
	चाची से आत्मीयता सघन करने का यत्न किया, "अरे... आप कहाँ तकलीफ करेंगी।"
	कौशल्या उठकर पानी लेने चली गईं। वह लौटतीं कि चाची ने चाबियों का एक बड़ा
	गुच्छा लाकर सहायजी को पकड़ा दिया, "जो ताले न खलें, उनको तेल पिला देना।"
	सहायजी छत पर पहुँचे तो अँधेरा छाने लगा था। यह शाम और रात का समय था। सहायजी
	के हाथ में लालटेन लटक रही थी। इसलिए उनके चलने पर रोशनी का एक टुकड़ा अँधियारे
	पर कुलाँचें भरता जा रहा था। और जब सहायजी अपने पिता के कमरे में हाजिर हुए तो
	वही कुलाँचें भरता टुकड़ा पूरे कमरे में फैल गया। पीले-मटमैले प्रकाश में एक
	मृतक का वह स्थान अधिक प्राचीन तथा रहस्यपूर्ण हो गया था। कमरे में ढेर सारी
	गर्द जमा थी। सहायजी ने पिता की मृत्यु का वर्ष याद किया और सोचा, कितने
	वर्षों की धूल है यहाँ! दीवारों पर जाले फैले हुए थे। एक जगह मकड़ी का बड़ा जाल
	भी था। लेकिन कमरा काफी कुछ वैसा ही था, जैसा पिता के वक्त में रहता था। वैसे
	ही तख्त पड़ा था, बस उस पर पिता नहीं थे। तख्त के सिरहाने ऋग्वेद पुस्तक पलटी
	हुई रखी थी। सहायजी ने उठाकर लालटेन के करीब लाकर देखा, पृष्ठ 38-39 थे।
	उन्होंने पुस्तक पहले की तरह ही पलटकर रख दी। कमरे में ढेर सारे आले और ताख
	थे। सभी में धार्मिक ग्रंथ रखे हुए थे। तख्त से सटी हुई मेज पर भी किताबें
	थीं। उस मेज पर होमियोपैथी की दवाओं का बक्सा भी था। वह जेब से रूमाल निकालकर
	होमियोपैथी के बक्से को चमकाने लगे। थोड़ी देर बाद उन्होंने फिर कमरे पर नजर
	डाली, एक खूँटी पर पिताजी का कुर्ता लटक रहा था, एक पर छाता। वह तख्त पर बैठ
	गए। तभी उनको ध्यान आया, मरने के पहले पिताजी क्या पढ़ रहे थे। उन्होंने ऋग्वेद
	उठा ली और पढ़ने लगे। लेकिन कुछ ही पल बीते होंगे कि उन्हें लगा, सीढ़ियों से
	पिताजी खड़ाऊँ की खट्...खट् करते आ रहे हैं। वह हड़बड़ाकर बाहर आ गए। बाहर खुला
	आसमान था और घना अँधेरा घिर आया था।
	वह हर कमरे को देख रहे थे। उन्होंने बखार देखा, दालान देखा, सौरी का कमरा देखा
	जहाँ चाची ने आठ मरे बच्चे जने थे। बैठका, पूरबवाला हालकमरा - सब कमरे
	उन्होंने देख डाले। कई कमरे एकदम खाली थे तो बखारवाला कमरा ठुँसा हुआ था।
	उसमें मिट्टी के बड़े-बड़े पात्र रखे थे। सहायजी ने सोचा, पता नहीं इनमें अनाज
	भरे हैं या नहीं।
	थोड़ी देर बाद स्थिति यह थी कि चाची का कमरा छोड़कर उन्होंने पूरे घर का मुआइना
	कर लिया था। चाची के कमरे में कई साल से ताला लगा था। चाचा के गुजर जाने के
	बाद चाची इस कमरे को भूल गई थीं। सहायजी में इस कमरे को भी देखने की गहरी ललक
	पैदा हुई। उन्होंने पूछ ही लिया, "चाची, क्या यह कमरा भी खोल लूँ?"
	शादी के बाद चाची को अपने लिए यही कमरा मिला था। इसी कमरे में तबके छोटे
	सहायजी चूड़ीदार पायजामा और शेरवानी पहनकर सकुचाते हुए पहली बार चाची से मिलने
	आए थे। उनको तब चाची से पेड़ा खाने के लिए मिला था। चाची ने उन्हें प्लास्टिक
	का बना गुलाब का फूल भी दिया था। सहायजी ने सहमे-सहमे अर्ज किया था,
	"चाची...चाची... आपका इत्र हम भी लगा लें।" चाची खिलखिलाकर हँस पड़ी थी। बड़ी
	देर तक हँसती रही थीं और हँसते-हँसते ही उन्होंने सहायजी की हथेली के उलटी तरफ
	इत्र लगा दिया था। मगर तब तक सहायजी की इत्र में दिलचस्पी समाप्त हो गई थी।
	उन्हें चाची की हँसी अधिक सुगंधित और बेशकीमती लग रही थी।
	आज कई दशक बाद वह फिर उस कमरे में घुसे थे। उनके हाथ में लटकी लालटेन के
	प्रकाश में कमरा टिमटिमा रहा था। उन्होंने दीवार में गड़ी एक कील पर लालटेन
	टाँग दी। पूरे कमरे में दो चीजें पसरी थीं। एक थी, विशालकाय पलंग। पलंग की
	लकड़ी घोर काली थी या पुरानी होने पर काली हो गई थी, उसके बारे में कुछ
	निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता था। पलंग के सिरहाने पर अच्छी-खासी नक्काशी की
	गई थी। वहाँ मोती, शीशे और घुँघरू जड़े हुए थे। यह पलंग बहुत ऊँचा था। इतना कि
	युवावस्था में जब चाची इस पर बैठती थीं तो उनके गोरे पाँव पलंग ओर जमीन के बीच
	लटकते रहते थे।
	दूसरी चीज थी, कमरे के बीच में छत से लगा बड़ा-सा कपड़े का पंखा। पंखे के चारों
	तरफ किनारे-किनारे चुन्नटें पड़ी हुई थीं। सहायजी ने देखा, कपड़ा काफी
	जीर्ण-शीर्ण हो गया था। कभी इस तरह के पंखे छब्बीस कमरोंवाले मकान की शान थे।
	गर्मियों में कोई मजूर दरवाजे की चौखट के उस पार बैठकर बाहर गई इसकी रस्सी
	खींचा करता था। पंखी चुरूँ...रूँ...रूँ करता हवा देता रहता था।
	पंखा ठीक पलंग के ऊपर था। पलंग के दाहिनी तरफ की दीवार से सटा हुआ एक आदमकद
	शीशा था। सहायजी ने शीशे पर जमी धूल की मोटी पर्त हटाई। शीशे पर अभी भी चाची
	की एक टिकुली चिपकी थी।
	...उनको आभास हुआ, पीछे कोई खड़ा है। जोर-जोर से साँस ले रहा है। वह मुड़े।
	देखा, चाची थीं। वह कमरे को निहार रही थीं। क्या उन्हें भी गुजरा जमाना याद आ
	रहा था। वे दिन याद आ रहे थे, जब वह गहनों से लदी दुल्हन बनी इस पलंग पर
	सिमटी-सिकुड़ी बैठी थीं। शायद वह यही सब सोच रही थीं। क्योंकि उनकी झुर्रियाँ
	काँपीं "बच्चा, इस कमरे को भी साफ-सूफ करा देना।" गाँव आने के बाद सहायजी से
	कहा गया यह उनका पहला आत्मीयतापूर्ण वाक्य था।
	"सुन रहे हैं...।" कौशल्या ने आवाज दी थी। बाहर गाँव के कुछ लोग मिलने आए थे।
	वह उनसे मिलने के लिए निकल गए। चाची कमरे में अकेली खड़ी थीं। जिस चीज को
	सहायजी ने महत्व नहीं दिया था, उसे वह गौर से देख रही थीं। वह था आलमारी पर
	रखा हुआ हारमोनियम। चाचा को चाची पर जब बहुत प्यार आ जाता था तो वह पलंग पर
	चाची को सामने बैठा लेते थे। चाचा और चाची के बीच में यही हारमोनियम होता था।
	चाचा चाची को देखते हुए हारमोनियम बजाया करते थे। या इस तरह भी कहा जा सकता है
	कि हारमोनियम बजाते हुए चाची को देखा करते थे। एक बार तो ऐसे ही पूरी रात निकल
	गई। चाचा-चाची दोनों एक-दूसरे को देखते रहे थे और हारमोनियम बजता रहा था। एक
	बार की बात है, चाची को देखते-देखते चाचा मतवाले हो गए। वह चाची से बोले कि वह
	हारमोनियम अपने स्तनों से दबाकर बजाएँ। चाची पहले तो घबराईं, पसीने-पसीने
	हुईं। पर चाचा ने फिर इसरार किया। उन्होंने उनकी चूड़ियों भरी कलाई पकड़कर
	खींचा। झिझकी-सहमी चाची ने कलाई छुड़ा ली और साहस बटोरा। वह झुकीं और हारमोनियम
	अपने स्तनों से दबाया तो उनके पुष्ट स्तन भी दब गए थे। हारमोनियम बजने से आवाज
	निकली थी लेकिन उनको लगा, उनका शरीर बज रहा है...।
	शायद चाची में वह अनुभव मचलने लगा। वह इसीलिए अपनी झुकी-झुकी कमर लिए दरवाजे
	तक गईं। किवाड़ बंद कर दिए। मुड़कर वह उसी तरह झुकी-झुकी आलमारी पर रखे
	हारमोनियम तक आईं। उन्होंने ताकत लगाई कि हारमोनियम को उतारकर पलंग पर रखें
	लेकिन वह नाकामयाब रहीं। क्योंकि उनकी उँगलियों में भी अब ताकत कहाँ बची थी!
	ऐसा लग रहा था कि उनकी उँगलियाँ हारमोनियम को छू-भर पा रही हैं। उनमें
	हारमोनियम को पलंग पर उतार सकने क्या, उसे मजबूती से पकड़ सकने की भी संभावना
	शेष नहीं रही थी।
	हारकर वह पलंग पर चढ़ गईं। उन्होंने बंद दरवाजे की तरफ एक नजर देखा, फिर अपना
	ब्लाउज उतार दिया। उनके दोनों स्तन चिचुके हुए थे और झूल रहे थे। वह हारमोनियम
	खोलकर उससे सटीं। कई साल पहले घटित हुए उस दृश्य का स्मरण करते हुए उन्होंने
	हारमोनियम अपने स्तनों से बजाना चाहा। पर न हारमोनियम के बटन दबे न वक्ष। वह
	हाँफने लगीं। उन्होंने कोशिश की कि हारमोनियम बंद करके उस पर क्लिप चढ़ा दें,
	पर वह भी न हो पाया। ऐसा इसलिए भी नहीं हो सका था कि वह कमजोर और बुढ़िया होने
	के साथ-साथ इस समय घबराई हुई भी थीं। अंततः उन्होंने हारमोनियम को खुला छोड़
	दिया।
	वह पश्चात्ताप तथा आत्मग्लानि से भरी उस विशालकाय पलंग पर अर्द्धनग्न खड़ी थीं।
	अचानक उनकी आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा। उन्हें सब कुछ घूमता हुआ, चक्कर
	खाता लगा। और वह तेजी से पलंग पर गिरीं। उनके गिरने पर पलंग से धूल उड़ी और
	पलंग में लगे घुँघरू बज उठे।
	जब यह हादसा हुआ, उस समय सहायजी बाहर बैठे गाँववालों से चिरैयाकोट के बारे में
	बता रहे थे। तमाम सारे वर्णन करने के बाद उन्होंने कहा, "और यही सब
	सोच-विचारकर मैंने तय किया कि अपने गाँव में रहूँ।" यहीं पर मेरे पितरों को
	मिट्टी नसीब हुई, यहीं मुझे भी हो। अब आ गया हूँ तो उम्मीद करता हूँ कि आप
	सबकी आत्मीयता मुझे मिलेगी। सहायजी की आवाज भर्रा गई थी और उनके हाथ जुड़ गए
	थे।
	तभी किसी ने देखा, बरामदे में कौशल्या खड़ी हैं। उन्होंने हल्का-सा घूँघट निकाल
	रखा है और गाँव की मर्यादा के मुताबिक गाँव के मर्दों के बीच नहीं आ रही हैं।
	साथ ही चिल्लाकर पति को पुकार भी नहीं सकती हैं।
	सहायजी उठकर उनके पास आए, "क्या बात है, इतना परेशान क्यों दिख रही हो?"
	"चाची नहीं दिख रही हैं। मैं ऊपर छत पर भी हो आई। कई बार आवाज भी दी, लेकिन
	कोई जवाब नहीं।" उन्होंने आवाज मद्धिम कर दी, "उनका कमरा भीतर से बंद है। शायद
	उसी में हों। लेकिन जब मैंने जोर-जोर से किवाड़ पीटे तब भी वह न बोलीं, न
	दरवाजा ही खोलीं। पता नहीं, वहाँ हैं भी या नहीं।"
	बाहर बैठे हुए लोगों को लगा कि सहायजी को खाना खाने के लिए बुलाया जा रहा है,
	वे उठ खड़े हुए। उनके चले जाने के बाद दो-तीन मजदूर रह गए। जिनकी पिछली पीढ़ियाँ
	सहायजी के पुरखों की 'प्रजा' थीं। उन्हें लेकर सहायजी और कौशल्या भीतर आए। सभी
	चाची के कमरे के सामने खड़े हो गए। दरवाजे को धक्का दिया, पर वह नहीं खुला। जोर
	से धक्का दिया गया कि कहीं किवाड़ कसे होने के कारण फँस न रहे हों। लेकिन कोई
	लाभ न हुआ। सहायजी ने चाची को पुकारा, कोई जवाब नहीं मिला। एक मजदूर आँगन में
	पहुँच गया। दूसरा छत पर। एक और था, वह मकान के सामनेवाले हिस्से की तरफ चला
	गया। सभी आवाज देने लगे, "चाची... चाची...चाची...!" कौशल्या भी पुकारतीं। अजीब
	दृश्य था, रात को छब्बीस कमरों के मकान में कई दिशाओं से चाची-चाची की
	ध्वनियाँ गूँज रही थीं। आखिर में हारकर सब फिर चाची के कमरे के सामने खड़े थे।
	कौशल्या जोर-जोर से साँकल बजाने लगीं। इसी बीच एक मजदूर कहीं से लोहे की छड़ ले
	आया। उसे दरवाजे के बीच में फँसा दिया गया।
	दरवाजा खुला तो दिखा कि चाची पलंग पर बेसुध पड़ी थीं। कौशल्या ने चद्दर से
	उन्हें ढँका क्योंकि उनका ऊपरी हिस्सा नग्न था। वह तिरछी गिरी हुई थीं। यह
	सोने की स्थिति तो नहीं थी फिर भी कौशल्या ने पहले उन्हें इसी तरह झकझोरा जैसे
	नींद से जगा रही हों। लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। उनकी नब्ज देखी गई, चल
	रही थी। निश्चित हो गया कि वह बेहोशी में हैं। सहायजी उनके चेहरे पर पानी के
	छींटे देने लगे। एक मजदूर हाथ के पंखे से हवा करने लगा। कुछ देर बाद चाची के
	होंठ जरा-सा फड़के।
	उस दिन चाची किसी तरह होश में तो आ गई थीं लेकिन अब उनकी हालत ठीक नहीं थी।
	उन्हें बहुत कमजोरी आ गई थी। वह उठतीं या चलने की कोशिश करतीं तो चक्कर आने
	लगता था। वह अक्सर हाँफती हुई मिलती थीं। कभी-कभी वह कराहना शुरू कर देती थीं।
	उनके मानसिक स्वास्थ्य पर भी झपट्टा पड़ा था। कभी-कभी ऐसा लगने लगता कि उनके
	प्राण अब निकले कि तब निकले।
	गाँव के कुछ लोगों की प्रतिक्रिया थी कि चाची को पहले मकान और खेतों की
	जिम्मेदारी जिंदा रखे थी। उनके प्राण इन्हीं में फँसे हुए थे। सहायजी के आने
	के बाद वह बेफिक्र हो गई थीं और प्राण त्याग रही थीं। लेकिन कई लोग इसके
	विपरीत यह सोचते थे कि सहायजी ही चाची को मौत के मुँह में धकेल रहे हैं ताकि
	उनके हिस्से की जमीन-जायदाद बेचकर चिरैयाकोट चंपत हो जाएँ। इन लोगों का यह भी
	आरोप था कि सहायजी पितरों की जमीन पर मरने नहीं, पितरों की जमीन का सौदा करने
	आए हैं।
	सहायजी इन आरोपों से घबरा गए। उन्हें अनुभव हुआ कि वह किसी अभेद्य व्यूह में
	घिर गए हैं। मगर उक्त मनःस्थिति दीर्घजीवी नहीं हो सकी। क्योंकि आरोपों को
	बार-बार सुनने और उस पर विचार करने के लिए उन्हें अधिक समय नहीं मिल पाता था।
	वह ज्यादा वक्त चाची के कष्टों और हठों से ही जकड़े रहते थे। हमेशा खटका बना
	रहता कि चाची के प्राणपखेरू तो नहीं हुए?
	चाची को बीच-बीच में दौरे भी पड़ने लगे थे। वह चिल्लाने लगती थीं। हू...हू...
	की आवाजें निकालकर रोतीं। अकेले में होतीं तो बड़बड़ाया करती थीं। उनके हठ की
	जहाँ तक बात है तो एक यह कि वह हर समय उस कमरे की उसी पलंग पर चिपकी रहना
	चाहती थीं जबकि पलंग उनके लिए नामाकूल थी। क्योंकि बेहद ऊँची थी। वह उस पर चढ़
	नहीं पाती थीं। उतरना भी कष्टसाध्य था। सहायजी और कौशल्या ने कई बार कहा,
	"दूसरी पलंग पर चलें, चाची।" वह जवाब देतीं, "नहीं, मैं इसी पलंग पर रहूँगी।"
	यह प्रस्ताव भी रखा गया कि इस पलंग को हटाकर इसी कमरे में दूसरी पलंग डाल दी
	जाए। मगर वह इसके लिए भी तैयार न थीं। हालाँकि कई बार पलंग से उतरते समय मुँह
	के बल गिरने-गिरने को हो आई थीं। चढ़ते समय भी दुर्घटना का खतरा बना रहता था।
	जवानी में ऐसा नहीं रहा होगा। अब उनकी कमर पूरी क्षमता-भर झुक गई थी, तो यह सब
	होना ही था।
	हारकर अंत में सहायजी ने एक दिन बढ़ई बुलाया और कहा, "आरी से पलंग के पायों को
	काटकर छोटा कर दो।"
	बढ़ाई चाची से बोला, "आप पलंग से उतरें तो पायों को काटूँ।" चाची उस पर बिगड़
	पड़ीं, "मैं नहीं उतरनेवाली। तुझे काटना है तो काट, मैं यहीं रहूँगी।" बढ़ई ने
	सहायजी को देखा। उनका इशारा पाकर वह आरी चलाने लगा। चाची पलंग पर बैठी इस वध
	को देख रही थीं। आरी चलते बीस मिनट बीते होंगे कि वह हू...हू... कर रोने लगीं।
	आरी अपना काम कर रही थी। उसके दाँते पाये पर चलते तो घुर्र...घुर्र की आवाज
	होती और लकड़ी का बुरादा झड़ता। लेकिन आरी शायद पायों पर ही नहीं चल रही थी, वह
	चाची की जीवनीशक्ति पर भी चल रही थी। जब तीसरा पाया भी छोटा कर दिया गया तो वह
	बेहोश होने लगीं। पहले उनकी धड़कनें मंद पड़ीं। फिर आँखें चकराईं। दाँत आपस में
	भिंच गए और हाथ, पैर कड़े होने लगे। वह लुढ़क गईं।
	सहायजी, कौशल्या और बढ़ई तीनों बदहवास हो गए। बढ़ई तो थर-थर काँप रहा था। वह
	गिड़गिड़ाया, "दुहाई सरकार, हमारी कोई गलती नहीं है। हमको पुलिस-दरोगा को न
	सौंपिएगा हुजूर।" उसने सहायजी के पैर पकड़ लिए, "हुजूर, हम जिंदगी-भर आपकी सेवा
	करेंगे, बस हमें इस वक्त जाने दें।" सहायजी ने उसे जाने का संकेत किया, और
	कौशल्या से कहा, "चाची को अस्पताल ले चलना होगा।"
	सहायजी ने चाची को मोटर में लिटाया। कौशल्या भी मकान में ताला लगाकार आ गईं।
	वे दोनों जल्द-से-जल्द अस्पताल पहुँच जाना चाहते थे। उनकी कार ने गाँव की सीमा
	को जब पार किया, उसी समय बड़ी जोर से मूसलाधार बारिश शुरू हो गई।
>
	...रात होते-होते बारिश रुक गई थी। बल्कि आसमान में तारे भी बिछ गए थे। चाँदनी
	रात में छब्बीस कमरों का मकान खामोश खड़ा था। ऐसा पहली बार हुआ था कि रात के
	पहर में इस मकान के भीतर किसी इनसान का वास न था। दुआर पर खास मवेशी भी न थे।
	खाली गू खानेवाली गाय बँधी थी। चारों ओर सन्नाटा! पूरे मकान में मौन दबे पाँव
	चल रहा था। एक दौर था, जब इसी मकान में देर रात तक चाची का चरखा चलता रहता था।
	चाची के सो जाने के बाद भी काली मशीनों, सफे़द सूत, सफे़द रूईवाला चरखा जगता
	था। पर इधर कई साल से वह कबाड़वाले कमरे में सो रहा था।
	चाँदनी के उजाले में छब्बीस कमरोंवाले मकान में अँधेरा था। बस छत, दुआर और
	पिछवाड़ा चाँदनी में नहा रहे थे। आँगन में भी चाँदनी बरस रही थी। चाँदनी रात के
	उजियारे में कोई आवाज-सी भी होती है, वही आवाज झनझना रही थी।
	तभी मकान के पिछवाड़े सन्नाटा भंग हुआ लगा। जैसे कुछ लोग दीवार से पिछवाड़े की
	मिट्टी में कूदे हों।
	कूदनेवाले गाँव के ही एक परिवार के जन थे। वह घुटनों तक धोती और जनेऊ पहने थे।
	उन्होंने अपने-अपने चेहरों को गमछों से ढँक रखा था। जगमग चाँदनी में उनकी
	आँखें और दाँत चमक रहे थे। उनके पास कुदाल, फावड़े, लोहे की सरिया थीं। वे
	सहायजी के मकान के पिछवाड़े की धरती में गड़े हुए सिक्कों के खजाने की तलाश में
	आए थे।
	उन्होंने वहशियों की तरह पिछवाड़े की भूमि को खोदना शुरू कर दिया। फावड़े-कुदाल
	हवा में उठते और पूरी ताकत से मिट्टी में धँस जाते। खच्...खच् का शोर वातावरण
	में भरने लगा। उत्खनन में उन्हें प्रकृति ने भी सुविधा मुहैया कराई थी, बारिश
	के कारण मिट्टी बेहद नरम हो गई थी। इससे खुदाई के औजार अधिक गहराई तक धँसकर
	मिट्टी निकालते थे।
	वे लोग बेतहाशा खुश थे कि सुबह होने तक मालामाल हो जाएँगे। सिक्के
	ढूँढ़ने-बटोरने के लिए उनके बच्चे भी साथ आए थे। बच्चे बहुत उत्साह में थे।
	बीच-बीच में दौड़ने लगते और गीली जमीन पर फिसलकर गिर जाते। वे पुनः उठ खड़े होकर
	काम में जुट जाते। वे खुदाई से निकले मिट्टी के थक्कों को भुरभुरा बना रहे थे,
	जिससे सिक्के मिट्टी के बीच में हों तो दिखने लगें। इसी तरह गीली और लिसलिसी
	मिट्टी होती तो वे उसे फैला-फैलाकर सिक्के खोज रहे थे।
	गोया पूरे गाँव की आत्माओं में एक ही डायन मँडरा रही थी। क्योंकि कुछ ही देर
	बीता होगा, दूसरे लोग भी छब्बीस कमरों के मकान के पिछवाड़े कूदे। उनके भी हाथों
	में कुदाल और फावड़े थे। थोड़ी देर में फिर कुछ लोग कूदे थे। जिस दीवार से लोग
	कूद रहे थे, उसके पास की जमीन पर ढेर सारे पैरों के निशान थे। मकान का पिछवाड़ा
	आदमियों से भर गया था। चाँदनी रात में चारों तरफ आदमी फैले हुए थे और नीचे
	खुदी हुई मिट्टी थी। कुदालों, फावड़ों आदि के प्रहारों से शोर पैदा हो रहा था।
	वहाँ पैट्रोमेक्स और हंडे जल गए। वह जगह पूरी की पूरी जगमगा उठी। जैसे कोई
	उत्सव हो या रीति-रिवाज, लोग कोलाहल करते, चीखते-चिल्लाते, हँसते हुए खुदाई कर
	रहे थे। उनके पैर मिट्टी से सने थे। पेट, पीठ, हाथ, चेहरों पर भी मिट्टी पुती
	हुई थी।
	एक आदमी मुट्ठी को माइक की तरह मुँह से लगाकर बोला, "सुनो, भाइयो सुनो! मैं
	कहता हूँ सुनो।" थोड़े से वक्त के लिए सब ठहर गए। उस आदमी ने आगे कहना शुरू
	किया, "मुझको लगता है कि भीतर भी खजाना गड़ा होगा।"
	"बुढ़िया की पलंग के नीचे हीरे-जवाहरात दबाकर रखे हुए हैं। तभी वह वहाँ से हट
	नहीं रही थी।" दूसरा आदमी चिल्लाया।
	तीसरा कोई उल्लासपूर्वक बोला, "पुराने रईसों का घर है। पूरे घर में खजाना
	मिलेगा। मैं गारंटी देता हूँ, गारंटी। भरोसा न हो तो शर्त रख लो तुम लोग।"
	वे हुल्लड़ मचाते हुए, खुशियाँ मनाते हुए मकान के प्रवेश-द्वार पर आकर इकट्ठा
	हो गए। उन्होंने 'लक्ष्मी मइया की जय' और 'भारत माता की जय' के नारे लगाए और
	दरवाजे को तोड़ना शुरू कर दिया। दरवाजा टूट गया और वे बकरियों की तरह भीतर
	घुसने लगे। अंदर आकर वे हिंस्र पशु जैसे खूँखार हो गए। चाची के कमरे में घुसकर
	उन्होंने पुरानी पलंग को बाहर फेंक दिया और कमरे को खोदने लगे। कुछ लोग आँगन
	की भी खुदाई करने लगे। वे छतों और दीवारों को भी ध्वस्त कर रहे थे। बीच में
	कोई कह देता, "हो सकता है, खंभों में छिपा हो।" वे खंभों पर फावड़ा चलाने लगते।
	थोड़ा कमजोर करने के बाद उसमें रस्सी फँसाकर ढेर सारे लोग रस्सी को अपनी दिशा
	में खींचते और खंभा गिर पड़ता। खंभों के गिरने से छतें थोड़ी धसक जाती थीं। वे
	छतों को भी लाठियों तथा लोहों की छड़ों से ठोंकने लगे।
	सुबह होने के पहले तक यह मुहिम जारी रही। भोर होने को आई, तो वे भागने लगे थे।
	उनके पैट्रोमेक्स और हंडे अभी भी जल रहे थे। उनहें जलता हुआ ही लेकर वे भाग
	रहे थे। भागने से उनके औजार आपस में टकराकर खन...ठन... बज रहे थे।
	कोई रुका और अपने बेटे से बोला, "रुक ससुरे रुक।" उसका बेटा रुककर उसे देखने
	लगा। वह बोला, "देख, ये गइया बँधी है। चल, इसे लेते चलते हैं।"
	उन्होंने विष्ठा खानेवाली गाय का पगहा खोला तो वह मुँह हिलाते हुए झपटी लेकिन
	बाप ने उसकी सींगें पकड़ लीं। बेटे ने गइया की पूँछ न जाने किस तरह उमेठी कि वह
	बड़ी तेज भागने लगी। पीछे-पीछे बाप-बेटा दौड़ लगा रहे थे। अब सुबह निखर आई थी,
	कई स्त्रियाँ और नन्हें बच्चे अपने-अपने घरों से बाहर निकलकर या घरों के भीतर
	से झाँकते हुए यह दृश्य देखने लगे।
	जब सूर्य थोड़ा गर्म हुआ और मौसम में उमस घुस आई तो लोगों ने देखा कि सहायजी की
	कार गाँव की पगडंडी पर चली आ रही है। पूरे गाँव को गोया साँप सूँघ गया था। सभी
	स्तब्ध थे और घरों में घुसे थे। जैसे गाँव में कोई खूँखार डकैत आ गया हो या
	पुलिस महकमे का हुक्काम आया हो।
	सहायजी और कौशल्या को इस बात का बेहद अफसोस हो रहा था कि वे चाची को स्वस्थ
	कराने की मंशा से ले गए थे लेकिन लौट रहे थे चाची की लाश लेकर। हुआ यह था कि
	जब सहायजी और कौशल्या चाची को लेकर अस्पताल के लिए जा रहे थे तो उनकी मोटर में
	चाची की मौत दुबककर बैठ गई थी।
	चाची के अस्पताल में दाखिल होने पर मोटर में दुबलकर बैठी मौत उछलकर बाहर आई और
	चाची के पीछे-पीछे चलने लगी। बाद में चाची के बिस्तर पर वह तकिए के नीचे छुपकर
	बैठ गई। थोड़ी देर वह नींद लेकर आराम फरमाती रही। लेकिन जैसे ही चाची सोईं, वह
	जग गई। उसने सधे कदमों से बाहर निकलकर चाची को दबोच लिया।
	चाची की लाश बरामदे में रखी हुई थी। उसके एक तरफ सहायजी खड़े थे, दूसरी तरफ
	कौशल्या। उनके चारों ओर पुरखों की भूमि पर बना छब्बीस कमरों का मकान
	टूटा-फूटा, ध्वस्त और मटियामेट पड़ा था।
	"मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि हम क्या करें? कैसे करें?" कौशल्या ने कहा और
	लाश के पास सिर पकड़कर बैठ गईं, "देखो, चिन्मय कब आता है? फोन तो कर दिया था
	न?"
	सहायजी ने कोई जवाब न दिया। वह लाश के पास टहलने लगे थे। जाने क्या हुआ,
	कौशल्या जोर की चीखीं और दहाड़ मारकर रोने लगीं। उनका मर्मान्तक विलाप गाँव की
	स्तब्धता पर विस्फोटक की तरह गिरा।
	वह जीवन में पहली बार इतने हृदयविदारक तरीके से शोक प्रकट कर रही थीं। सहायजी
	के कदम जहाँ थे, वहीं ठिठक गए। वह कौशल्या को एकटक देखने लगे। वह जार-जार रो
	रही थीं। सहायजी के पिता इसी घर में दिवंगत हुए थे, तब वह इतना शोकाकुल नहीं
	हुई थीं। तो क्या यह एक स्त्री की मृत्यु पर एक स्त्री की वेदना थी! मगर
	सहायजी की माँ और खुद अपनी माँ की मौत पर भी वह इतना व्यथित नहीं हुई थीं। ऐसा
	तो नहीं कि चाची को बचाने की कोशिश में भागीदार होने के कारण चाची का शव उनको
	पराजय तथा अपनी सामर्थ्य की निरर्थकता का एहसास करा रहा था। हो सकता है कि वह
	मरी हुई चाची के रूप में अपने को देख रही थीं या वह अपनी ही देह की भावी
	परिणति से साक्षात्कार कर रही थीं।
	अब तक कुछ गाँववासी भी आकर शव के पास इकट्ठा हो गए थे। सबसे पहले स्त्रियाँ
	अपने घरों से बाहर निकली थीं, फिर इक्का-दुक्का पुरुष आए थे। सभी शव के पास
	जुटे हुए थे। स्त्रियाँ रो भी रही थीं। जाहिर था कि कौशल्या या सहायजी की
	तुलना में उनका चाची से ज्यादा वक्त का संबंध रहा था। उनमें से कितनी, चाची की
	चरखा-सभा में चरखा चलाया करती थीं। लेकिन उनमें से कई के आँसू चाची के विछोह
	में नहीं थे, बल्कि वे एक जीवित स्त्री कौशल्या के दुख से विचलित होने के कारण
	उपजे थे।
	कौशल्या पर जैसे दौरा पड़ गया था वह लगातार विलाप करती जा रही थीं। फिर जैसे थक
	गई हों। सुस्त पड़ने लगीं। उनके मुँह से फेन आने लगा। आँखें मुँदने लगीं। जैसे
	उन्हें गश आ गया हो और वह बेहोश होने जा रही हों। आस-पास खड़े स्त्री-पुरुषों
	की आँखें सहायजी से टकराईं। वह टुकुर-टुकुर कौशल्या को ताक रहे थे। उनसे कहा
	गया, "अरे, आप इनको सँभालिए, समझाइए, वर्ना ये बेहोश हो जाएँगी। इनकी हालत ठीक
	नहीं है।"
	सहायजी ने वहीं खड़े-खड़े कुछ कहना चाहा, परंतु विचित्र बात हुई कि उनके होंठों
	से आवाज ही नहीं निकली। उन्होंने दुबारा कोशिश की, इस बार भी वैसा ही हुआ।
	लोगों ने लक्ष्य किया, सभी के चेहरे भयभीत थे, लेकिन सहायजी के चेहरे पर कोई
	भाव न था। उनका चेहरा पथराया हुआ-सा था। अजीब तरह की कठोरता से जड़ हो गए थे
	वह। वह न रो रहे थे, न बोल रहे थे। जैसे वह देख-सुन भी नहीं पा रहे थे।
	माहौल में घबराहट फैल गई। सहायजी को झिंझोड़ा जाने लगा। उन्हें चाची के जीवन की
	बातें बताई जाने लगीं। सलाह हुई कि इनको चाची की याद से आँसू नहीं आएँगे। इनसे
	कहा जाए कि इनके बेटे चिन्मय की मौत हो गई या दुर्घटना में चिन्मय, उसकी पत्नी
	मनजीत और बेटा मनु मर गए।
	लेकिन सहायजी उसी तरह काठ बने रहे। कौशल्या के मुँह पर पानी के छींटे डाले गए
	तो वह होश में आ गई थीं। लोगों ने सहायजी पर भी वही प्रयोग आजमाया मगर कोई
	फायदा न हुआ। हारकर उनके बालों को पकड़कर झिंझोड़ा गया। गालों पर चपत लगाई गई।
	लेकिन वह वैसे ही काठ बने रहे। उसी तरह हत्बुद्धि। टकटकी बाँधे न जाने कहाँ
	देख रहे थे। आँखें कभी कहीं टिक जातीं तो कभी कहीं। वे किसी इनसान, पशु या
	वस्तु पर केंद्रित नहीं हो रही थीं। उनमें सुनसान और गहरा अपरिचय समा गया था।
	उनकी स्थिति से भयाक्रांत होकर कौशल्या रोना भूल गई थीं। वह चुपचाप सहमी हुई
	उनको देख रही थीं।
	सहायजी के शरीर में जुंबिश भी बहुत कम हो रही थी। सबसे खास बात, उनकी पलकें
	सामान्य गति से नहीं झपक पा रही थीं। कई बार ऐसा लगता कि वे बंद ही नहीं
	होंगी, या उन्हें उँगलियों के सहारे बंद करना पड़ेगा। वाकई वहम हो रहा था कि
	सहायजी सचमुच पत्थर या काठ हो गए हैं...
	दिल्ली आने के बाद सहायजी के स्वास्थ्य में सुधार हुआ था लेकिन ऐसा भी नहीं कि
	उन्हें पूरी तरह चैतन्य कहा जा सकता था। चिन्मय ने कई डॉक्टरों को दिखाया।
	दिल्ली में स्वास्थ्य सुविधाएँ अच्छी थीं।
	गाँव से ले आने के बाद चिन्मय सहायजी के इलाज की दिशा में सक्रिय हो गया था।
	उन्हें कई डॉक्टरों को दिखाया था। मनजीत भी उनको कई दिनों तक एक प्राकृतिक
	चिकित्सा केंद्र ले गई थी। कौशल्या ने पूजापाठ की शरण गही। इन सबके
	परिणामस्वरूप सहायजी के स्वास्थ्य में हल्का सुधार हुआ किंतु उनको पूरी तरह
	चैतन्य नहीं कहा जा सकता था।
	हालाँकि अब वह पत्थर या काठ की तरह नहीं रहे थे। उनकी पलकें झपकने लगी थीं।
	आँखों की पुतलियाँ सहज ढंग से डोल रही थीं। मगर वे पहले की भाँति उमंगहीन, जड़
	और शुष्क भी नहीं दिख रही थीं। वह घर के लान में ही सही, कभी-कभी थोड़ा चहलकदमी
	कर लेते थे। फिर भी उनको सामान्य अवस्था में नहीं स्वीकार किया जा सकता था।
	क्योंकि वह बोलते, हँसते और मुस्कराते नहीं थे। दिल्ली में उनके होंठों की
	स्मिति के दर्शन दुर्लभ थे। अमूमन वह गुमसुम बने रहते थे। जहाँ बैठ जाते, वहीं
	बैठे रह जाते थे। उनके चेहरे पर विराजमान रहनेवाला सूनापन और अपरिचय भी खत्म
	नहीं हुआ था।
	इस मुकाम पर आने के बाद चिकित्सा विज्ञान उलझन में फँस गया था। उसकी समझ में
	नहीं आ रहा था कि सहायजी को निरोग बनाने के लिए कौन-सा नुस्खा इस्तेमाल किया
	जाए। क्योंकि जाँच परीक्षणों की रिपोर्ट थी कि सहायजी को कोई खास बीमारी नहीं
	थी इस समय। यहाँ तक कि उनका रक्तचाप और डायबिटीज भी लगभग ठीक था। वजन अवश्य
	घटा था लेकिन उसका कारण यह हो सकता था कि सहायजी ठीक से खाना-नाशता नहीं करते
	थे।
	डॉक्टरों की समझ थी कि सहायजी में डिप्रेशन या अकस्मात् घोर मानसिक आघात लगने
	के कारण उत्पन्न होनेवाली जटिलताओं के लक्षण भी नहीं दिखाई दे रहे हैं। अतः तय
	है कि उनको कोई सांघातिक रोग नहीं है। फिर भी बतौर एहतियात कुछ दवाएँ दे दी गई
	थीं और कहा गया था कि घबड़ाने की कोई बात नहीं है।
	एक मनोचिकित्सक का विश्लेषण था कि सहायजी अपने किसी छोटे-मोटे दुख को, सदमे
	अथवा आघात को अपने मनोलोक में विकराल बनाकर उसी के अनुसार प्रतिक्रिया व्यक्त
	कर रहे हैं। कुछ मनुष्यों में ऐसा होता है कि उनको अपने को मुसीबतजदा और दुखी
	देखना प्रिय लगता है।
	जबकि एक मनोवैज्ञानिक का मत था कि सहायजी बुढ़ापे में मृत्यु, अकेलेपन और
	असुरक्षा की भावना से ग्रसित हैं। बहुत बार ऐसे लोग दूसरों की सहानुभूति पाने
	के लिए- ध्यानाकर्षण के लिए - अपने को चिंतित, व्यथित और गमों का मारा
	प्रदर्शित करते रहते हैं।
	चिन्मय ने कंप्यूटर से सहायजी की जन्मकुंडली बनवाई और ज्योतिषियों को दिखलाया।
	एक तांत्रिक से भी संपर्क साधा। एक अन्य ज्योतिषी के सामने सहायजी की
	हस्तरेखाओं का फिंगर प्रिंट प्रस्तुत किया। सभी का आकलन था कि ग्रह-नक्षत्र
	यही बता रहे हैं कि सहायजी को रोग का योग तो नहीं बनता है। हाँ, किसी बुरी
	आत्मा की जकड़ लगती है तो उसके लिए अनुष्ठान किया जा सकता है।
	इन्हीं सबके चलते चिन्मय और मनजीत को कभी-कभी शक होने लगता कि वाकई सहायजी को
	कोई बीमारी-फीमारी नहीं है। वह केवल स्वाँग रचा रहे हैं।
	मगर इस मामले में गुत्थी यह थी कि यदि वह स्वाँग रचा रहे हैं तो क्यों? उनको
	क्या जरूरत है स्वाँग रचाने की। दिल्ली रहने के लिए वह इतना पापड़ क्यों
	बेलेंगे। वह तो यहाँ कभी भी बसना नहीं चाहते थे। यहाँ तक कि यहाँ आने से ही
	हमेशा कतराते रहे। इस बिंदु पर उन दोनों का शक धराशायी हो जाता।
	लेकिन यह फिक्र तो उन्हें लगातार सताती रहती कि सहायजी की ऐसी विडंबनापूर्ण
	परिणति कैसे हुई...
	चाची की मृत्यु सहायजी की तकलीफ की वजह नहीं हो सकती थी। वह कौन सदा चाची के
	साथ रहे। कम-से-कम चाची से ऐसी आत्मीयता तो नहीं ही थी कि उनके बिछोह में
	उन्हें ऐसा सदमा लगे कि पत्थर या काठ हो जाएँ। फिर यह भी कि वह चाची का शव
	अस्पताल से लेकर खुद ड्राइव करते हुए गाँव आए थे। अगर चाची की मौत से सदमा
	पहुँचना होता तो अस्पताल में ही वैसा हो जाता जबकि वह शव लेकर गाँव के घर तक आ
	गए, शव रखकर उसके पास खड़े रहे, तब तक उनको कुछ नहीं हुआ था।
	चिरैयाकोट का छोड़ना भी कारण नहीं बनता था। हालाँकि सच है कि चिरैयाकोट से उनको
	अथाह प्रेम था किंतु यह भी तो सच है कि अपनी मर्जी से उन्होंने चिरैयाकोट छोड़ा
	था। दूसरी बात कि चिरैयाकोट से गाँव पहुँचने के बाद वह बहुत प्रसन्न रहने लगे
	थे। अतः यदि उनको चिरैयाकोट छोड़ने का दुख होता तो वह गाँव में इतना खुश कैसे
	रहते होते।
	मकान की तबाही से भी सदमा नहीं लगना चाहिए था क्योंकि वह उस मकान में हमेशा तो
	रहे नहीं थे। फिर उन्होंने अब तक की जिंदगी में गाँव के खेतों और मकान से कुछ
	खास वास्ता नहीं रखा था।
	फिर भी लंबी उधेड़बुन के बाद चिन्मय-मनजीत को यही लगा कि मकान का नाश ही सहायजी
	की तकलीफ का सबब है। क्योंकि गाँव पहुँचकर सहायजी द्वारा टूटा-फूटा, ध्वस्त
	मकान देखने और पत्थर हो जाने के बीच समयांतराल बहुत कम था।
	अतः चिन्मय ने सहायजी पर मरहम लगाना चहा, "पापा, आप चिंता न करें, हम गाँव में
	उसी जगह वैसा ही मकान बनवा देंगे। मेरे कई बहुत अच्छे आर्किटेक्ट दोस्त हैं।"
	मनजीत ने राय दी, "पापा, यह भी हो सकता है कि चिरैयाकोट की प्रापर्टी को बेच
	दिया जाए। आप कहें तो हम लोग दिल्ली में एक फार्महाउस बनाते हैं। दिल्ली में
	ही हम एक गाँव बनाएँगे पापा।"
	मनु चिल्लाया, "पर वहाँ टी.वी. और वीडियोगेम होना जरूर माँगता।"
	मनजीत ने अपनी कल्पना के डैने फड़फड़ाए, "पापा, हम छुट्टियाँ वहीं बिताया
	करेंगे। गाँव के मकान और खेतों की मिट्टी लाकर हम अपने दिल्ली के गाँव की
	मिट्टी में मिला देंगे। गाँव में-खेतों में - जो हमारी फसलें हैं, बागों में
	जो वृक्ष हैं, उनके बीज हम दिल्ली में उगाएँगे।"
	"मम्मी के लिए फार्महाउस पर एक छोटा-सा मंदिर जरूर बनेगा।" चिन्मय ने कौशल्या
	के प्रति अनुराग प्रकट किया।
	सहायजी जैसे कुछ सुन नहीं रहे थे। वह सिर झुकाए जिस तरह बैठे थे, वैसे ही बैठे
	रहे। स्पष्ट था कि अब वह देर तक इसी मुद्रा में बैठे रहेंगे।
	उनके साथ प्रायः ऐसा होने लगा था। कई बार घंटों बीत जाते, वह सिर नहीं उठाते
	थे। ऐसा भी होता था कि लंच का समय आ जाता और उनका नाश्ता उनके सामने यथावत पड़ा
	रहता था।
	उनसे कोई प्रतिक्रिया न पाकर मनजीत और चिन्मय अपने कमरे में आ गए। उनके सामने
	सहायजी और कौशल्या वाली फोटो रखी थीं। वही फोटो, जिसे चिन्मय ने चिरैयाकोट में
	कैमरा खरीदकर खींचा था।
	मनजीत ने फोटो की तरफ उँगली उठाते हुए कहा, "मुझे लगता है, इनके पैसे खत्म हो
	गए हैं। ऐय्याशी में जनाब ने सब फूँक दिया, अब कंगले होकर यहाँ पड़े हैं वर्ना
	कभी टिकते थे।"
	"कभी-कभी मुझे भी लगता है। मुझको इस बात की चिंता हो रही है कि कहीं इनके ऊपर
	काफी कर्ज न हो। वैसे ऐसा होना नहीं चाहिए...।" चिन्मय मंद स्वर में बोला।
	मनजीत ने नाक सिकोड़ी, "तुम्हारे पापा हैं, तुम जानो।" वह आलमारी से कपड़े
	निकालने लगी। साथ ही बड़बड़ाती जा रही थी, "...और गाँववाले! कमीनों ने लूट लिया।
	न जाने क्या-क्या मिला होगा खुदाई में, सिक्के, सोना, चाँदी, हीरे, जवाहरात...
	नामालूम क्या निकला और क्या ले गए कंबख्त...। और यहाँ यही रट लगी थी कि पुरखे
	रखवाली कर रहे हैं गड़े धन की...। भाड़ में चले गए थे क्या पुरखे...जब गाँववाले
	लूट रहे थे...।"
	चिन्मय ने कहा, "लेकिन सुनने में आया है कि उनको कुछ मिला नहीं। यहाँ तक कि
	पिछवाड़े में बारिश में जो सिक्के मिलते थे, वे भी नहीं मिले।"
	"तुम तो करोगे वकालत।" मनजीत भड़क गई, "बुरी लग गई न मेरी बात।" उसने अपनी
	सिलेटी जीन्स की जिप चढ़ाई और बेल्ट कसी, "आखिर हो तो तुम भी इसी खानदान के।"
	उसने चाची के कपड़ेवाला कुर्ता निकाला और उसमें बाँहें डालीं। लेकिन फिर कुर्ता
	उतार दिया। अब वह जीन्स और ब्रा में थी और सोच रही थी, 'कहीं इस बार भी बॉस ने
	मेरा कुर्ता पहन लिया तो मुझे बाँहों में बदन छुपाना पड़ेगा।' उसने टीशर्ट
	पहनी, 'टीशर्ट की साइज फिट होती है, बॉस को छोटी पड़ेगी, वह उसे पहन नहीं
	पाएगा। तब बटन में मेरे बाल नहीं फँसेंगे, और चिन्मय को शक भी नहीं हो सकेगा।'
	आँखों पर गहरे नीले शीशे का चश्मा लगाकर उसने पैंट की सामनेवाली जेबों में
	हथेलियाँ डालीं और कमरे से निकल पड़ी।
	चिन्मय के सामने कुर्ता खुला पड़ा था। उसे खयाल आया, यदि वह यह कुर्ता पहने तो
	पापा खुश होंगे। आखिर यह चाची के दिए कपड़े का कुर्ता है। दूसरे, यह बहुत
	पुराना है। तीसरे, यह खादी का है। तीनों ही ऐसी बातें हैं जो पापा जैसे
	बुजुर्ग को निश्चय ही प्रिय लगेंगी। उसने बड़े हौसले से कुर्ता पहना और
	आत्मविश्वास से भर जाना चाहा। वह तय करने लगा कि यदि पापा खुश हुए तो वह
	उन्हें पटा लेगा, दिल्ली में फार्महाउस बनाने के लिए। और यह कंगाल या कर्ज
	वगैरह की बात सही नहीं हो सकती। उसने सीटी बजाने के लिए होंठ गोल करना चाहा कि
	जाने क्या हुआ, असहज अनुभव करने लगा। रह-रहकर दिमाग की नसें तड़कने लगीं। पता
	नहीं कैसी रासायनिक क्रिया घटित हुई कि उसे कुर्ते से पुरुष, कई सारे पुरुषों
	के शरीर की गंध महसूस होने लगी। विचित्र दिमागी फितूर था। क्योंकि कुर्ता तो
	धुला और इस्तरी किया हुआ था। यदि गंध आनी थी तो मनजीत की मांसल-सुडौल बाँहों
	की आनी चाहिए थी जो थोड़ी देर पहले उसे पहनने जा रही थी। मगर चिन्मय के नथुनों
	में पराए पुरुषों के शरीर की बू घुस रही थी। वह मनजीत को पुरुषों के साथ
	आपत्तिजनक स्थितियों में होने की चित्रमय कल्पना करने लगा।
	उससे बरदाश्त नहीं हुआ, वह झपटते हुए बाहर आया। मनजीत गेट पार कर रही थी। बाहर
	उसके ऑफिस की गाड़ी उसका इंतजार कर रही थी। चिन्मय चीखा और उसे लगभग घसीटते हुए
	भीतर कमरे में लाया।
	मनजीत गुस्से में फुँफकारी, "तुम पागल हो गए हो क्या...?"
	"हाँ...हाँ... मैं पागल हो गया हूँ। तुमको किसी का बिस्तर गर्म करने से रोकूँ
	तो पागल हो गया हूँ।" चिन्मय ने दाँत पीसे।
	"चलो, मैं करूँगी। हाँ... मैं किसी का बिस्तर गर्म करूँगी तो तुम मेरा क्या कर
	लोगे? बोलो, क्या कर लोगे? आँय?"
	चिन्मय ने उसके चेहरे को हथेलियों में लेकर तेजी से झिंझोड़ा, "बताऊँ, मैं क्या
	कर लूँगा। बताऊँ?" चिन्मय ने चेहरा छोड़ दिया और पीटने लगा। वह चिल्लाता जा रहा
	था, "बताऊँ, मैं क्या करूँगा...।" उसने लात से भी मनजीत पर प्रहार किया। वह रो
	रही थी, अपने को बचाने के प्रयास कर रही थी लेकिन पैरों के प्रहार से बिफर
	पड़ी। दाँत पीसते हुए, गुस्से में चिन्मय पर झपटी। उसके बालों को मुट्ठियों से
	जकड़कर खींचा और पूरी ताकत से घूँसा जड़ दिया। चिन्मय सँभलता कि उसे तेज धक्का
	देकर वह बाहर निकल आई। बाहर आकर उसने दरवाजा बंद करके सिटकनी चढ़ा दी।
	कमरे में बंद चिन्मय पराजय, दुख अथवा क्रोध से काँप रहा था। उसके बाल बिखरे
	हुए थे और आँखें चढ़ी थीं। होंठ नीचे की तरफ हल्का-सा लटक गए थे। वह सामने दिख
	रहे कुर्ते को घूरने लगा। काफी देर घूरने के बाद बदहवास-सा उठा और कमरे में
	कुछ ढूँढ़ने लगा। काफी सामान उलट-पुलट डाले। आखिर में कैंची मिल ही गई। वह
	शातिर बधिक की तरह कुर्ते पर टूट पड़ा। कुर्ते को हवा में लहराया फिर उसे चीरने
	लगा। पहले बाँहें काटीं, उसके बाद कालर काटा। कुर्ता पेटीकोट की शक्ल में होने
	लगा। चिन्मय द्रुत गति से कैंची चला रहा था। दस मिनट भी नहीं खर्च हुए होंगे,
	कुर्ता नहीं बचा था। कपड़े के छोटे-छोटे टुकड़े, चिन्दियाँ बिस्तर पर, फर्श पर
	बिखरी हुई थीं। चिन्मय हाँफ रहा था। उसने कैंची उछाल दी। सहायजी और कौशल्या
	बाल-बाल बचे। क्योंकि उछाली गई कैंची उनकी फोटो के एकदम बगल में गिरी। चिन्मय
	उठकार दरवाजा पीटने लगा...।
	...दरवाजा सहायजी ने खोला था। कौशल्या देख रही थीं कि चिन्मय द्वारा दरवाजा
	पीटे जाने पर सहायजी का चेहरा हिलने लगा था। उधर चिन्मय के हाथों की धमक पड़ती,
	इधर उसी लय में चेहरा हिलता था। हिलना गलत शब्द होगा, बल्कि चौंक जाता था।
	कौशल्या स्वयं उठकर सिटकनी गिरा सकती थीं मगर उन्हें कौंधा कि हो सकता है
	सहायजी में कोई बेहतर परिवर्तन आनेवाला हो। वह ध्यान से देखने लगीं।
	वह कुर्सी से उठने-उठने को होते फिर बैठ जाते। गाँव में चाची के शव के पास
	पत्थर होने के बाद यह पहला मौका था कि वह किसी बात के लिए कोशिश कर रहे थे। वह
	किसी तरह खड़े हुए। आहिस्ता-आहिस्ता चलकर दरवाजे तक आए। उन्होंने सिटकनी हटाने
	के बाद दरवाजा खोलने के लिए हल्का-सा धक्का दिया।
	सामने आहत चिन्मय खड़ा था। सहायजी उसे बिसूरने लगे। फिर पीछे मुड़े और जिस तरह
	गए थे, उसी तरह लौटकर अपनी कुर्सी में धँस गए। उन्होंने पहले की तरह ही अपना
	सिर झुका लिया। कौशल्या ने आह भरी। उसमें सहायजी के ठीक होने की जो आशा जगी
	थी, वह तड़फड़ाने लगी। उन्होंने सोचा, अब पुनः सहायजी इसी तरह घंटों बैठे
	रहेंगे।
	सचमुच वह उसी तरह बैठे थे। शाम घिर आई थी। अँधेरा हो गया था तब भी वह उसी तरह
	बैठे थे। कौशल्या ने आकर बल्ब जलाया। रोशनी में सहायजी को देखकर वह घबड़ा गईं।
	सहायजी आँसुओं से भीगे थे। आँखों में आँसू उमड़ रहे थे। कौशल्या उनके पास आईं,
	"इस तरह कहीं रोया जाता है।" उन्होंने कौशल्या की कमर पर सिर रख दिया। पल्लू
	में मुँह छिपाकर फूट पड़े। वह फफक-फफककर रोने लगे थे। जैसे बाढ़ आई थी या बाँध
	टूटा था। मनु और नौकर भी उनके रुदन से घबड़ाकर वहाँ पहुँच गए थे। बूढ़े सहायजी
	किसी किशोर की तरह रो रहे थे।
	कौशल्या ने ढाँढ़स बँधाया और कहा, "चलिए, कमरे में चलिए या कहीं थोड़ा टहल आते
	हैं। हमेशा यहीं कुर्सी पर बैठे रहते हैं आप।" दरअसल भीतर से वह बेइंतिहा खुश
	थीं कि सहायजी इतना रोए हैं। उन्हें यकीन होने लगा था कि इतने आँसू गिरने के
	बाद सहायजी स्वस्थ हो जाएँगे। आखिर उनको यही तो बीमारी थी न कि उनके आँसू सूख
	गए हैं या खत्म हो गए हैं। उनका दुख आँसुओं के रूप में बाहर नहीं निकल सका था
	और भीतर-भीतर जख्म बन रहा था, यही कारण था उनके पत्थर या काठ हो जाने का।
	देर रात मनजीत लौटकर आई तो सहायजी के बदले स्वरूप को देखकर चकित और खुश हुई।
	उसे भरोसा नहीं हो रहा था कि महज कुछ घंटों के भीतर इतना परिवर्तन हो जाएगा।
	सहायजी की शक्ल में इधर कुछ दिनों से उपस्थित रहनेवाली भावशून्यता अब नहीं थी।
	वह ताजा लग रहे थे, थोड़े-से नए भी। उनकी आँखों का अपरिचय और सूनापन लगभग गायब
	हो चुका था। वह अब गुमसुम तथा खोए-खोए भी न थे। आँसुओं के स्नान से वह निर्मल,
	नरम, उज्ज्वल और पारदर्शी बन गए थे।
	मनजीत सहायजी और कौशल्या के पास ही बैठकर बातें करने लगी थी लेकिन थोड़ी देर ही
	बातचीत की होगी कि उसे लगा, सास-ससुर उसको जीन्स और टीशर्ट के कारण अटपटा न
	महसूस कर रहे हों। वह उठकर शलवार-कुर्ता पहनने चली गई। लेकिन उसने
	शलवार-कुर्ता न पहनकर नाइटी पहनी। क्योंकि रात हो चुकी थी और अब सोने के अलावा
	कोई खास काम भी न बचा था। डिनर वह बॉस के साथ लेकर आई थी।
	सोने से पहले उसमें और चिन्मय में संधि हो गई। इसकी मुख्य वजह सहायजी के
	स्वास्थ्य में यकायक होनेवाला सकारात्मक परिवर्तन था। उनकी बीमारी पूरे घर पर
	बोझ और विपत्ति की तरह मँडराती रहती थी। अतः उनके ठीक होने ने चिन्मय का
	गुस्सा कम कर दिया था। वैसे भी उन दोनों में से किसी को क्रोध दीर्घकालिक नहीं
	रहता था। इसका कारण यह नहीं था कि वे परस्पर प्यार में इतने पागल थे कि ज्यादा
	वक्त नाराज नहीं रह सकते थे। बल्कि हकीकत यह थी कि दोनों चारित्रिक दृष्टि से
	समान रूप से गिरे हुए थे, इसलिए दूसरे की गलती पर पूरी सघनता के साथ नफरत या
	गुस्सा करने का नैतिक बल नहीं था किसी के पास।
	संधि होने के बाद दोनों बिस्तर पर काफी देर तक गुफ्तगू करते रहे। वे इस मुद्दे
	पर एकमत हो गए थे कि सहायजी की बीमारी अब खत्म हो गई है, यदि नहीं तो दो-चार
	दिन में वह पूरी तरह ठीक हो जाएँगे। मनजीत हँसी, वह पिए हुए थी। करीब होने से
	उसके मुँह से उड़कर जिन की महक चिन्मय के नथुनों में घुस रही थी, "जो काम
	ऐलोपैथ, होमियोपैथ, नेचुरोपैथ न कर सके, उसे हमारे झगड़े ने कर दिया, या यों
	बोलो कि चाची के दिए कपड़े से बने खादी के कुर्ते ने कर दिया।
	मनजीत ने सिगरेट का पैकेट उठाया, "लो, सिगरेट पियो।" चिन्मय ने सिगरेट ले ली
	तो उसने भी सिगरेट अपने होंठों में दबा लिया और बोली, "यार, लाइटर नहीं दिख
	रहा था। देखो, जरा तुम्हारी तरफ है।"
	दोनों की सिगरेटें जल गईं। वे गंभीर किस्म के बुद्धिजीवियों की तरह
	विचार-विमर्श में सक्रिय हो गए। उन्हें विश्वास हो रहा था कि अगर अब सहायजी पर
	चिरैयाकोट की संपदा बेचने के लिए दबाव बनाया जाए तो वह मान जाएँगे। चिन्मय
	बोला, "चिरैयाकोट में न जाने कितनी प्रापर्टी होगी। सुनते तो हैं बहुत है। यह
	भी सुना जाता है कि करोड़ रुपये का तो गोल्ड होगा। मम्मी-पापा के बैंक एकाउंट
	मिलकर हमें हैरत में डाल देंगे, इसका मुझे पूरा यकीन है।"
	उधर दूसरे कमरे में कौशल्या अपने को हल्की तथा तनावमुकत महसूस कर रही थीं
	क्योंकि उनका वह दाँत अपने आप उखड़ गया था जो कई दिनों से हिल रहा था और तकलीफ
	दे रहा था। दूसरे, सहायजी के आँसुओं ने बरसकर उनको गहरी चिंता-फिक्र से बरी कर
	दिया था। अब यह डर नहीं था कि सहायजी कहीं पागल न हो जाएँ। या सदमे और दुख को
	चुपचाप सहने के कारण प्राण न गँवा बैठें। या हमेशा के लिए पहचानना भूल जाएँ।
	कुल मिलाकर सहायजी के सहज रूप की वापसी ने कौशल्या को निहाल कर दिया था।
	उन्होंने सहायजी से कहा, "भगवान ने हमारी सुन ली और हमारे ऊपर कृपा की है।"
	उन्होंने सहायजी को दवाएँ दीं, "अभी कुछ दिन खानी पड़ेंगी ये दवाएँ। साथ ही अब
	जरा घर से बाहर निकला करिए। सबसे पहले सुबह की सैर शुरू करिए।" सहायजी ने दवा
	खा ली तो कौशल्या ने गिलास नीचे रखते हुए उलाहना दिया, "आप कितनी बार मुझे
	दिल्ली ले आए पर कभी दिल्ली घुमाया भी? अब ज्यादा नहीं बची है जिंदगी मेरी।
	कम-से-कम दिल्ली तो घुमा दीजिए।" सहायजी मुस्करा दिए या कौशल्या को ऐसा भ्रम
	हुआ, विश्वासपूर्वक कुछ कहा नहीं जा सकता लेकिन कौशल्या ने यही समझा कि सहायजी
	मुस्कराए हैं। उनका हौसला बढ़ा, "यहीं दिल्ली में कितने रिश्तेदार हैं, कभी
	मिलाया उनसे! कहे दे रही हूँ कि इस बार उनके यहाँ भी ले चलना पड़े़गा आपको।"
	वह अपनी योजना को लेकर दृढ़प्रतिज्ञ थीं। अतः उन्होंने ब्रह्ममुहूर्त में ही
	सहायजी को जगा दि़या, "उठिए, सुबह के सैर की तैयारी करिए।"
	कौशल्या इतना उत्साहित थीं मगर जब सहायजी के साथ सैर के लिए निकलीं, तो थोड़ी
	दूर ही चलना हुआ होगा कि पटरी पर बैठ गईं। सहायजी आगे बढ़ गए थे, लौटकर आए,
	"क्या हो गया कौशल्या, चक्कर आ गया क्या?"
	"नहीं, चक्कर नहीं, बस टखनों में ताकत नहीं रही अब। आँखों के कमजोर पड़ने से
	शुरू हुआ था बुढ़ापा। अब पूरा शरीर ही कमजोर और बूढ़ा हो चुका है। इसलिए इस उम्र
	में मौत आसानी से दबोच लेती है। लगता है कि मेरे भी दिन पूरे होने को हैं।"
	"ना...ना...। ऐसा न बोलो।" सहायजी ने उनको सहारा देकर उठाया। पास बनी एक
	पुलिया पर जाकर बैठ गए। सहायजी ने कौशल्या के घुटनों को छुआ, "बहुत तकलीफ हुई
	न।" उनकी आँखें डबडबा आईं। वह करीब-करीब रोने-से लगे। कौशल्या हत्प्रभ और
	परेशान हुईं कि सामनेवाले को रुला देनेवाली दुर्दशा तो उनकी नहीं हुई थी, तब
	यह क्यों रोने-रोने को हो रहे हैं।
	सहायजी ने पत्नी को खुश करने की गरज से कहा, "रात को तुम कह रही थीं न! चलो,
	हम आज ही दिल्ली घूमेंगे।" इतना कहते-कहते उनकी आवाज भर्रा गई। वह रूमाल से
	आँसू पोंछने लगे। कौशल्या को दुबारा उलझन हुई कि दिल्ली घूमने की बात में कोई
	मार्मिक या कारुणिक प्रसंग तो था नहीं। तब क्यों यह रो रहे हैं। या इनकी आवाज
	भर्रा क्यों गई। नाश्ते की टेबल पर सहायजी ने चिन्मय से कहा, "आज मैं और
	तुम्हारी माँ दिल्ली घूमने जाएँगे।"
	चिन्मय को अच्छा लगा, "पापा, आप लोग कार ले जाइएगा।"
	"नहीं...नहीं।" सहायजी हाथ के इशारे से मना करने लगे, "कार की क्या जरूरत,
	टैक्सी ले लेंगे। वैसे भी दिल्ली की सड़कों पर ड्राइव करना मेरे बस का नहीं।"
	कौशल्या ने मध्यमार्ग निकाला, "अभी हमें टैक्सी से घूमने दे बेटा। बाद में
	तुम्हारे पापा अपनी कार यहीं मँगा लेंगे।"
	चिन्मय-मनजीत को अपनी बात कहने का सहारा मिल गया। चिन्मय ने दूध का गिलास खाली
	किया, "कार ही क्यों! हम तो कितने दिनों से कह रहे हैं कि चिरैयाकोट और गाँव
	की प्रापर्टी को बनाए रखने से क्या फायदा! अब देखिए, गाँव में मकान तोड़ डाला
	गया। इसी तरह वे लोग एक दिन हमारे खेतों और बगीचों पर कब्जा कर लेंगे। यही
	नहीं, अगर हमने समझदारी से काम न किया तो चिरैयाकोटमें भी ऐसा होगा।"
	"बेटे, इस तरह नहीं कहते।" कौशल्या को मालूम था कि सहायजी को इस तरह की बात
	अच्छी नहीं लगती, इसलिए उन्होंने टोका, "पुरखों की जायदाद के बारे में ऐसा
	नहीं कहा जाता है।"
	"मैं पुरखों की प्रापर्टी को बरबाद करने के लिए नहीं कह रहा हूँ मम्मी। मैं तो
	बस उसे शिफ्ट करने की बात कह रहा हूँ। उसे बेचकर हम ऐसी व्यवस्था करें, जो
	अधिक लाभ की हो।" चिन्मय ने समझाया, "मैं आप लोगों का बेटा हूँ। मुझे भी गाँव
	से बहुत प्यार है। तभी तो कहता हूँ कि हम शहर में भी अच्छा-सा गाँव बनाएँ।
	यहीं दिल्ली में अपना फार्महाउस हो।"
	अब मनजीत की बारी थी, "और आजकल बैंकों में कौन जमा रखता है रुपया। पापा, आप भी
	शेयर मार्केट में डालिए। इसके अलावा मेगा टी.वी. सीरियल बनाकर करोड़ों कमाया जा
	सकता है। हम अपनी लीजिंग एंड फाइनेंसिंग कंपनी खोल सकते हैं। यही नहीं,
	सोशलिस्ट कंट्री कंगाल हो चुके हैं, वहाँ के लिए एक्सपोर्ट किया जा सकता है।
	मसलन, रूस को लीजिए, वहाँ इंडिया के गारमेंट्स, जूतों, ऊन, शहद वगैरह की भारी
	डिमांड है। लेकिन पापा सबसे पहले हमको यहाँ अपना गाँव बनाना है।"
	सहायजी सब सुनते रहे, सुनते रहे। फिर बोले, "थोड़ी-सी दलिया देना।" मनजीत ने
	दलिया उनकी प्लेट में परोस दी। वह कुछ ज्यादा ही चबा-चबाकर खाने लगे। अंत में
	उन्होंने दलिया पानी की मदद से भीतर उतारा, "तुम लोगों की बातें अपनी जगह सही
	हैं, पर वे मुमकिन नहीं हैं। क्योंकि मैं वापस चिरैयाकोट जा रहा हूँ और वहीं
	पर रहूँगा। अब मेरी तबियत भी ठीक हो चुकी है तो यहाँ रहने से क्या फायदा।" वह
	पुनः दलिया खाने लगे। जैसे कोई विस्फोट हुआ हो, चिन्मय-मनजीत स्तब्ध। कौशल्या
	भी हत्प्रभ थीं। सहायजी ने नौकर से कहा, "टैक्सी बुलाओ।" कौशल्या से बोले,
	"तैयार हो न अपने दिल्ली भ्रमण के लिए।"
	सहायजी और कौशल्या ने एक नहीं, कई दिन दिल्ली घूमी। ऐतिहासिक स्थलों को देखा,
	राजनीतिक स्थलों को देखा। रिश्तेदारों के घर गए, दो-चार रिश्तेदारों के
	दफ्तरों में भी पहुँचे। उन्होंने कनाट प्लेस टहला, खरीददारी की और निश्चय किया
	कि कार्यक्रम को विराम दिया जाए, बहुत हो चुकी दिल्ली की परिक्रमा। एक दिन बीच
	रास्ते से ही वे लौट आए थे। घर पहुँचे तो शाम होने में थोड़ा ही समय शेष था।
	चिन्मय ऑफिस से आया तो देखा, सहायजी और कौशल्या घर में हैं। कौशल्या घबराई हुई
	हैं और सहायजी रो रहे हैं। फूट-फूटकर रो रहे हैं। उनके नथुने और होंठ फड़फड़ा
	रहे हैं। आँखें लाल हैं। कुर्ते का गला और आस्तीनें गीली हो चुकी हैं। मनजीत
	और मनु भी उनके पास हैं। पर सभी से उदासीन वह रो रहे हैं। चिन्मय सहम गया,
	"अरे पापा! रो क्यों रहे हैं! क्या हुआ?" उसे डर लगा कि मनजीत ने कोई गलती न
	कर दी हो।
	"पता नहीं इनको क्या हो गया है कि बात-बात पर रोने लगते हैं।" कौशल्या बता रही
	थीं, "न जाने क्यों बात-बात पर रोने लगते हैं। बोलते-बोलते गला भर्रा जाएगा,
	आँखें भर आएँगी और रोने लगेंगे।"
	सहायजी ने आँसू पोंछे, "कुछ तो नहीं हुआ है। बस ऐसे ही।" मनजीत और चिन्मय को
	निराशा घेरने लगी।
	सहायजी की रोने की इस नई बीमारी ने उन दोनों की आकाँक्षाओं की चूलें हिलाकर रख
	दी थीं। उनकी दृष्टि से सहायजी से धन प्राप्त करना काफी दुरूह हो गया था।
	मनजीत तो बहुत ज्यादा निराश हो चुकी थी। कभी-कभी वह भयानक तैश में आ जाती,
	"मैं साफ कहती हूँ कि पापाजी पहले भी बने पागल थे, अब भी बने पागल हैं।"
	लेकिन मनजीत का कथन वास्तविकता पर आधारित नहीं था। सहायजी न बने पागल थे, न
	सचमुच के। बात इतनी थी कि उनके पास ढेर सारे आँसू इकट्ठा हो गए थे। भावुकता,
	रुलाई और सिसकियाँ कुछ ज्यादा हो गई थीं। अजीब थी उनकी स्थिति। वह प्रायः
	भावविह्वल हो जाते थे। कंठ भर्रा उठता और होंठ फड़कने लगते। वह रोते भी कम नहीं
	थे। दिक्कत इस बात की थी कि वह अक्सर बेवजह रोते थे। कहते, "दिल्ली बेहतरीन
	शहर है। हम पति-पत्नी यहाँ काफी खुश हैं।" और रोने लगते। कहते, "मेरे पिताजी
	खड़ाऊँ पहनते थे।" उनकी आँखें डबडबा उठतीं। कहते, "जब मैं मनु की उम्र में था
	तो उस जमाने में रुपये का दो सेर घी मिलता था और आठ सेर गेहूँ।" इस बात पर भी
	उनकी आवाज आर्द्र हो जाती।
	इतने तक गनीमत रहती, किंतु मामला लगातार पेचीदा होता जा रहा था। चिन्मय-मनजीत
	को लगता कि उनके देखे हुए सपने किसी सूरत में साकार नहीं हो पाएँगे। क्योंकि
	वे जैसे ही चिरैयाकोट का जिक्र छेड़ते, सहायजी की आँखें डबडबा आतीं। यदि उन पर
	ज्यादा दबाव पड़ता तो वह रोने ही लगते थे। फिर इससे भी अधिक बेतुकी, नुकसानदेह
	और खतरनाक बात थी कि सामान्य और संतुलित मनोदशा में वह चिरैयाकोट जाने तथा
	वहीं रहने का राग अलापने लगते थे। यह हौसला ध्वस्त कर देनेवाली स्थिति थी।
	क्योंकि चिन्मय-मनजीत का विश्वास था कि आँसू शरीर में हारमोन्स विशेष की
	अधिकता के कारण निकल रहे हैं अथवा वे डिप्रेशन की बीमारी के कारण हैं। दोनों
	ही हालातों में चिकित्सा विज्ञान की मदद से उन पर नियंत्रण हासिल किया जा सकता
	है। लेकिन यदि वह कौशल्या के साथ चिरैयाकोट चले गए और वहीं रहने लगे तो क्या
	होगा! तब तो उनकी मृत्यु के पहले कुछ भी संभव नहीं हो सकेगा। और मौत का क्या
	पता? जिंदगी की तरह मौत का भी ठिकाना नहीं। कोई अभी मर सकता है तो वही आदमी
	आनेवाले कई साल आराम से जिंदा रह सकता है। वे दोनों घनघोर ऊहापोह में फँसे हुए
	थे।
	आखिरकार उन्होंने कौशल्या को धर लिया, "हम आप लोगों को चिरैयाकोट नहीं जाने
	देंगे। पापा की तबियत का ऐसा हाल और रहेंगे इतनी दूर चिरैयाकोट में।" वे
	कौशल्या को बार-बार घेरते, "मम्मी! पापा तो अपनी जिद के आगे कुछ सुन नहीं रहे
	हैं लेकिन आप तो कुछ करिए। आप कुछ करिए मम्मी, प्लीज।" अंततः कौशल्या उनसे
	सहमत हो गईं। उन्हें लगा कि चिरैयाकोट से सहायजी का मन तो वैसे ही उचट गया था।
	दूसरी बात यह कि वह स्वयं भी बेटे-बहू-पोते के पास रहना चाहती थीं। फिर वह
	सहायजी की बीमारी के चलते अकेले चिरैयाकोट में रहने को लेकर डर भी रही थीं।
	पहले मोर्चे पर कामयाब होने के बाद मनजीत और चिन्मय ने आगे कदम बढ़ाए। उन्होंने
	कौशल्या को विश्वास में लेकर कहना शुरू किया कि वह पापा पर प्रापर्टी बेचने के
	लिए जोर डालें। कौशल्या को यह भी कुछ-कुछ ठीक लगा। उनका मानना था कि बच्चे यदि
	अपने जमाने के मुताबिक नया कुछ करना चाहते हैं तो इसमें बुरा क्या है। और वह
	कोई गलत काम के लिए तो पैसा माँग नहीं रहे हैं। ज्यादा कमाने की ही सोच रहे
	हैं न।
	उस रात देर तक कौशल्या को नींद नहीं आई। वह सहायजी से चिरैयाकोट की संपत्ति
	बेचने के लिए कैसे बात करेंगी, किन शब्दों का इस्तेमाल करेंगी, इस पर
	सोच-विचार कर रही थीं। उन्होंने तय किया कि वह प्यार से समझाएँगी। उन्हें
	हिम्मत और संबल देंगी, फिर चिरैयाकोट की संपत्ति बेचने की बात कहेंगी। वह
	उन्हीं से पूछेंगी कि बताएँ, क्या ठिकाना कि गाँव की तरह चिरैयाकोट का मकान भी
	लूट न लिया जाए। तहस-नहस न कर दिया जाए। खाली जमीनों पर भी लोग कब्जा कर सकते
	हैं। फिर सबसे बड़ी बात, हमारी तो चार दिन की जिंदगी बची है, इसलिए चिन्मय यदि
	अपने तरीके से कुछ करना चाहता है तो करने देने में क्या हर्ज है।
	इन सब बातों को सोचते-सोचते उन्हें सहायजी पर तरस आने लगा। उन्हें इस बात पर
	तरस आया कि उन बेचारे की हालत ऐसी है और सब अपने-अपने में लगे हुए हैं। पहली
	बार हुआ था कि उन्हें सहायजी के व्यक्तित्व में हुए किसी बदलाव पर तरस आ रहा
	था वर्ना वह हमेशा सहायजी के किसी नए रूप पर फिदा होती रही थीं। एक बार
	उन्होंने सहायजी को यह बात बताई भी थी। कहा था, "आप मुझे हमेशा अच्छे लगे। आप
	मूँछों में अच्छे लगते थे और बिन मूँछों के भी। आपको नजर का चश्मा लगा तो आप
	मुझे अलग तरह से सुंदर लगे। आपके बाल पके तो आप मुझे अलग तरह से अच्छे लगे।"
	कौशल्या को उनका हँसना, बोलना, चलने का ढंग सभी बहुत भाते थे। औरों से एकदम
	अलग लगते थे वह। यहाँ तक कि गाँव में चाची के शव के सामने जब वह पत्थर हुए थे
	तब भी कौशल्या ने उनमें एक अनोखापन पाया था, जो दूसरों में नहीं मिलता है।
	लेकिन अब उन्हीं पर तरस आ रहा था। वह इतने दयनीय, पिलपिले और कातर हो जाएँगे,
	कौशल्या ने कभी इसकी कल्पना तक नहीं की थी।
	रात के तीसरे पहर में उक्त खयालों में मँडराते-भटकते हुए कौशल्या ने प्यार और
	करुणा से सहायजी के मत्थे को सहलाया। उन्हें लगा कि उनकी हथेली पकड़ ली गई है।
	सहायजी उनकी हथेली से अपने चेहरे को सहला रहे थे। आँसुओं से पूरी तरह भीगा था
	उनका चेहरा। कौशल्या ने उठकर रोशनी कर दी, "अरे... इतनी रात को आप रो रहे थे,
	क्या हुआ आपको? क्यों रो रहे हैं आप?"
	सहायजी के चेहरे को उन्होंने गीले तौलिया से साफ किया। उन्हें पानी पिलाया और
	बोलीं, "इधर-उधर की बातें मत सोचा करिए।" उन्होंने रोशनी गुल कर दी और अँधेरे
	में सहायजी का सिर सहलाने लगीं। पता नहीं सहायजी उस वक्त रो रहे थे या नहीं
	लेकिन वह जरूर भिंचे गले से रो रही थीं। वह सहायजी का सिर सहलाती जा रही थीं
	और रोती जा रही थीं...
	कौशल्या को अपने पक्ष में कर लेने से चिन्मय और मनजीत की आशाएँ पुनः जगमगा गई
	थीं। उन्हें लग रहा था कि पिता और पुरखों की संपत्ति बेचकर वे अपने सपनों को
	साकार कर सकेंगे। फिर भी वे इस बार कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। वे
	दृढ़प्रतिज्ञ थे कि राजनीति में किसी प्रकार की त्रुटि नहीं होने देंगे और
	कामयाब होंगे।
	चारों तरफ से आश्वस्त होकर उन्हेांने अंत में ब्रह्मास्त्र चलाने की सोची।
	उन्होंने मनु को एकांत में बुलाकर समझाना शुरू किया। मनजीत ने मनु से कहा कि
	वह बाबा से माँगे कि उसकी खातिर दिल्ली में फार्महाउस बनवाएँ या मेगा टी.वी.
	सीरियल तैयार कराएँ या ढेर सारे शेयर ले दें।
	चिन्मय ने मनु के गाल थपथपाए, "बेटे, बोलिएगा कि आपके सारे दोस्तों के घर में
	ढेर सारा पैसा इन सब चीजों में इन्वेस्ट किया जा रहा है।"
	"पापा! मैं बाबा से यह भी कहूँगा कि बाबा-बाबा, मैं तो अपने सारे दोस्तों से
	बोल चुका हूँ कि मेरे बाबा हमारे लिए बहुत कुछ करने जा रहे हैं। उनके पास ढेर
	सारा रुपया है, है न बाबा। मम्मी, तुम बोलो, ठीक रहेगी ये बात।"
	मनजीत और चिन्मय मुस्कराए। मनु उत्साह तथा उत्तेजना से भरा हुआ था। जैसे किसी
	युवराज को प्रथम बार रणभूमि में विजय के लिए भेजा जा रहा हो। वह अद्भुत किस्म
	से गंभीर हो गया था और जिम्मेदारी महसूस कर रहा था।
	चिन्मय ने सावधान किया, "बेटे, आपको ये बातें किसी से कभी नहीं बताना है। समझ
	गए न।"
	ब्रह्मास्त्रा चल गया था। मनु ने पीछे से आकर कुर्सी पर बैठे हुए सहायजी की
	आँखें मूँद लीं। सहायजी बोले, "मनु हो।" उन्हें लगा कि इतनी छोटी मुलायम
	उँगलियाँ और किसकी हो सकती हैं।
	मनु इतराया, "बाबा, इतना सुंदर मौसम है, आप यहाँ बैठे हुए हैं।"
	"क्या करें, बेटा?"
	"सुना है कि आप पतंग बड़ी अच्छी उड़ाते थे जबकि मैं आपका मनु, डोर तक नहीं बढ़ा
	सकता हूँ। बाबा, आप मुझको पतंग उड़ाना सिखाएँ और ढेर सारी पतंग ला दें।"
	"बेटे, अब पतंगों का जमाना नहीं रहा।"
	"जिस चीज का जमाना है, वही दीजिए न।" कम उम्र का होने के कारण मनु में धैर्य न
	था, "आप हमारे लिए फार्महाउस तैयार कराइए। फैक्ट्रियों के शेयर खरीदिए। आप
	मेरे पापा को एक्सपोर्ट का बिजिनेस करने के लिए रुपये दीजिए।"
	सहायजी के जबड़े की कोई नस फड़की और उनकी सारी निस्संगता भरभरा पड़ी। उनकी बोली
	लहराने लगी, "मनु...मनु..."
	कौशल्या तो वहीं पास में मौजूद थीं, चिन्मय और मनजीत भी आ गए, "क्यों पापा,
	मनु शरारत कर रहा है क्या?" वे दोनों वहीं जम गए।
	चारों सहायजी को घेरकर बैठे हुए थे। चिन्मय ने नौकर को आदेश किया, "चार-पाँच
	कप कॉफी बनाना।" उसे सहायजी की पसंद पता थी, उठकर उसने टेपरिकार्ड में कैसेट
	डाल दिया। बेगम अख्तर की ठुमरी बजने लगी।
	अब सभी मिलकर उन्हें विवश करने लगे, उन पर दबाव डालने लगे। कौशल्या भी
	बेटे-बहू-पोते के साथ थीं। वह झुँझलाकर बोलीं, "हम सब गठरी में बाँधकर ले नहीं
	जाएँगे। सब इन्हीं लोगों का तो है न।" चिन्मय और मनजीत कौशल्या को समझाने लगे,
	"पापा से प्यार से बोलिए मम्मी।" मनु नाराज हो गया, "मेरे बाबा को कोई कुछ
	नहीं कह सकता, दादी माँ भी नहीं।" मगर यह थोड़ी देर के लिए पट परिवर्तन था।
	जल्दी ही वे फिर सहायजी को कसने लगे।
	जैसे सहायजी का गला कस गया हो, उनका मुँह खुल गया। गले से गों...गों की ध्वनि
	निकलने लगी। उनके नथुने फूल गए थे, जैसे वह साँस लेने के लिए जूझ रहे हों।
	उनकी आँखें मुँदीं, खुलीं और बंद हुईं, जैसे उनका जीवन जानेवाला हो। अचानक वह
	बुक्का फाड़कर रोने लगे। उनकी यह रुलाई अलग किस्म की थी। इसमें आँसू नहीं थे।
	हो सकता है कि वे फिर से सूख गए हों। इस बार रुदन में चीख और विलाप का मिश्रण
	था। वह कुछ-कुछ मर्सिया गानेवालों की तरह बोले, "ठीक है... ठीक है... तुम लोग
	जो चाहते हो, वही होगा...।" वाक्य पूरा करते-करते उन्होंने कौशल्या को अत्यंत
	कातर तथा शिकायत-भरी दृष्टि से देखा। वह भीतर तक सिहर गईं। मगर अब खेल खत्म हो
	चुका था। मनु तालियाँ बजा रहा था। चिन्मय चिल्लाया, "पापा, आपने प्रतिज्ञा की
	है तो उसको पूरा करना पड़ेगा। समझ लीजिए अच्छी तरह से।"
	मनजीत कौशल्या से कह रही थी, "मम्मी...मम्मी! पापा ने आपके सामने कहा है...।"
	बेगम अख्तर अपनी ठुमरी में आलाप ले रही थीं।
	सहायजी खामोश हो गए थे। चेहरे को सीने से लगाए हुए थे। जैसे बेगम अख्तर की
	ठुमरी बड़े ध्यान से सुन रहे हों। लेकिन दरअसल वह सोच रहे थे। उनके भीतर तेजी
	से कुछ घुमड़ रहा था। धीरे-धीरे उनमें कंपन हुआ। वह उठे और कुर्सी पर खड़े हो
	गए। भाषण की तर्ज पर जोर-जोर से कहने लगे, "मगर देखना! जो कोई संपत्ति
	खरीदेगा, नाश हो जाएगा उसका।" कौशल्या, चिन्मय, मनजीत और मनु उन्हें भौंचक देख
	रहे थे। वह अपना कथन जारी रखे हुए थे, "तुम लोग - हाँ, तुम लोग भी - सुखी नहीं
	रह पाओगे। चिरैयाकोट से जो भी नाता तोड़ेगा, हमेशा दुख भोगेगा।" उन्होंने पंख
	की तरह हाथ हवा में लहराए। ऊपर की ओर देखते हुए कहा, "हे ईश्वर! हे देवताओ और
	देवी माताओ! तुम सब चिरैयाकोट के इन दुश्मनों को दंड देना...।"
	उनकी आँखें कुछ छोटी लगने लगी थीं। होंठों के किनारों पर गाज भर आया था और
	चेहरा आँसुओं से भीग गया था।
	और आखिर एक दिन चिरैयाकोट की संपत्ति बेच डाली गई। इस सौदे के संदर्भ में
	विशेष बात यह है कि सहायजी के शाप का कोई असर नहीं हुआ। खरीदफरोख्त का सारा
	कार्य बड़ी आसानी और उत्साहपूर्वक संपन्न हुआ था।
	जैसा कि सहायजी ने कहा था कि खरीदनेवालों का नाश हो जाएगा, वैसा कुछ भी नहीं
	हुआ। वे बहुत आराम से दिन काट रहे हैं।
	चिन्मय, मनजीत, कौशल्या, मनु पर भी कोई आँच नहीं आई। मस्ती से बीत रहा है,
	उनका जीवन। इस बात से कौशल्या को बेहद सुकून है।
	लेकिन अक्सर वह जोड़-तोड़ करती हैं कि सहायजी ने कोई समय तो निश्चित किया नहीं
	था। यही कहा था कि चिरैयाकोट से नाता तोड़नेवाला दुख भोगेगा। बर्बाद हो जाएगा।
	तो कहीं ऐसा न हो कि वह वक्त अभी आना बाकी हो।
	कौशल्या उस आनेवाले समय के बारे में सोच-सोचकर अक्सर डरती रहती हैं।