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कविता

नौकरी पर जाती हुई औरतें

सोनी पांडेय


नौकरी पर जाती हुई औरतें
उठ जाती हैं मेरे शहर में
सूरज के जगने के साथ
निबटा कर घर का चूल्हा-चौका
बर्तन-ताशन
भागती हैं "रेस" के घोड़े की तरह
जिन पर करोड़ो के सट्टे का दारोमदार है
ये औरतें इस अर्थ युग में
परिवार का मेरुदंड हैं
जिनकी कमाई व्यवस्थित करती है
परिवार की स्तरीयता को।

ये औरतें जब मिलती हैं बस अड्डे या ऑटो में
एक-दूसरे की आँखों की झील में झाँकते हुए
पर्स से चबैना निकाल मुँह में डाल
चबाते हुए
फेर लेती हैं आँखें
आँखों की नमी बता देगी सच
इस लिए बड़े ग्लास वाला काला चश्मा चढ़ा
निकलती हैं मुस्कुराते हुए
इन्हें शायद ही मिलता है दिन में गर्म खाना
रात में स्वप्न भर नींद
शायद ही याद रहता है
कब हँसी थीं खिलखिलाकर
मन भर कब बतियाया था किसी अंतरंग मित्र से
कब निश्चिंत रोई थीं
ये औरतें भूल जाती हैं खुद को
नौकरी पर जाते हुए।

नौकरी पर जाती हुई
मिडिल क्लास औरतें
दुधार गाय बन चुकी हैं पितृसत्ता के लिए
जिन्हें नैतिकता की रस्सी के सहारे
बाँधा जाता है
संस्कारों के खूँटे में
अनवरत दुही जाती हैं स्नेह से
जब तक कमाऊ हैं
कमाई का हिसाब बड़ी समझ से लिया जाता है
इस तर्क के साथ
भोली हो ठग ली जाओगी
औरतें लक्ष्मी हैं सच है
पर वाहन उल्लू
ठगी जाती हैं
अपनों से रोज
नौकरी पर जाती हुई औरतें।

नौकरी पर जाना विवशता है
कमाना अनिवार्य
अब हर लड़की भेजी जा रही है
शिक्षा के कारखाने में
सीखने के लिए कमाने का हुनर
अर्थ युग में बढ़ रही है
कमाऊ औरतों की माँग
ये औरतें चलता-फिरता-बोलता
कारखाना बन चुकी है
एक साथ कई उत्पाद पैदा करतीं
एक बड़ी आर्थिक इकाई में बदल चुकी औरतें
इन पर टिका है पितृसत्ता का मान
इस लिए देहरी लाँघ चल पड़ी हैं
भूल कर खुद को
भाग रही हैं सरपट
नौकरी पर जाती हुई औरतें।
 


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