धीरे-धीरे
रेंगते हुए... सरकते और सिहरते हुए
कभी ऐंठन की दर्द का गुब्बारा फूट जाऐ
कभी ऐसे की जल गया हो भरा पतिला दूध
और गंध नथुनों में भरकर छाती में समा जाए
धीरे-धीरे
उठता है मीठा-मीठा दर्द
फिर बढ़ते-बढ़ते चित्कार उठती है
जैसे मंगल गीत से मृत्यु का क्रंदन
इन दिनों दर्द के उतार-चढ़ाव को
वैसे ही सहज स्वीकारती हूँ
जैसे संगीत में उतार-चढ़ाव गुनती थी स्कूल में
दर्द रस गंध है या
उस पियराए खेतों में सरसों के दानों सा फूटना
दर्द मह मंद बयार है
या पतझड़ के बाद बसंत का गमकना
समझी हूँ
या नासमझ सी मैं
कभी बेचैन मुसाफिर सी पथ भटकी
कभी सपनों की तिजोरी खँघालती
मैं हूँ भी या नहीं संदेह से भरी
पहचानने लगी हूँ
मृत्यु गंध
जबकि, बसंत अभी-अभी मिला था राह में...
अम्मा! ...रोना मत...