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विमर्श

मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी

अनामिका


कुछ दिन पहले तक स्त्रीवादी आलोचना की स्थिति चेखव की 'डार्लिंग' की-सी थी। इस अर्थ में कि इसके आलोचनात्मक औजार तय न थे और न दिशा ही निश्चित थी! छठे दशक में पनपी ज्यादातर आलोचना-पद्धतियों की तरह यह लिबरलिज्म के साए में फली-फूली थी, और उसकी कमोबेश यही मान्यता थी जो लिबरलिज्म की - मानव-मात्र रैशनल होता है, इसलिए संस्कार-प्रक्षालन या हृदय-परिवर्तन असंभव नहीं! सेन्सेटाइजेशन बड़ी चीज है - यह सोचती हुई हाथ में एक बड़ी लाल कलम थामकर बैठी थी स्त्रीवादी आलोचना और इसने इतिहास में कई जगह लाल निशान लगाकर 'इमेजेज ऑफ विमेन' नामक आंदोलन के तहत साहित्य के उत्पादन - 'प्रोडक्शन' - और आस्वाद या ग्रहण - 'रिसेप्शन' - से संबद्ध कई दुरभिसंधियाँ प्रकाशित की थीं, स्त्री और स्त्री-साहित्य के विलोपन या विद्रूपण का पर्दाफाश किया था और अपने ढंग से सिद्ध किया था कि सांस्कृतिक विविधीकरण (डीलेजिटिमाइजेशन) का शिकार हर देश, हर काल में स्त्रियाँ रही हैं, और इसके खिलाफ एक नैतिक गुहार लगाना एकदम जरूरी है!

बाद के वर्षों में स्त्रीवादी आलोचना पर एक नया सान चढ़ा जब पुरुषों के लेखन में स्त्रियों के अपर्याप्त या अल्पप्राण या विद्रूप चित्रण या स्त्री-लेखकों को उनका उपयुक्त स्थान न देने की दुरभिसंधियों का प्रकाशन-मात्र इसका ध्येय न रहा! इसका जोर हुआ 'जाइनोक्रिटिसिज्म' पर यानी स्त्री की देह/मन/भाषा या उसके विशिष्ट अनुभूति-मंडल का जो साहित्यिक पल्लवन हुआ - उसे सही परिप्रेक्ष्य में समझ पाने की दृष्टि के विकास पर। यहीं, इसी बिंदु पर इसका नया आलोचनाशास्त्र विकसित हुआ जिसकी मूल मान्यताएँ ये कही जा सकती हैं -

- पुरुषों की श्रेणी के अधिकार-भोग की खातिर पुरुषों जैसा बनना जरूरी नहीं। हम अपने-जैसा रहकर ही बराबरी का दर्जा पाएँ, जरूरी यह है। हर व्यक्ति किसी और के किसी का कोई बनता जाए तब तो हो चुका कल्याण! भाव-भाषा - सब स्त्रियों की अलग है और अलग रहनी ही चाहिए!

- हर व्यक्ति की एक स्वतंत्र अस्मिता होती है जिसमें अंतर्निहित होता है अपना शरीर और उस शरीर से संबद्ध श्रम का प्रतिफल भोगने का हक। उत्पादन (प्रोडक्शन) और उपभोग (रिसेप्शन) की दुरभिसंधियों के समानांतर स्त्री चिंतकों/आलोचकों द्वारा स्त्री-साहित्य का उत्खनन, प्रवर्द्धन/ प्रोत्साहन और परंपरा में उन्हें स्थापित करने का यत्न चलना ही चाहिए।

- नव-इतिहासविद मानते हैं कि जीवन-जगत की सारी घटनाएँ एक जटिल सह-षड्यंत्र का दृष्टांत हैं। उनका कहना है कि जो चीजें जैसी घट सकती थीं - वैसी ही घटीं - इतिहास इसी अहसास का नाम है। स्त्रीवादी आलोचना-सिद्धांत का कहना है (अस्मिता-आंदोलन से जुड़े अन्य सिद्धांतों का भी) कि इतिहास इस अहसास का नाम है कि जो भी कहीं घटना चाहिए था, घटा वही।

'नई समीक्षा' (न्यू क्रिटिसिज्म) की भी इस बात से स्त्रीवादी आलोचना-सिद्धांत का स्पष्ट विरोध है कि सभी लेखक हर जगह हर वक्त सिर्फ अपने समय का उत्पाद होते हैं। महान वही होता है जो अपने समय की मान्यताओं से ऊपर उठ जाता है। स्त्रीवाद का मानना यह है। स्त्रीवादी आलोचना-पद्धति इसी आधार पर रूपवाद (फॉर्मलिज्म) के भी सख्त खिलाफ है कि भाषा-शिल्प के सौंदर्य के समानांतर लेखक की जीवन-दृष्टि को भी रूपवाद तराजू पर तौलना जरूरी नहीं मानता। स्त्रीवाद यह कहना भी असंगत मानता है कि कभी-कभी महान लेखक 'अ' अपने समय की मान्यताओं से ऊपर उठे, स्त्रियों के प्रश्न पर तो वे अपने समय के उत्पाद थे - बावजूद इसके उन्हें महान माना जा सकता है। इस बात का स्पष्ट अर्थ तो यह होगा कि स्त्रियों के प्रति असंगत दृष्टिकोण रखना कोई अर्थ नहीं रखता - स्त्रियाँ कौन बड़ा प्रश्न हैं ही! यह कहने से भी काम नहीं चलने का स्त्रियाँ नहीं, मानव मात्र लेखक का सरोकार है क्योंकि इसका अर्थ होगा कि 'मानवमात्र' में स्त्रियाँ नहीं आतीं।

इस तरह हम देखते हैं स्त्रीवाद ज्यादातर सिद्धांतों की तरह ऐंटी-लिबरल हो चुका है। वामपंथी विचारधाराओं ने उदारवाद (लिबरलिज्म) का कचूमर बाएँ हाथ से निकाला, दक्षिणपंथियों ने दाएँ हाथ से - कुल मिलाकर यह लिबरलिज्म इतना लिजलिजा हो चला कि हर सिद्धांत को इससे वितृष्णा हो चली, और यह माना जाने लगा कि पक्षधरता ही मुक्ति का एकमात्र रास्ता है। ''राह पकड़ तू एक चलाचल / आ जाएगी मधुशाला!'' ऑल रोड्स लीड टू रोम। कोई एक सच, एक मूल्य निभा देना व्यक्तित्व-कृतित्व को एक नई तरह की नैतिक ऊर्जस्विता दे देता है और रचना का मूल्यांकन उसी आधार पर होना चाहिए। 'भाषा कैसोई चाहिए, भाव अनूठो होय' - इस सरलीकरण से भी काम चूँकि नहीं चलनेवाला, नैतिक ऊर्जस्विता भाषिक ठस्से की लय और शिल्पगत पुख्तापन किस हद तक प्रभावित कर पाई है - इसकी पड़ताल भी फ्रेंच (उत्तर-संरचनावादी) स्त्रीपरक आलोचना बखूबी करती है।

जिसे 'थर्ड वर्ल्ड यूफोरिया' कहते थे - विश्व की चार बड़ी घटनाओं के बाद उसमें एक थकान-सी घिर आई है। सोवियत संघ का विघटन, भूमंडलीकरण, त्रिमहादेशीय क्रांति का स्थगन, अंतर्देशीय जियोपॉलिटिक्स द्वारा दूसरी दुनिया के भी ट्रांसनेशनल हो जाने का उद्घोष धीरे-धीरे हममें यह उदास-सी समझदारी भर गई है कि जिन्हें 'रेचेड ऑफ द अर्थ' (दुनिया के परितप्त जन) कहते हैं या 'चिल्ड्रेन ऑफ लेसर गॉड्स' - उनकी क्रांतिधर्मिता भी सब जगह समरूप नहीं होती, हर पत्थर पर घास नहीं उगती, बालू से तेल निकल आना अपवाद ही है - नियम तो नहीं। इसलिए वृहत्तर क्रांति की बात करने से ज्यादा व्यावहारिक है, छोटी जागरण-टोलियाँ तैयार करना - जीवन में हो या साहित्य में। अस्मिता आंदोलनों से उत्प्रेरित समीक्षा-दर्शन इसे ही अपना मूलतंत्र मानते हैं। अलादीन का चिराग सोने-चाँदी-हीरे-जवाहरातों सें भरी जिस विशाल गुफा में कैद था - उसका मुँह जितना सँकरा था - उतनी ही सँकरी होती है हर बड़ी क्रांति, बड़े अन्वेषण की शुरुआत।

इन तथ्यों के आलोक में हम स्त्रीवादी आलोचना का मूल्यांकन करते चलें तो मोटे तौर पर इस प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं कि क्या कर दिया इन्होंने! क्या कुछ-कुछ ऐसा!

(क) इतिहास लेखन का प्रजातांत्रिकरण - क्षतिपूर्तिधर्मी इतिहास-लेखन की यह कमी तो होती है कि सुविधाप्राप्त (प्रिविलेज्ड) समूहों की इतिहास-लेखन पद्धति ये लाँघ नहीं पाते। अब जैसे पीरियड या काल-निर्धारण की जो इक्कट-दुक्कटनुमा खेल-परिधि होती है - उसी के अगल-बगल सब-ऑल्टर्न अपनी परिधि खींचते हैं। इस प्रक्रिया की बहुतेरी समस्याएँ हैं। अब जैसे - स्त्री-विकास की दृष्टि से जो काल-खंड महत्वपूर्ण होगा, जरूरी नहीं कि और दृष्टियों से भी वही कालखंड महत्वपूर्ण हो। मगर काल के बँटवारे के संदर्भ में आप सिर्फ वे ही घटनाएँ केंद्र में नहीं रख सकते जिनसे स्त्रियों का जीवन बदला - वे बातें भी ध्यान में रखनी ही होंगी जिनसे वृहत्तर समाज का जीवन प्रभावित हुआ!

एक समूह या लिंग का जीवन वृहत्तर सामाजिक बदलावों से सर्वथा निरपेक्ष हो - यह मानना तो हास्यास्पद है। शायद इसीलिए स्त्रीवाद वैयक्तिक यातनाओं के सामाजिक संदर्भीकरण पर इतना जोर देता है और नए इतिहास-लेखन में नए काल-विभाजन की बात जब करता है - एक क्षण भी इस तथ्य से आँखें नहीं हटाता कि वृहत्तर इतिहास में तब क्या घट रहा था। यह अकारण नहीं है कि जो जहाँ भी परितप्त दीखा, स्त्री-आंदोलन उससे जुड़ गया। छठे दशक में लिबरल फेमिनिस्ट परमाणविक निशस्त्रीकरण से जुड़ीं, सातवें-आठवें दशक में रैडिकल फेमिनिस्ट अश्वेत आंदोलन (अपरथाइड) से जुड़ीं। नवें दशक में दलित-आंदोलन और पर्यावरण-रक्षक अभियानों से उनका स्पष्ट जुड़ाव रहा और अभी वे भूमंडलीकरण के खिलाफ संघर्षरत हैं। स्त्रीवादी आलोचना की अवधारणा है 'पर्सनल इज पोलिटिकल'। स्त्रीवादी आलोचना, इसीलिए आत्मकथाओं, आत्मस्वीकृतियों, डायरियों, घरेलू चिट्ठियों, वसीयतों और नसीहतों तक के निसंरचनात्मक अध्ययन में रस लेती है, कच्चे चिट्ठों और केस-स्टडीज में रस लेती है; पर इसका अर्थ यह नहीं कि वृहत्तर सत्य इसकी पकड़ से छूटे रहते हैं। छूट सकते ही नहीं, क्योंकि ज्यादातर स्त्रीवादी आलोचक-चिंतक-थियोलॉग ऐक्टिविस्ट भी हैं। करनी-कथनी में वे भेद नहीं करतीं।

(ख) वैकल्पिक स्रोत्रों की तलाश : एहि ठैयाँ मोतिया हेराय गैले रामा - जो लोग स्त्रीवादी आलोचना पर पश्चिमी प्रभाव के अतिरेक का अभियोग लगाते हैं, उन्हें यह बात अच्छी तरह दिमाग में बिठा लेनी चाहिए कि 'कैनेनियल' और 'कोलोनियल' - दोनों पर पहला प्रहार स्त्रीवाद ने ही किया था। ज्ञात-प्रत्याख्यात के वैकल्पिक स्रोतों की तलाश सबसे पहले स्त्रीवाद ने ही शुरू की थी - क्षेत्रीय साहित्य और देशी परंपराओं का संधान, मौखिक इतिहास-लेखन, रीति-रिवाज, मिथक प्रत्याख्यान, तस्वीरें और अन्य अनाहृत दस्तावेज-समेत अज्ञात पांडुलिपि-संधान गलत कारणों से तरजीह पा गए स्त्री-विरोधी पाठों पर लाल चिह्न के निशान के साथ दृष्टि-प्रक्षालक अन्य पुनर्पाठीय कार्रवाइयाँ। स्त्रीवादी आलोचना ने ही इन्हें संभव किया।

अपने इन्हीं प्रयोगों, तकनीकों, भाषा-विषयक सिद्धांतों और 'मल्टिपल आई' की अपनी मूल अवधारणा के कारण स्त्रीवादी आलोचना उत्तर-संरचनात्मक कहलाती है।

(ग) कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा : कुछ कच्चे प्रगतिशील स्त्रीवादी आलोचना को भानुमती का पिटारा मानकर उसके ब्राइकोलेज, अंतर्पाठीय, अंतर्विद्याशास्त्रीय प्रक्रिया-संधान तकनीकों का भरपूर मजाक उड़ाते हैं, जबकि यह बात उन्हें समझनी चाहिए कि मार्क्स का एक सजग पुनर्पाठ है - स्त्रीवाद, जो मार्क्स की इन मूल संस्थापनाओं का अवदान स्पष्ट स्वीकार करता है -

- मनुष्य के अस्तित्व की सार्थकता प्राकृतिक साधनों से उसके सर्जनात्मक /अंतर्क्रियात्मक संवाद में है। कोई भी भूमिका जो 'लेबर' या 'श्रम' या उससे होनेवाले लाभों से व्यक्ति को वंचित रखे - शोषणपरक ही मानी जाएगी!

- पूँजीवादी व्यवस्था का केंद्र है अहंवादी, ठिंगना, लालची भोक्ता-भाव जिसके खिलाफ समवेत संघर्ष होना ही चाहिए।

- पुस्तक भी एक उत्पाद है और उसके प्रोडक्शन-रिसेप्शन के पीछे शुद्ध भौतिक किस्म की दुरभिसंधियाँ काम कर सकती हैं। इसे इस तरह भी समझें कि लोग औरत के 'टेक्स्ट' तक में उसकी देह-गंध/मानुष-गंध का स्कोप ढूँढ़ लेते हैं और उसके पाठान्वय में उसकी देह के चिंतन का सुख। तभी तो उसका सारा लेखन आत्मकथात्मक कहा जाता है (केवल कच्चा रोना-गाना) और सारा पाठालोचन उसके प्रशंसकों की तिकड़म का उत्पाद!

- स्वार्थपरकता और क्षुद्रता जननेवाला पूँजीवादी मंडल उदासी और एकाकीपन आदि रोगों का उत्स भी है। परिवार, प्रेम, यौनिकता और नैतिकता की नई परिभाषाएँ गढ़ी जाएँ तो ही इन रोगों का निदान संभव हो।

इस संदर्भ में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न जो स्त्रीवादी आलोचना पूछती है, वे थे - प्रेम और सद्भाव अपने पति और बच्चों तक ही सीमित क्यों? परिवार रिश्तेदारों तक ही सीमित क्यों? प्रजननात्मक श्रम या घरेलू बेगार 'लेबर' या (भावनात्मक) सरप्लस का मान नहीं पा सके तो क्यों? भगिनी-भाव से धनी औरतों का गरीब औरतों से जुड़ जाना प्रतिगामी माना जाए तो क्यों? दैहिक शोषण से जुड़ी कई ऐसी समस्याएँ हैं जो हर वर्ग, हर नस्ल, हर जाति की स्त्रियाँ प्रायः एक शिद्दत से भोगती हैं, इसलिए वर्ग की इकहरी श्रेणी इनके काम की नहीं।

सिर्फ 'निंदा-रस-विमर्श' और 'कांता-सम्मत उपदेश' में पारंगत मानी जानेवाली स्त्रियाँ कभी इस तरह अपना अलग आलोचना-शास्त्र भी गढ़ेंगी - इसकी तो किसी को उम्मीद न थी - न संस्कृत के आचार्यों को, न पश्चिम के शास्त्रज्ञों को ही। कांट-हीगेल-मार्क्स-सार्त्र आदि दिग्गज लगातार अपनी कब्रों में बेचैन करवट बदलते होंगे - उन तेज परीक्षार्थियों की तरह - किसी बड़ी परीक्षा में जिनसे एक प्रश्नोत्तर साफ छूट गया हो! और सबसे मजेदार बात यह कि एक प्रश्न साफ छूट गया है - इसका अहसास हुआ तब जब प्रश्न ही उछलकर कान पर आ बैठा - 'अरे यार, मुझे क्यों अदेखा किया?'

अदेखा रह जाने के अपने आनंद हैं। किसी दीदावर के देखने न देखने या देखकर अदेखा कर देने या मटिया देने से कोई नरगिस 'बेनूर' नहीं हो जाती! 'पैदा' करना तो उसका अपना काम है - दीदावर हो या बेदीद! ये जो मुश्किल से पैदा हुए - यानी दीदावर - उन्हें भी नहीं दीखता कुछ, तो बात 'ओल्ड टेस्टामेंट' की उस प्रसिद्ध उक्ति पर आकर टिक जाती है - 'सीइंग दे डोंट सी, हियरिंग दे डोंट हियर!'

'कांता-सम्मत उपदेश' भी एक कौशल ही तो है। आलोचकीय नीर-क्षीर विवेक के बिना तो यह सधने से रहा! किंतु 'पर-उपदेश कुशल बहुतेरे' भी एक तथ्य है। दूसरों को तो बहुत समझाया-बुझाया, बहुतों को किनारे लगाया, पर औरतों ने अपनी नाव सदियों तक डाँवाडोल ही रहने दी - आत्म-प्रबोधन के कुछ किस्से भक्ति-तट पर घटे, पर यह वैयक्तिक मुक्ति का मामला था। न खुद डूबेंगे, न समदुखभोगियों को डूबने देंगे - यह वृहत्तर भगिनी-भाव जगते-जगते बीसवीं सदी आ गई। 'आलू़चना' के चक्कर से निकलकर 'आलोचना' के अहाते में तभी आईं औरतें और तभी फूला-फला इनका आत्मालोचन औरत के नजरिए से दीन-दुनिया परखने का दम-खम!

चींटी जिस चाल से हाथी के सूँड़ में चलती है, करीब-करीब उसी के ताल-छंद में स्त्रीवादी आलोचना अकादमिक सूँड़ में बढ़ी और भीतर-भीतर न जाने कितनी अटपट छींकें दबाए हुए गजराज मता गए! चेखव का 'क्लर्क' सरकस में आगे बैठे 'अफसर' की गर्दन पर छींका और बाद में इसी दबाव में उसके प्राण-पखेरू उड़े कि अफसर क्या सोचेगा। ऐसी कोई प्राणघाती छींक गजराज नहीं छींक पाते और इसीलिए शायद मता जाते हैं!


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