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कविता

विस्मृति

अविनाश मिश्र


उन्होंने मेरा हुलिया बदला
और मेरी हस्ती को तरतीब दी
मैं बहुत जल्दी-जल्दी खा रहा था
उन्होंने कहा कोई कमी और कोई जल्दी नहीं है
और भूख दोबारा भी लगेगी

मैं जब गंदा हुआ और लज्जा में धँसा
उन्होंने कहा कि फिक्र मत करो
सारी गंदगी साफ की जा सकती है

बहुत बाद में मैंने बहुत सारे सलीके और शऊर अपनाए
और यूँ जाहिर किया
जैसे मैं इन्हें गर्भ से ही सीखकर आया था

मैं उन्हें लगभग भूल गया
जिन्होंने मेरी कमजोरियों और कमियों को बढ़ावा नहीं दिया
मैं जब-जब और जहाँ-जहाँ पंचर हुआ
उन्होंने मुझे दुरुस्त किया
मुझमें हवा भरी
और मुझे रवाना किया
 


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