ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों में घने जंगलों के बीच एक पहाड़ी गाँव था। ठेठ गाँव के बीच
में घर होना ही था, वैसे ही जैसे पहाड़ियों के घर होते हैं। जिस जमाने की ये
बात है उस जमाने में पहाड़ी गाँवों के बाशिंदे नहाने के लिए नदी, खाले, धारे,
पन्यारे में जाते थे। ये सभी जगहें खुली होतीं इसलिए औरतें इन जगहों में कैसे
नहातीं। और हाँ इन सभी जगहों में तो दिन में ही जाया जा सकता था। दिन में सभी
औरतें घर में पाले मवेशियों का, खेत का, जंगल का, परिवार के बूढ़ों का, बच्चों
का काम करती थीं। वैसे भी पहाड़ी औरतें किस के लिए नहातीं। सुआ (प्रेमी, पिया)
तो परदेशी। बड़ी बूड़ियाँ समझातीं जादा नहाना, रोज बाल बनाना पातरों का काम होता
है भले घरों की बेटी-ब्वारियों का नहीं। हाँ तो भले घरों की ये बेटी-ब्वारियाँ
रात को ओबरे (गोठ) में नहातीं। ऐसी ही एक घनघोर अँधेरी रात में सास नहा रही
थी। बहू सास की पीठ से मैल रगड़ रही थी। घोर अँधेरे में सास की पीठ थी बहू के
हाथ थे और दो आवाजें थी। तभी ब्वारी की डगमगाती आवाज सास को सुनाई दी। जी (सास
को पहाड़ में केवल जी भी बोला जाता है) मैं तुम्हारी पीठ को हाथों से रगड़ रही
हूँ पर मेरा पैर आगे जा रहा है। ऐसा लगता है कि कोई भूत खबेश जबरदस्ती मेरा
पैर तुम्हारी पीठ की तरफ ले जा रहा है। अँधेरे में ही बहू को सास की हिलकती
पीठ के साथ गहरी रुदन वाली सिसकी सुनाई दी। हे ब्वारी धो ले बाबा, पैर से ही
धो ले। ये मेरा किया है जो तेरे पैर उठा रहा है कोई भूत खबेस नहीं है। पहाड़ी
गाँव की उस घनघोर अँधियारी रात में तमाम पेड़ पौधे कंकड़ पत्थर दो औरतों के
आँसुओं से टपकने लगे।