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कविता

हे मेरे चिर सुंदर-अपने !

महादेवी वर्मा


हे मेरे चिर सुंदर-अपने !

भेज रही हूँ श्वासें क्षण क्षण,
सुभग मिटा देंगी पथ से यह तेरे मृदु चरणों का अंकन !
खोज न पाऊँगी, निर्भय
आओ जाओ बन चंचल सपने!

गीले अंचल में धोया सा -
राग लिए, मन खोज रहा कोलाहल में खोया खोया सा !
मोम-हृदय जल के कण ले
मचला है अंगारों में तपने !

नुपुर-बंधन में लघु मृदु पग,
आदि अंत के छोर मिलाकर वृत्त बन गया है मेरा मग !
पाया कुछ पद-निक्षेपों में
मधु सा मेरी साध मधुप ने !

यह प्रतिपल तरणी बन आते,
पार, कहीं होता तो यह दृग अगम समय सागर तर जाते !
अंतहीन चिर विरहमाप से
आज चला लघु जीवन नपने !

(सांध्य गीत से)
 


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