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कविता

स्मित तुम्हारी से छलक यह ज्योत्स्ना अम्लान

महादेवी वर्मा


स्मित तुम्हारी से छलक यह ज्योत्स्ना अम्लान,
जान कब पाई हुआ उसका कहाँ निर्माण !

अचल पलकों में जड़ी सी तारिकाएँ दीन,
ढूँढ़ती अपना पता विस्मित निमेषविहीन !

गगन जो तेरे विशद अवसाद का आभास,
पूछ्ता ‘किसने दिया यह नीलिमा का न्यास’!

निठुर क्यों फैला दिया यह उलझनों का जाल,
आप अपने को जहाँ सब ढूँढ़ते बेहाल !

काल-सीमा-हीन सूने में रहस्यनिधान !
मूर्तिमत कर वेदना तुमने गढ़े जो प्राण;

धूलि के कण में उन्हें बंदी बना अभिराम,
पूछते हो अब अपरिचित से उन्हीं का नाम !

पूछ्ता क्या दीप है आलोक का आवास ?
सिंधु को कब खोजने लहरें उड़ी आकाश !

धड़कनों से पूछ्ता है क्या हृदय पहिचान ?
क्या कभी कलिका रही मकरंद से अनजान ?

क्या पता देते घनों को वारि-बिंदु असार ?
क्या नहीं दृग जानते निज आँसुओं का भार ?

चाह की मृदु उँगलियों ने छू हृदय के तार,
जो तुम्हीं में छेड़ दी मैं हूँ वही झंकार?

नींद के नभ में तुम्हारे स्वप्नपावस-काल,
आँकता जिसको वही मैं इंद्रधनु हूँ बाल !

तृप्ति-प्याले में तुम्हीं ने साध का मधु घोल,
है जिसे छलका दिया मैं वही बिंदु अमोल !

तोड़ कर वह मुकुर जिसमें रूप करता लास,
पूछ्ता आधार क्या प्रतिबिंब का आवास ?

उर्म्मियों में झूलता राकेश का अभास,
दूर होकर क्या नहीं है इंदु के ही पास ?

इन हमारे आँसुओं में बरसते सविलास -
जानते हो क्या नहीं किसके तरल उच्छवास ?

इस हमारी खोज में इस वेदना में मौन,
जानते हो खोजता है पूर्ति अपनी कौन ?

यह हमारे अंत उपक्रम यह पराजय जीत,
क्या नहीं रचता तुम्हारी साँस का संगीत ?

पूछ्ते फिर किसलिए मेरा पता बेपीर !
हृदय की धड़कन मिली है क्या हृदय को चीर ?

(रश्मि से)
 


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