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विमर्श

राजमार्गों की ओर मुँह फेरकर

आरती


इन दिनों कई शब्द फैशन की जद में आ खड़े हुए हैं (फैशन से यहाँ आशय चलन या प्रचलन से ही है)। जैसा कि हर प्रचलन अपने साथ बहुत सी अनुषांगिक बहसें, तर्क, वाद-विवाद, विमर्श और जबरदस्तियाँ भी लेकर आता है। तो 'देशद्रोह' और 'देशप्रेम' ऐसी ही परिधि के दो शब्द हैं। इन दिनों ये दोनों शब्द इस फैशन मंच के 'शोज टॉपर' हैं। चाय-पान की गुमठियों से लेकर सेमिनारों और असेंबली तक इन्हीं पर सहमतियाँ-असहमतियाँ, इन्हीं के स्वरूप, औचित्य पर बहसें हो रही हैं। एक प्रश्न कब बवाल बन जाता है और देश दो खेमों में बँट जाता है। यहीं स्थितियाँ शीतयुद्ध की होती हैं। लेकिन यहाँ मामला केवल एक या दो शब्द का नहीं है।

अमूमन 'राष्ट्रप्रेम' और 'राष्ट्रवाद' को एक ही समझा जाता है, यहाँ इसके अंतरों को समझा जाना बेहद जरूरी है। उससे पहले हम भारतीय संदर्भों में राष्ट्रवाद के पनपने की परिस्थितियों पर बात करेंगे।

इस 'सप्त सैंधव' के इलाके में या कि 'सोलह महाजनपद' या कि आर्यावर्त, जंबूदीप अर्थात भारत में 'राष्ट्रवाद' के विषैले पेड़ का रोपण मोहम्मद बिन कासिम के साथ आई इस्लामिक आक्रमणकारी शक्तियों के प्रवेश से जाना जाए। वे अपनी पहचान को लेकर बेहद सजग और उच्चताबोध से ग्रसित भी थे। इन्होंने यहाँ रह रहे लोगों को 'हिंदू' कहकर पुकारा। सिंधु नदी के इस पार रहने वाले लोग। फारसी के पुराने प्रचलित रूप में 'स' को 'ह' उच्चारित किया जाता है। 'हिंदू' सिंधु का ईरानी रूप है। इस प्रकार यह क्षेत्र हिंदू, बाद में हिंदुस्तान कहलाया और यहाँ रह रहीं विभिन्न नस्लें हिंदू। इसके बाद जो भी नस्लें बाहर से आईं वे अपनी संस्कृति को लेकर सतर्क रहीं, हिंदू परंपराओं से दूर रहीं। यहाँ वैवाहिक संबंधों का सख्ती से निषेध किया गया। अतः मुगलों के आने से पहले (1526), वो भी अकबर के प्रयासों से पूर्व भारत आई इस्लामिक शक्तियों ने साम्राज्य तो स्थापित किए किंतु एक ही भूभाग पर रह रहे ये तथाकथित हिंदू-मुस्लिम सदैव एक-दूसरे के लिए अजनबी ही रहे।

अब एक प्रश्न यहाँ यह उठ खड़ा होता है, कि इससे पहले... क्या यहाँ रह रही जातियों के बीच केवल सौहार्द ही था, कोई सामाजिक विषमता न थी, जबकि सबको पता है कि विभिन्न नस्लें, द्रविड़, आर्य, यूनानी, शक, कुषाण, हूण जातियाँ यहाँ रह रही थीं। चार वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र की परंपरा की जड़ें समाज में गहराई तक फैली थीं, इस परंपरा को तार्किक साबित करने के लिए कर्मफल पर आधारित जन्म और पुनर्जन्म की अवैज्ञानिक परंपरा भी कायम थी। शूद्रों से पशुतुल्य व्यवहार के सिद्धांतों की झलकियाँ आपको उपनिषदकाल में आसानी से मिल जाएँगी। स्त्री की स्थिति में सिद्धांत व व्यवहार में, तब भी असमानता थी। बावजूद इसके पूर्व में वैदिककाल जिसे भारतीय चिंतन परंपरा का सबसे प्राचीन व मान्य स्वरूप माना जाता है, विचारों की कई धाराएँ बहती थीं। वेदांत दर्शन जो वेदों, उपनिषदों, पुराणों उसके बाद गल्पों व ब्राह्मणों तक में बिखरा पड़ा है, में से ही 'वसुधैव कुटुंबकम्' की परिपुष्ट सोच निकलकर आई। महोपनिषद के एक श्लोक का अंश है - 'वसुधैव कुटुंबकम्' पूरी पृथ्वी ही हमारा परिवार है। कुटुंब है। कुटुंब कई परिवारों (परिवार जिसमें एक ही माता-पिता की संतानें रह रही हों) के समूह को कहते हैं। इस कथन का पूरा रूप देखें -

     अयं निजं परावेति गणना लघुचेतसाम्।
          उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम्।।

आशय कि अपने पराए के फेर में पड़ने से चेतना लघु (संकीर्ण) होती है। उदार (व्यापक सोच वाले) विचारों वाला व्यक्ति पूरी धरती को अपना कुटुंब मानकर व्यवहार करता है। यह श्लोक वह समाहार मूल्य था जो पिछली कई सदियों में भारतीय संस्कृति को परिष्कृत करता रहा। यही प्राणतत्व था जिसने इस भूभाग में आई जातियों को समायोजित किया। एक कुटुंब की तरह सबकी असमानताओं का समावेश एक नई संस्कृति का स्वरूप गढ़ती रहीं। यही सर्व-समावेशी संस्कृति का स्वरूप जिसे आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी बाद को 'सामासिक संस्कृति' का नाम भी देते हैं, यही वास्तव में हमारा जीवन मूल्य है।

जैसा कि कहा गया कि सर्व समावेशी का तात्पर्य यह नहीं कि विषमताएँ नहीं थीं। बेशक आर्य-द्रविड़-शक-हूण-कुषाणों में परस्पर लड़ाइयाँ होती रहीं। भूभाग को लेकर, सीमाओं को लेकर उनमें वैमनस्य भी था। बाद को भी चूँकि देश की परिकल्पना बेहद सीमित थी - बंगाल, कंधार, कच्छ, अवध, मथुरा जैसे राज्यों को राजा और वहाँ की प्रजाएँ 'देश' ही संबोधित करते थे। इनकी भाषाओं, रहन-सहन में भिन्नताएँ थीं। लेकिन इनके बीच राष्ट्रीय चेतना से आशय उस संस्कृति से था जिसका पालन वे करते आए हैं। यहाँ तक राज्य सत्ताएँ राष्ट्र से बड़ी नहीं थीं। ऐतिहासिक घटनाओं पर गौर किया जाए तो सत्ताओं के उलट-फेर से लोगों की राष्ट्रीय अस्मिता नष्ट हो गई, ऐसा कहीं महसूस नहीं होता था। राज्यों में राजाओं का बदलना, दूसरे राजा का पदासीन होना, बस, राजवंशों के उत्थान और पतन की घटना के रूप में चिन्हित होती थी।

लेकिन इस्लामिक शक्तियों के प्रवेश के साथ ही हिंदू संस्कृति अलग और मुस्लिम संस्कृति अलग चिन्हित हुईं। जातियों का विषयांतर नस्लों में हो गया। और नस्लों के बीच शुद्धतावाद ने, अभिजात्यवाद ने धार्मिक वैमनस्य के जड़ हथियारों को जन्म दिया। 1526 में भारत आई तुर्क-मंगोल जाति मुगल ने अन्य इस्लामिक और हिंदू साम्राज्यों को हटाकर धीरे-धीरे पूरे देश में अपना साम्राज्य स्थापित किया। शुरू में इनका व्यवहार भी अन्य मुसलमान शासकों की तरह ही था लेकिन अकबर ने इस्लाम को राजधर्म से हटाकर दीन-ए-इलाही की परिकल्पना कर हिंदू जनता के मन में विश्वास जगाने की कोशिश की। अकबर के बाद शासकों का हाल पूर्ववत ही रहा लेकिन संत कवियों का वह समय जिसे भक्तिकाल और साहित्य का स्वर्णयुग कहा जाता है में, कबीर, दादू, नानक, रैदास, रहीम, मीर, मलूकदास, सुंदरदास और सूफी भक्त कवियों ने एक प्रकार से कट्टरता के खिलाफ और उस सामाजिक सर्वसमावेशी संस्कृति जगाने के लिए आंदोलन ही छेड़ दिया। शायद इन्हीं प्रयासों का प्रतिफलन कि हिंदू-इस्लाम के सामंजस्य की एक प्रथा भी विकसित हुई जिसे हम गंगा-जमुनी तहजीब के रूप में जानते-समझते हैं। यह गंगा-जमुनी तहजीब उसी वसुधैव कुटुंबकम् की अवधारणा का नवीनतम रूप है।

लगभग 17वीं सदी के बाद जब मुगल साम्राज्य पतन के कगार पर खड़ा था तभी, अँग्रेजों के वेश में व्यापार और साम्राज्य ही नहीं आया, देश में राष्ट्रवाद भी आया। अभी तक साथ मिल-जुलकर रहना सीख रहे हिंदू-मुस्लिमों को आपस में लड़वाकर अँग्रेजों ने अपना साम्राज्य स्थापित किया। पहले उन्होंने हिंदुओं को अपने पक्ष में करने के लिए दाँव खेले और बाद में मुस्लिमों को। भारत के विभाजन का सूत्रपात किया। जिसका खामियाजा भारत-पाकिस्तान जैसे देश आज भी वैचारिक विसंगति के रूप में, अलग होने के बाद भी झेल रहे हैं। राष्ट्रवाद की चरम प्रतिध्वनियाँ दोनों ही जगह पसरी हुई हैं। भारत को पाकिस्तान के नाम से चिढ़ है तो पाकिस्तान को भारत से नफरत। हाँ, जैसा कि बीच में सौहार्द्र देखने को मिलता है कि भारत के प्रधानमंत्री के सत्तारोहण के अवसर पर पाकिस्तानी वजीरे-ए-आजम खुद चलकर मुबारकवाद देने और तालियाँ बजाने आते हैं और उन्हीं वजीरे-ए-आजम (बेटी-पोती कोई भी) के घर में शादी हो तो भारतीय प्रधानमंत्री दावत खाने जाते हैं। क्यों? क्योंकि दोनों के ही आका (अमेरिका) का इशारा होता है। आज इनकी लड़ाइयों से उसके व्यापार-विनिमय और सामरिक हितों को नुकसान पहुँचता है। अब देश के सारे रास्ते अमेरिका की ओर मुड़ गए हैं, वहाँ से रिसता जहर बेहद धीमा है जिसका असर शरीर पर नीले-काले धब्बों के रूप में दिखाई नहीं देता। लेकिन जो जहर अँग्रेजों ने भारतीयों को हजारों साल इसी भूमि पर रहकर पिलाया, वो उनके जाने के बाद भी कम होता नहीं दिख रहा, बल्कि पूर्व के सारे प्रयासों पर आज की राष्ट्रवादी ताकतें पानी फेर रही हैं।

बात जब राष्ट्रवाद की हो तो उसके इतिहास, जन्म, प्रारंभ की पड़ताल करना भी जरूरी हो जाता है। उसकी व्याख्याओं, अवधारणाओं की तह में जाकर झाँकना संभावित प्रश्नों का निराकरण और लोकतांत्रिक व्यवस्था में उसके औचित्य-अनौचित्य पर आलोचनात्मक रवैया बेहद जरूरी है।

दरअसल 'राष्ट्रवाद' शब्द और जिस रूप में उसका प्रभाव हुआ, उसकी उत्पत्ति पश्चिम से हुई। नवजागरण काल का वह दौर जब घोर सामंती व्यवस्था से लड़-भिड़कर यूरोपीय समाज आगे बढ़ रहा था, जब दास प्रथा उन्मूलन, साम्राज्यों के विस्तार के विरोध और अनेक सामाजिक-राजनैतिक सुधारों की आहटें धीरे-धीरे आ रही थीं, उस दौर में भी नस्लों के बीच वैमनस्यता वैसी ही बनी हुई थी। फ्रेंच से श्रेष्ठ जर्मन होते हैं और उनसे ब्रिटिश और इटैलियन आदि। इसी वैमनस्यता ने अलग-अलग राष्ट्रीयताओं को श्रेष्ठता के प्रदर्शन की जद में ला खड़ा किया। यहाँ राष्ट्रवाद का उदय (यूरोप में) जातीयता, भाषा, भौगोलिकता, नस्ल और राजसत्ता के उच्चताबोध से प्रेरित था। अठारहवीं सदी की महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक भिन्न प्रकार के अस्मिताबोध का जन्म इंग्लैंड के साथ फ्रांस, जर्मनी, इटली आदि में भी हुआ। राष्ट्रवाद का सीधा संबंध आर्थिक व्यवस्था से भी था। देशव्यापी सामूहिकता ने इंग्लैंड की मजबूत राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का निर्माण किया और राजसत्ता का सुदृढ़ीकरण भी। सत्ता ने यहाँ लेखकों, कलाकारों, विचारकों को भी अपने पाले में लेने की भरपूर कोशिश की। बुद्धिजीवियों को पक्ष में लेकर जनता की संवेदनाओं का उपयोग कर राष्ट्रीय चिंह, राष्ट्रगान, झंडा, मूर्ति, चित्र और तमाम प्रकार के मिथकों से उनका ऐतिहासिक संबंध जोड़कर, इन उपकरणों को राजकीय कामकाज से जोड़ा और राष्ट्रवाद की भावनाओं को अधिक गहरा बनाया गया।

राष्ट्रवाद 'नेशनलिज्म' शब्द का इस्तेमाल करने वाले जर्मनी के जोहान गोटफ्राइड हर्डर को माना जाता है जिसने जर्मनी के लोगों में अपनी नस्लीय उच्चता को लेकर भयंकर किस्म के उच्चताबोध का बीज बोया। हर्डर ने यहाँ तक कहा कि - 'अगर कोई व्यक्ति राष्ट्रवादी नहीं है तो वह आत्माविहीन है।' यही राष्ट्रवादी भावना आगे जाकर, या यूँ कहें निरंतर बढ़ती रही और एक दिन प्रथम व द्वितीय विश्वयुद्ध का कारण बनी। यूरोप के लगभग सभी देशों के बीच पनपी राष्ट्रवादी विचारधारा ने, उनके अंतर्द्वंद्वदों से उपजे वैमनस्य ने पूरी दुनिया को दो विश्वयुद्धों के तंदूर में झोंका। 1823 के बीच यूनानी स्वाधीनता संग्राम जिसमें रूस, ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस और अन्य ने यूनान का साथ दिया तो तुर्की साम्राज्य की मदद अल्जीरिया, मिस्र व ट्यूनिस ने की। इस युद्ध में पहली बार राष्ट्रवाद का उग्र सामरिक व्यवहार देखने को मिला।

अब हम राष्ट्रवाद की उन व्याख्याओं और परिभाषाओं की ओर मुड़ेंगे जो दुनियाभर के विचारकों, चिंतकों के अनुभवों से निकलकर आई हैं। एक तरफ राष्ट्रवाद को समान भूगोल, समान भाषा और विरासत के आधार पर चिन्हित किया जाता है, (यह प्रारंभिक व्याख्या मात्र है) दूसरी ओर चार्ल्स डार्विन का विकास सिद्धांत जिसमें मनुष्य मूलभाव के अनुरूप दूसरों से समानता के आधार पर जुड़ता है। इनके अलावा भी अन्य रूप है राष्ट्रवाद का, जो एक केंद्रीय सत्ता प्रतिष्ठान और औद्योगिक अर्थव्यवस्था के आधार पर राष्ट्रवाद की व्याख्या करता है, जैसा कि कार्ल मार्क्स ने कहा - 'राष्ट्रवादी चेतना का निर्माण बुर्जुआ क्रांति और औद्योगिक अर्थ-व्यवस्था के मद्देनजर होता है।' आधारभूत मूल्यों के वस्तुकरण की ओर बढ़ता झुकाव औद्योगिक व्यवस्था के लिए फायदेमंद होता है।

बर्ट्रेंड रसेल राष्ट्रवाद को 'अपनी पितृभूमि की विदेशी नीति को परखने की क्षमता का ह्रास' कहते हैं। तो अल्बर्ट आइंस्टाइन ने राष्ट्रवाद को 'मानव जाति के लिए चेचक के समान' बताया है। बेहद जरूरी बात जो राष्ट्रवाद और राष्ट्रप्रेम के बीच का अंतर या समानता को चिन्हित करती है वह बारीक सा तत्व क्या है, ऐसा प्रश्न यहाँ पर बार-बार सिर उठाता रहा, इसका समाधान काफी हद तक विख्यात अँग्रेजी उपन्यासकार जॉर्ज आर्वेल ने किया है, वे कहते हैं कि 'राष्ट्रवाद जहाँ सत्ता की लालच भरी जिज्ञासा है वहीं राष्ट्रप्रेम अपनी जन्मस्थली, संस्कृति और लोगों के प्रति प्रेम की भावना है। राष्ट्रप्रेम राष्ट्रनिर्माण की सकारात्मक प्रेरणा है, तो राष्ट्रवाद तर्कहीन नकारात्मक आवेगों से संचालित एक प्रबल अधिकार-बोध का आरोहण, जो सत्ता के विस्तार के लिए दूसरों से प्रतियोगिता से ही प्रतिष्ठा अर्जित करने की भावना उद्दीप्त कर मानवता को अपने और पराए में विभाजित करती है।'

अठारहवीं सदी के प्रारंभ से इंग्लैंड में अर्थव्यवस्था के सुदृढ़ीकरण से लेकर सदी के अंत और 1945-50 के आसपास तक हम कुछ बिंदुओं पर गौर करें तो, जैसे कि प्रथम विश्वयुद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध। संयुक्त राष्ट्र संघ एवं फ्रांस में लोकतंत्र की स्थापना, रूस की समाजवादी क्रांति और भारत एवं अन्य एशियाई देशों के स्वाधीनता संग्राम, तो हमें राष्ट्रवाद के भी कई रूप और अलग-अलग कोण भी देखने को मिलते हैं।

फ्रांसीसी दार्शनिक अर्नेस्ट रीनन व जॉन स्टुअर्ट मिल ने जिस नागरिक राष्ट्रवाद की पैरोकारी की थी, उसमें उदार व लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर व्यक्ति में राष्ट्रीय अस्मिता के महत्व पर बल दिया गया था। इसमें तर्कवाद और उदारवादी परंपराओं के प्रोत्साहन की हिमायत थी। राष्ट्रीयता की भावना का निर्माण यहाँ स्वतंत्रता, समानता, व्यक्तिगत अधिकारों-कर्तव्यों के समंवयन एवं असहिष्णु मूल्यों के बीच था। अभी फ्रांस और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में लोकतंत्र की स्थापना की ओर ऊपर जो संकेत दिया गया वहाँ इस नागरिक राष्ट्रवाद की परिणिति ने अहम भूमिका निभाई थी।

राष्ट्रवाद का वह रूप जिसने ब्रिटेन आदि के अधीन औपनिवेशिक देशों को एकजुट किया, इन देशों की मुक्ति का कारण भी बना। भारत सहित अफ्रीका एवं एशिया के तमाम देशों की विदेशी ताकतों से मुक्ति अभियान में राष्ट्रवाद की नई व्याख्या ने जनमानस को अस्मिताबोध कराया एवं दासता के विरुद्ध विद्रोह छेड़ सकने के लिए तैयार किया। रूस की बोल्शेविक क्रांति और इसके बाद सोवियत संघ के गठन में राष्ट्रवादी प्रभाव की विशेष भूमिका थी, इससे इनकार नहीं हो सकता। लेकिन एक बहुत ही बारीक सी पंक्ति है जो आसानी से चिन्हित की जा सकती है कि भारत जैसे देशों में, उस दौर में राष्ट्रवाद का रूप कोई विशुद्ध राष्ट्रवाद नहीं राष्ट्रप्रेम ही था। राष्ट्रवाद के पश्चिमी जगत में प्रसारित रूढ़ अर्थ को भारतीय परिप्रेक्ष्य ने सदैव अस्वीकार किया। राष्ट्रवाद का पश्चिमी देशों में फैला वह नस्लीय रूप, जिसमें एक नस्ल को श्रेष्ठ, अभिजात्य, उच्च गुणोंवाला मानकर राष्ट्र की गुणवत्ता की भावना से जोड़कर देखा जाता है। दूसरी ओर धार्मिक राष्ट्रवाद जो एक धर्म को महत्व देते हुए उसे राष्ट्रीय गर्व का विषय बनाता है। इसी प्रकार भाषाई, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक राष्ट्रवाद के स्वरूप रहे। ये अपनी आक्रामकता की चपेट में लोगों की भावनाओं को लेते रहे, और इन सभी के स्वरूप निर्धारण एवं आक्रामकता को बढ़ाने में धार्मिक मिथकों एवं ऐतिहासिक पात्रों की विशेष भूमिका होती थी।

हम भारतीय परिप्रेक्ष्य के राष्ट्रवाद की पड़ताल करें तो, भारत जैसे बहुलतावादी देश में ऊपर दिए गए किसी भी प्रकार की राष्ट्रवादी मुहिम घातक और सीधे-सीधे देश विरोधी साबित होती है। नस्लीय राष्ट्रवाद का बोलवाला जर्मनी, इटली और फ्रांस जैसे देशों में सबसे अधिक रहा जिसने दो विश्वयुद्ध दुनिया को थमाए लेकिन वहाँ इसकी उत्पत्ति का प्रमुख कारण यह भी रहा कि एक देश या भू-भाग में एक ही नस्ल के लोग रहते थे और दूसरे देशों के भिन्न जाति नस्ल के लोगों के साथ प्राकृतिक संसाधनों को हथियाने की प्रतियोगिता भावना थी लेकिन भारत की स्थिति बिलकुल उलट थी। यहाँ विभिन्न धर्म, समुदाय, भाषाई, अनगिनत जातियों के लोग हैं। यहाँ प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता है। इसीलिए इनमें से किसी भी किस्म का राष्ट्रवाद भारत के लिए औचित्यहीन ही नहीं खतरनाक भी साबित होगा।

भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के समय औपनिवेशिक हुकूमत के खिलाफ राष्ट्रवाद की किस्मों में से ही एक 'अस्मिताबोधक राष्ट्रवाद' का स्वरूप देखने को मिला। अन्य देशों की तर्ज पर प्रतीक एवं मिथकों का सृजन हुआ। राष्ट्रीय झंडा, राष्ट्रीय गान-गीत, चित्र, चिह्न, शब्द गढ़े गए। लेकिन यहाँ हमारे सभी राष्ट्रभक्तों ने पुरजोर शब्दों में राष्ट्रवाद का विरोध भी किया। रवींद्रनाथ टैगोर कहते हैं - 'आज का समय एक-दूसरे से विरोध का नहीं अपितु साथ चलने का है। ...एक उच्चतर संस्कृति के निर्माण के लिए असहिष्णु राष्ट्रवाद को नकारने की जरूरत है और तो और राष्ट्रवाद राष्ट्र की अखंडता के लिए एक बड़ा खतरा है।' ऐसा ही महात्मा गांधी ने कहा कि - 'जो नए लोग देश में दाखिल होते हैं, वे उसकी प्रजा को तोड़ते नहीं, बल्कि उसमें घुल-मिल जाते हैं। ऐसा ही हो, तभी कोई मुल्क राष्ट्र माना जाएगा। हिंदुस्तान ऐसा था और आज भी है। ...आज अगर हिंदू मानें कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें तो उसे भी सपना ही समझिए। ...दुनिया के किसी भी हिस्से में एक राष्ट्र का अर्थ एक धर्म नहीं किया गया है, हिंदुस्तान में तो ऐसा था ही नहीं।' प्रसिद्ध दार्शनिक और अध्यात्म में गहरी आस्था रखने वाले श्री अरविंद कहते हैं कि - 'भारत में हम राष्ट्र को उच्चतम अवस्था के रूप में नहीं देखते, जहाँ तक पहुँचना ही हमारी आखिरी नियति हो। हमारे लिए राष्ट्र से ऊँचा आदर्श मानवता है और उससे ऊपर है यह जीवन-दुख, प्राणियों की महात्वाकांक्षाओं से भरी दुनिया के रास्ते होती वह अवस्था, जिससे बौद्ध धर्म ने हमारा परिचय कराया है या हिंदुओं की वह अवस्था, जो वेदांत के जरिए मिलती हैं...।' उन्होंने यहाँ तक कहा कि - 'अगर कभी भारत में हिंदू राष्ट्रवाद का उदय होता है, तो यह एक अपराध होगा। यहाँ भारतीय राष्ट्रवाद के विकास की कोशिश करनी चाहिए, जिसकी आत्मा हिंदुओं के करीब हो लेकिन वह मुस्लिम सभ्यता को भी अपने भीतर समाहित करता हो।'

17वीं सदी में जब यूरोपीय जातियों का आगमन शुरू हुआ और अँग्रेजों ने यहाँ अपना साम्राज्य स्थापित किया, उसके पहले की सदियों में हिंदू-मुस्लिमों ने सौहार्द्रपूर्ण ढंग से साथ रहना सीख लिया था, जिसे अँग्रेजों की स्वार्थलिप्सा ने सांप्रदायिक ढाँचे में ढाल देने में कोई कसर न छोड़ी। पूरे भारत पर अपना कब्जा जमाए रखने की दुराग्रही मानसिकता से वे पहले हिंदुओं का पक्ष लेते रहे। शासनिक-प्रशासनिक दायरों में उन्हें तवज्जो देते रहे, बाद को पाला बदलकर मुस्लिमों की ओर झुक गए। द्विराष्ट्रवाद की भावना को उभारकर देश को दो टुकड़ों में बाँट दिया। यह मुहिम केवल बँटवारे तक ही सीमित न थी, बल्कि उन्होंने भारतीय शिक्षा, संस्कृति, परंपरा व मूल्यों को भी अपनी दृष्टि से व्याख्यायित किया। संपूर्ण भारतीय ज्ञानकोष को अव्यावहारिक बताते हुए अपनी संस्कृति व मूल्यों को आरोपित करने की भरपूर कोशिश करते रहे। यही वह समय था जब भारतीय मध्यवर्ग पूरे जोशो-खरोश के साथ उभरकर सामने आया इसमें, अध्यापक, वकील, समाजसेवी और लेखक वर्ग प्रमुख था। इनके प्रतिकार की गूँज ने अँग्रेजों को हिलाया तो जरूर लेकिन वे अपने सभी मकसदों में कामयाब रहे, शिक्षा का मैकालेकरण करके, देश का बँटवारा करके और सबसे जहरीला प्रभाव जो डाला वह कि हिंदू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र के बीच धर्मांध कुसंस्कृति का रूढ़ पेड़ खड़ा करके। जिसकी जहरीली हवाएँ आज भी चल रही हैं। जिसने भारतीयता की सर्वसमावेशी संस्कृति को हिलाकर रख दिया। यह वैचारिक विभाजन आज की परिस्थितियों में सभी समस्याओं की जड़ में स्पष्ट दिखाई दे रहा है।

1880 से 1900 के पहले दशक तक यानी कि लगभग 1910-15 तक राष्ट्रवाद का वैचारिक अर्थ ही भिन्न था। इतिहासकार एरिक हॉब्सबाम ने 'एज ऑफ अंपायर' में लिखा कि - 'राष्ट्रवाद का वैचारिक व राजनीतिक आशय दक्षिणपंथी विचारधाराओं को मानने वाले समूहों का द्योतक बन गया था, जो विदेशियों के खिलाफ झंडा उठाने पर आमादा थे, वह उदारवादियों व समाजवादियों का विरोध करते और अपने राष्ट्र का आक्रामक विस्तार करना चाहते थे। इटली, फ्रांस और जर्मनी में इस तरह की प्रवृत्ति आम हो रही थी।'

भारतीय आंदोलन के उत्तरार्ध में, स्वाधीनता संघर्ष के साथ ही राष्ट्रवादी प्रवृत्ति हमारे देश में भी उभरकर आई। विमर्श का दौर उभरा जिसमें श्री अरविंद हो या महात्मा गांधी या गुरुदेव रवींद्र सभी इन खतरनाक प्रवृत्तियों के खिलाफ थे। यहाँ तक कि विवेकानंद और भगतसिंह जिन्हें आज भारतीय दक्षिणपंथ अपने आइकॉन मान रहा है, विवेकानंद ने शिकागो भाषण में ही कहा था कि - 'अगर कोई सोचता है कि एक धर्म के दूसरे धर्म पर विजय हासिल करने से एकता स्थापित होगी तो वह गलत है।' विवेकानंद बहुलता पर आधारित राष्ट्रवाद के समर्थक थे। उन्होंने कहा कि - 'हल पकड़े हुए किसानों की कुटिया से नए भारत का जन्म हो। मछुआरों के दिल से नए भारत का जन्म हो। मोची और भंगियों से नए भारत का उदय हो। पंसारी की दुकान से नए भारत का जन्म हो। बगीचों और जंगलों से उसे निकलने दो। पर्वतों और पहाड़ों से वो निकले।' विवेकानंद से संबंधित एक वाक्य जो उन्होंने 'एसेंशियल्स ऑफ हिंदुइज्म' में दर्ज की, का उद्धरण देना चाहूँगी, उन्होंने कहा - 'ये जो हिंदू शब्द है, जिसका आजकल हम फैशन की तरह इस्तेमाल करते हैं, अपने सारे अर्थ खो चुका है। ये शब्द सिंधु नदी के इस पार रहने वालों के लिए प्रयुक्त होता था।' विवेकानंद को जब हिंदू धर्म के अनुयायियों की बात करनी होती थी तब 'वैदिक' या 'वेदांतिक' शब्द का प्रयोग करते थे। ऐसा ही जवाहरलाल नेहरू ने भी कहा कि - 'अगर अमेरिका में भारतीयों को 'हिंदू' कहकर पुकारते हैं तो गलत नहीं करते, वे अगर 'हिंदी' का प्रयोग करें तो अधिक उचित होगा।' इसी प्रकार भगतसिंह का 'मैं नास्तिक हूँ' लेख गहराई से पढ़ने के बाद उन्हें संकीर्णता और दक्षिणपंथी धार्मिक कट्टरता के खाँचे में बैठाकर वैचारिक और राजनीतिक वैधानिकता का भ्रम किसी को भी नहीं होना चाहिए। हिंदू राष्ट्रवाद की मुहिम में जबरदस्ती शामिल कर लिए गए दो नाम विवेकानंद और भगतसिंह का सटीक विश्लेषण लोगों के बीच ले जाने की जरूरत है। ताकि जिस प्रकार उन्हें हिंदू राष्ट्रवाद का आइकॉन बनाकर इस्लाम के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है, उन झरोखों पर से परदा हट सके।

स्वाधीनता की पूरी लड़ाई जिस प्रेम और समर्पण के भाव से लड़ी गई, लाखों, करोड़ों कुर्बानियाँ दी गईं, द्विराष्ट्रवाद की माँग ने उस पूरी समर्पण भावना पर कालिख पोत दी। आज हिंदू-मुस्लिम को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा देख (राजनीतिक-वैचारिक परिप्रेक्ष्य में) यकीन ही नहीं होता कि ऐसी हवा कैसे चली कि - 'सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ता हमारा' लिखते-गाते मोहम्मद इकबाल मुस्लिम राष्ट्रवाद के हिमायती हो गए। 1905-08 के बीच वे पढ़ाई करने यूरोप गए और वापस लौटे तो पाकिस्तान की अवधारणा भी साथ लेकर लौटे। 1930 में मो. इकबाल के नेतृत्व में ही मुस्लिम लीग ने भारत विभाजन की माँग उठाई। 'द्विराष्ट्र' और 'पाकिस्तान की अवधारणा' के जनक के रूप में जाने गए। जिस मुहिम का परचम (1906-07 में 'ऑल इंडिया मुस्लिम लीग' की स्थापना के साथ ही) मो. जिन्ना और लियाकत अली खाँ ने बुलंद किया, तो इधर 1925 में केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा स्थापित 'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ' दोनों ही आजादी की लड़ाई में प्रत्यक्ष तौर पर शरीक न होने वाले संगठन थे। इस विषय पर बाबा अंबेडकर का कहा 'थॉट्स ऑफ पाकिस्तान' में बेहद सटीक है कि - 'जहाँ तक एक राष्ट्र बनाम द्विराष्ट्र के मुद्दे का प्रश्न है वहाँ सावरकर और जिन्ना में कोई विरोध नहीं है। उल्टे वे एक-दूसरे से पूरी तरह सहमत हैं, सहमत ही नहीं, बल्कि जोर देकर कहते हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं - एक हिंदू राष्ट्र और दूसरा मुस्लिम राष्ट्र...। उनका मतभेद सिर्फ इस मुद्दे पर है कि दोनों राष्ट्रों को किन शर्तों के अधीन रहना होगा।' यह वाक्य उनके लिए भी आईना होगा जो गांधी को बँटवारे का कारण मानते हैं।

इतिहास एक ऐसी इबारत है जहाँ पीछे जाकर कुछ मिटाया नहीं जा सकता, उनसे केवल सीख ली जा सकती है। गांधी जी ने आजादी मिलने के बाद ही कहा कि 'कांग्रेस की स्थापना आजादी की प्राप्ति के लिए हुई थी, अब उसका औचित्य नहीं।' लेकिन कांग्रेसियों ने नहीं माना। गांधीजी के अनुयायी यदि कांग्रेस के साथ-साथ वंदे मातरम्, भारत माता की जय चित्र, मूर्ति आदि का अध्याय भी वहीं खत्म कर देते तो..., यदि ऐसा हो सकता तो शायद पिछले छह दशकों से अधिक समय से जो हिंदू बनाम मुस्लिम का गुपचुप अस्मिता संग्राम चल रहा है, वह इतने खतरनाक अस्तित्व में न होता। कभी 'वंदे मातरम्' तो कभी 'भारत माता की जय' जैसे अपुष्ट-काल्पनिक प्रतीकों, मिथकों को राष्ट्र की अवधारणा के समक्ष रखकर उग्रतापूर्ण बयान आज राजनीतिक परिदृश्य का हिस्सा न बनते।

देश की धरती को माँ जैसा महत्व देना अलग बात है और उसे भारत जैसे बहुलतावादी राष्ट्र में किसी एक धर्म के प्रतीक से सीधे जोड़ देना बिल्कुल भिन्न। गौरतलब हो कि 1873 में 'भारत माता' नाटक में पहली बार भारत का माता के रूप में चरित्र चित्रण किरनचंद्र बंदोपाध्याय ने किया। 1882 में बंकिमचंद चट्टोपाध्याय ने 'वंदे मातरम्' गीत में देश को माँ का प्रतीक बताया और रवींद्रनाथ ने चार भुजाचारी दुर्गा से मिलता-जुलता चित्र बनाया, जिन्हें आज मिथक के रूप में पेश किया जा रहा है। पाश्चात्य जगत में जिस प्रकार से अमेरिका में कोलंबिया राष्ट्र की प्रतीक है। ब्रिटेन में ब्रिटेनिया, फ्रांस में मैरियन, न्यूजीलैंड में जीलैंडिया, इटली में इटालिया और स्वीडन में स्विआ है। यह पाश्चात्य राष्ट्रवादी अवधारणा की नकल का ही एक हिस्सा है। लेकिन वहाँ अमेरिका में ऐसी माँग नहीं उभरी कि कोलंबिया की जय का नारा न लगाने वाले को फाँसी दे देनी चाहिए!

बार-बार वेदों का जिक्र किया जाता है। मनुस्मृति जैसे रूढ़ ग्रंथ को प्रबंधन ग्रंथ के रूप में पढ़ाने की बात आती है, तो वेदों-वेदांतों के भीतर जाकर टटोलने की जरूरत है, ऐसी जोर-जबरदस्ती वेदांतों में नहीं मिलेगी। वेदकाल में व्यक्ति स्वातंत्र्य सबसे महत्वपूर्ण पक्ष था। मत-मतांतर की उपस्थिति थी तभी 'कुटुंब' शब्द का अविर्भाव हो सका। कुटुंब यानी परिवारों का समूह। अलग-अलग परिवार, अलग-अलग पद्धति, उनका समाहार करने की प्रवृत्ति वैदिक प्रवृत्ति है।

आज के परिवेश में जन्मी, पुनः उग्ररूप से उभरी राष्ट्रवादी बहस में एक बात याद रखना बेहद जरूरी है कि - भारत एक ऐसा राष्ट्र है जहाँ हर किसी को अपनी तरह से जीने और अभिव्यक्त करने का हक है। यह प्रगतिशील मूल्योंवाला राष्ट्र है अतीतजीवी नहीं। ऐसे समय में जब विचार, मूल्य और दुराग्रहों में घालमेल किया जा रहा हो, देश के बुद्धिजीवी वर्ग का उत्तरदायित्व उभरकर सामने आता है कि वह बैठकों से निकलकर बकौल जयशंकर प्रसाद - 'तोड़कर बंधन युगों का आज मानव आ रहा' और अपना वैचारिक हस्तक्षेप करे। यही भारतीय वैदिक परंपरा है जिसमें बौद्धिक वर्ग जिसमें लेखक सबसे पहले आता है, वह सच कहने से कभी नहीं हिचका। भवभूति ने 'उत्तर रामचरित' में जब राम पर प्रश्न उठाए तो उनका डटकर विरोध हुआ। परंपरावादी पंडितों ने कहा कि 'तुम्हारे साहित्य पर कोई नजर नहीं डालेगा।' वे रुके नहीं बल्कि खुद से ही निश्चय किया - 'उत्पत्स्यते मन तु कोपि समानधर्मा / कालोदद्र निरवधिर्विपुला च पृथ्वी' उन्हें विश्वास था कि आज नहीं तो कल मेरी बातों को, विचारों को समझने वाला वर्ग होगा। नालंदा बौद्ध विद्यापीठ के धर्मकीर्ति का उल्लेख भी जरूरी है जिन्होंने आत्मवादी सिद्धांत की खुलेआम भर्त्सना की।

अतीत को खोलना, भविष्य के निर्माण के लिए लाभकारी होता है, उसे वापिस लाने की जिद केवल उग्र विध्वंस को ही जन्म देती है। यदि स्थितियाँ ऐसी आएँ तो, यहीं से बुद्धिजीवियों की भूमिका किसी देश में प्रारंभ होती है, वे राजमार्गों की ओर मुँह फेरकर खड़े हो जाएँ, एक साथ... एकजुट।


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हिंदी समय में आरती की रचनाएँ