प्याज खाना मेरे लिए ठीक नहीं है। पहले तो इतनी तेज महक, ऊपर से आँख में आँसू
भी लाता है। जैसे-तैसे खा भी लूँ तो मुझे पचता नहीं है। अन्य कई दुष्प्रभाव भी
है। गला सूख जाता है और रात में बुरे-बुरे सपने आते हैं। एक बार प्याज खाकर
सोया तो देखा कि दस सिर वाली एक विशालकाय मकड़ी मुझे अपने जाल में लपेट रही
है।
एक अन्य बार जब प्याज खाया तो सपना देखा कि सड़क पर हर तरफ अफरातफरी मची हुई
है। ठेले वाले, दुकानदार आदि जान बचाकर भाग रहे हैं। सुना है कि माओवादियों की
सरकार बन गई है और सभी दुकानदारों और ठेला मालिकों को पूँजीवादी अनुसूची में
डाल दिया गया है। सरकारी घोषणा में उन्हें अपनी सब चल-अचल संपत्ति छोड़कर देश
से भागने के लिए 24 घंटे की मोहलत दी गई है। दो कमरे से अधिक बड़े मकानों को
उसमें रहने वाले शोषकों समेत जलाया जा रहा है। सरकारी कब्रिस्तान की लंबी
कतारों में अपनी बारी की प्रतीक्षा करते शांतचित्त मुर्दों के बीच की ऊँच-नीच
मिटाने के उद्देश्य से उनके कफन एक से लाल रंग में रंगे जा रहे हैं। रेल की
पटरियाँ, मंदिर-मस्जिद, गिरजे, गुरुद्वारे तोड़े जा रहे हैं। सिगार, हँसिए और
हथौड़े मुफ्त बँट रहे हैं और अफीम के खेत काटकर पार्टी मुख्यालय में जमा किए
जा रहे हैं। सभी किसान मजदूरों को अपना नाम पता और चश्मे के नंबर सहित पूरी
व्यक्तिगत जानकारी दो दिन के भीतर पोलित ब्यूरो के गोदाम में जमा करवानी है।
कितने ही बूढ़े किसानों ने घबराकर अपने चश्मे तोड़कर नहर में बहा दिए हैं कि
कहीं उन्हें पढ़ा-लिखा और खतरनाक समझकर गोली न मार दी जाए। आँख खुलने पर भी मन
में अजीब सी दहशत बनी रही। कई बार सोचा कि सुरक्षा की दृष्टि से अपना नाम
भगवानदास से बदलकर लेनिन पोलपोट जेडोंग जैसा कुछ रख लूँ।
पिछ्ली बार का प्याजी सपना और भी डरावना था। मैंने देखा कि हॉलीवुड की हीरोइन
दूरी शिक्षित वृंदावन गार्डन में "धक-धक करने लगा" गा रही है। अब आप कहेंगे कि
दूरी शिक्षित वाला सपना डरावना कैसे हुआ, तो मित्र सपने में वह अकेली नहीं थी।
उसके हाथ में हाथ डाले अरबी चोगे में कैनवस का घोड़ा लिए हुए नंगे पैरों वाला
एक बूढ़ा भी था। ध्यान से देखने पर पता लगा कि वह टोफू सैन था। जब तक मैं पास
पहुँचा, टोफू ने अपने साँप जैसे अस्थिविहीन हाथ से दूरी की कमर को लपेट लिया
था। दूरी की तेज नजरों ने दूर से ही मुझे आते हुए देख लिया था। किसी अल्हड़ की
तरह शरमाते हुए उसने उँगलियों से अपना दुपट्टा उमेठना शुरू कर दिया। वह कुछ
कहने लगी मगर पता नहीं शर्म के कारण या अचानक रेतीले हो गए उस बाग में फैलती
मुर्दार ऊँट की गंध की वजह से वह ऐसे हकलाने लगी कि मैं उसकी बात जरा भी समझ न
सका।
जब मैंने अपना सुपर साइज हीयरिंग एड लगाया तो समझ में आया कि वह अपने पति
फाइटर फेणे को तलाक देने की बात कर रही थी। मुझे गहरा धक्का लगा मगर वह कहने
लगी कि वह भारत की हरियाली और खुलेपन से तंग आकर टोफू के साथ किसी सूखे
रेगिस्तान में भागकर ताउम्र उसके पाँव की जूती बनकर सम्मानजनक जीवन बिताना
चाहती है।
"लेकिन फाइटर फेणे तो इतना भला है" मैं अभी भी झटका खाए हुए था।
"टोफू जैसा हैंडसम तो नहीं है न!" वह इठलाकर बोली।
"टोफू और सुंदर? यह कब से हो गया?" मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं थी, "उसके मुँह
में तो दाँत भी नहीं हैं।"
"यह तो सोने में सुहागा है" वह कुटिलता से मुस्कुराई।
मैं कुछ कहता कि श्रीमती जी बिना कोई अग्रिम सूचना दिए अचानक ही प्रकट हो गई।
मुझे तनिक भी अचरज नहीं हुआ। मुल्ला दो प्याजी सपनों में ऐसी डरावनी बातें तो
होती ही रहती हैं।
"दरवाजा बंद नहीं किया था क्या?" श्रीमती जी बहुत धीरे से बोली।
"फुसफुसा क्यों रही हो सिंहनी जी? तुम्हारी दहाड़ को क्या हुआ? गले में
खिचखिच?"
वे फिर से फुसफुसाई, "श्शशशश! आधी रात है और घर के दरवाजे भट्टे से खुले हैं,
इसका मतलब है कि कोई घर में घुसा है।"
अब मैं पूर्णतया जागृत था।
मैंने तकिए के नीचे से तमंचा उठाया और अँधेरे में ही बिस्तर से उठकर दबे पाँव
अपना कमरा और बैठक पार करके द्वार तक आया। छिपकर अच्छी तरह इधर-उधर देखा। जब
कोई नहीं दिखाई दिया तो दरवाजा बेआवाज बंद करके वापस आने लगा। इतनी देर में
आँखें अँधेरे में देखने की अभ्यस्त हो चुकी थी। देखा कि बैठक के एक कोने में
कई सूटकेस, अटैचियाँ आदि खुली पड़ी थी। काला कुर्ता और काली पतलून पहने एक
मोटे-ताजे पहलवान टाइप महाशय तन्मयता के साथ एक काले थैले में बड़ी सफाई से कुछ
स्वर्ण आभूषण, चाँदी के बर्तन और कलाकृति आदि सहेज रहे थे। या तो वे अपने काम
में कुछ इस तरह व्यस्त थे कि उन्हें मेरे आने का पता ही न चला या फिर वे बहरे
थे। अपने घर में एक अजनबी को इतने आराम से बैठे देखकर एक पल के लिए तो मैं
आश्चर्यचकित रह गया। आज के जमाने में ऐसी कर्मठता? आधी रात की तो बात ही क्या
है मेरे ऑफिस के लोगों को पाँच बजे के बाद अगर पाँच मिनट भी रोकना चाहूँ तो
असंभव है। और यहाँ एक यह खुदा का बंदा बैठा है जो किसी श्रेय की अपेक्षा किए
बिना चुपचाप अपने काम में लगा है। लोग तो अपने घर में काम करने से जी चुराते
हैं और एक यह समाजसेवी हैं जो शांति से हमारा सामान ठिकाने लगा रहे हैं।
अचानक ही मुझे याद आया कि मैं यहाँ उसकी कर्मठता और लगन का प्रमाण पत्र देने
नहीं आया हूँ। जब मैंने तमंचा उसकी आँखों के आगे लहराया तो उसने एक क्षण सहमकर
मेरी ओर देखा। और फिर अचानक ही खीसें निपोर दी। सभ्यता का तकाजा मानते हुए मैं
भी मुस्कराया। दूसरे ही क्षण मुझे अपना कर्तव्य याद आया और मैंने कड़क कर उससे
पूछा, "मुँह बंद और दाँत अंदर। अभी और इसी वक्त! दरवाजा तुमने खोला था?"
"जी जनाब! अब मेरे जैसा लहीम-शहीम आदमी खिड़की से तो अंदर आ नहीं सकता है।"
"यह बात भी सही है" उसकी बात सुनकर मुझे लगा कि मेरा प्रश्न व्यर्थ था। उसके
उत्तर से संतुष्ट होकर मैंने उसे इतना मेहनती होने की बधाई दी और वापस अपने
कमरे में आ गया। पत्नी ने जब पूछा कि मैं क्या अपने आप से ही बातें कर रहा था
तो मैंने सारी बात बताकर आराम से सोने को कहा।
"तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है। घर में चोर बैठा है और तुम आराम से
सोने की बात कर रहे हो। भगवान जाने किस घड़ी में मैंने तुमसे शादी को हाँ की
थी।"
"अत्ता मी काय करा?" ये मेरी आदत काफी अजीब है। जब मुझे कोई बात समझ नहीं आती
है तो अजाने ही मैं मराठी बोलने लगता हूँ।
"क्या करूँ? अरे उठो और अभी उस नामुराद को बाँधकर थाने लेकर जाओ।"
"हाँ यही ठीक है" पत्नी की बात मेरी समझ में आ गई। एक हाथ में तमंचा लिए दूसरे
हाथ में अपने से दुगुने भारी उस चोर का पट्ठा पकड़कर उसे जमीन पर गिरा दिया।"
उस रात मुझे लग रहा था कि मेरे हाथ से हिंसा हो जाएगी। यह आशा बिल्कुल नहीं थी
कि इतना भारी-भरकम आदमी कोई प्रतिरोध किए बिना इतने आराम से धराशायी हो जाएगा।
जब पत्नी ने विजयी मुद्रा में हमारे कंधे पर हाथ रखा तो समझ में आया कि बंदा
धराशायी नहीं हुआ था बल्कि उन्हें देखकर दंडवत प्रणाम कर रहा था।
"ममा, नहीं-नहीं दीदी!" जमीन पर पड़े उस पहलवान ने बनावटी रुदन के साथ जब
श्रीमती जी को चरण स्पर्श किया तो मुझे उसकी धूर्तता स्पष्ट दिखी।
"मैं आपकी शरण में हूँ ममा, नहीं, नहीं... मैं आपकी शरण में हूँ दीदी!" मुझ पर
एक उड़ती हुई विजयी दृष्टि डालते हुए वह शातिर चिल्लाया, "कई दिन का भूखा हूँ
दीदी, थाने भेजने से पहले कुछ खाने को मिल जाता तो... पुलिस वाले भूखे पेट
पिटाई करेंगे तो दर्द ज्यादा होगा।"
मैं जब तक कुछ कहता, श्रीमती जी रसोई में बर्तन खड़खड़ कर रही थी। उनकी पीठ
फिरते ही वह दानव उठ बैठा और तमंचे पर ललचाई दृष्टि डालते हुए बोला, "ये
पिस्तॉल मुझे दे दे ठाकुर तो अभी चला जाऊँगा। वरना अगर यहीं... "जैसे ही उसने
श्रीमतीजी को रसोई से बाहर आते देखा, बात अधूरी छोड़कर दोनों हाथ जोड़कर मेरे
सामने सर झुकाए घुटने के बल बैठकर रोने लगा।
"मुझे छोड़ दो! इतने जालिम न बनो! मुझ गरीब पर रहम खाओ।" पत्नी के बैठक में आते
ही रोंदू पहलवान का नाटक फिर शुरू हो गया।
"इनसे घबराओ मत, यह तो चींटी भी नहीं मार सकते हैं। लो, पहले खाना खा लो"
माँ अन्नपूर्णा ने छप्पन भोगों से सजी थाली मेज पर रखते हुए कहा, "मैं मिठाई
और पानी लेकर अभी आई।"
"दीदी मैं आपके पाँव पड़ता हूँ, मेरी कोई सगी बहन नहीं है..." कहते-कहते उसने
अपने घड़ियाली आँसू पोंछते हुए जेब से एक काला धागा निकाल लिया। जब तक मैं कुछ
समझ पाता, उसने वह धागा अपनी नई दीदी की कलाई में बाँधते हुए कहा, "जैसे
कर्मावती ने हुमायूँ के बाँधी थी वैसी ही यह राखी आज हम दोनों के बीच कौमी
एकता का प्रतीक बन गई है।"
"आज से मेरी हिफाजत का जिम्मा आपके ऊपर है" मुझे नहीं लगता कि श्रीमती जी उसकी
शरारती मुस्कान पढ़ सकी थी। मगर मेरी छाती पर साँप लोट रहे थे।
"फिकर नास्ति। शरणागत रक्षा हमारा राष्ट्रीय धर्म और कर्तव्य है" श्रीमती जी
ने राष्ट्रीय रक्षा पुराण उद्धृत करते हुए कहा।
"कल रात एक सफेद कमीज यहाँ टाँगी थी, तुमने देखी क्या?" सुबह दफ्तर जाते समय
जब कमीज नहीं दिखी तो मैंने श्रीमती जी से पूछा।
"वह तो भैया ले गए।"
"भैया? भैया कब आए?"
"केके कस्साब भैया! कल रात ही तो आए थे। जिन्होंने राखी बाँधी थी।"
"मेरी कमीज उस राक्षस को कहाँ फिट आएगी?" पत्नी को शायद मेरी बड़बड़ाहट सुनाई
नहीं दी। जल्दी से एक और कमीज पर इस्त्री की। तैयार होकर बाहर आया तो देखा कि
ट्रिपल के भैया मेरी कमीज से रगड़-रगड़कर अपने जूते चमका रहे थे। मैं निकट से
गुजरा तो वह बेशर्मी से मुस्कराया, "ओ हीरो, तमंचा देता है क्या?"
मेरा सामान गायब होने की शुरुआत भले ही कमीज से हुई हो, वह घड़ी और ब्रेस्लैट
तक पहुँची और उसके बाद भी रुकी नहीं। अब तो गले की चेन भी लापता है। मैंने
सोचा था कि तमंचे की गुमशुदगी के बाद तो यह केके कस्साब हमें बख्श देगा मगर वह
तो पूरी शिद्दत से राखी के पवित्र धागे की पूरी कीमत वसूलने पर आमादा था।
शाम को जब दफ्तर से थका-हारा घर पहुँचा तो चाय की तेज तलब लगी। रास्ते भर
दार्जीलिंग की चाय की खुश्बू की कल्पना करता रहा था। अंदर घुसते ही ब्रीफकेस
दरवाजे पर पटककर जूते उतारता हुआ सीधा डाइनिंग टेबल पर जा बैठा। रेडियो पर
"हार की जीत" वाले पंडित सुदर्शन के गीत "तेरी गठरी में लागा चोर..." का
रीमिक्स बज रहा था। देखा तो वह पहले से सामने की कुर्सी पर मौजूद था। सभ्यता
के नाते मैंने कहा, "जय राम जी की!"
"सारी खुदाई एक तरफ, केके कसाई एक तरफ" केके कसाई कहते हुए उसने अपने सिर पर
हाथ फेरा। उसके हाथ में चमकती हुई चीज और कुछ नहीं मेरा तमंचा ही थी।
"खाएगा हीरो?" उसने अपने सामने रखी तश्तरी दिखाते हुए मुझसे पूछा।
"राम-राम! मेरे घर में ऑमलेट लाने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी?" तश्तरी पर
नजर पड़ते ही मेरा खून खौल उठा।
"दीदी..." वह मेरी बात को अनसुनी करके जोर से चिल्लाया।
जब तक उसकी दीदी वहाँ पहुँचती, मैंने तश्तरी छीनकर कूड़ेदान में फेंक दी।
"मेरे घर में यह सब नहीं चलेगा" मैंने गुस्से में कहा।
"मैंने तो आपके खाने को कभी बुरा-भला नहीं कहा, आप मेरा निवाला कैसे छीन सकते
हैं?"
"भैया, मैं आपके लिए खाना बनाती हूँ अभी..." बहन ने भाई को प्यार से समझाया।
"मगर दीदी, किसी ग्रंथ में ऑमलेट को मना नहीं किया गया है" वह रिरिआया, "बल्कि
खड़ी खाट वाले पीर ने तो यहाँ तक कहा है कि ऑमलेट खाने में कोई बुराई नहीं
है"।
"ऑमलेट का तो पता नहीं, मगर अतिथि सत्कार का आग्रह हमारे ग्रंथों में अवश्य
है" कहते हुए श्रीमती जी ने मेरी ओर इतने गुस्से से देखा मानो मुझे अभी पकाकर
केकेके को खिला देंगी।
चाय की तो बात ही छोड़िए उस दिन श्रीमान-श्रीमती दोनों का ही उपवास हुआ।
मैं अपने ही घर से "बड़े बेआबरू होकर..." गुनगुनाता हुआ जब दरी और चादर लेकर
बाहर चबूतरे पर सोने जा रहा था तब चाँदनी रात में मेरे घर पर सुनहरी अक्षरों
से लिखे हुए नाम "श्रीनगर" की चमक श्रीहीन लग रही थी।