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व्याख्यान

यात्रा, यात्री और वृत्तांत

गगन गिल


मैं सेंट थॉमस कॉलेज, प्रोफेसर वनजा, प्रोफेसर मोहनन, प्रोफेसर शीना एप्पन की आभारी हूँ, जिन्होंने आप सब के बीच मुझे उपस्थित होने का मौका दिया। यात्रा-वृत्तांतों पर बात करनी हो और God's Own Country में आने का मौका हो, तो कौन हाथ से जाने देगा!

मैंने जब पढ़ा, केरल में 44 नदियाँ हैं, तो बेहोश होते-होते बची। हमारी दिल्ली में एक ही नदी है, यमुना जी, जिसे हम सब ने अपनी लापरवाही से गंदे नाले जैसा कर रखा है, फिर भी कभी पुल से गुजरती हूँ, तो नीचे झाँकती हूँ। अच्छा लगता है। कभी भगवान कृष्ण उनके तट पर खेला करते थे।

आपके यहाँ तो बरकत ही बरकत है। द्वारका नगरी डूबने लगी, तो श्रीकृष्ण ने वायु देव और गुरु बृहस्पति को बुला कर कहा, मुझे दक्षिण ले चलो। उस स्थान का नाम पड़ा - गुरुवायूर। जीसस की मृत्यु के बाद शिष्यों को मुश्किल होने लगी तो सेंट थॉमस की नौका आपके यहाँ आ कर लगी।

अब देखिए, ईश्वर की इस नगरी में हम कैसे मगन बैठे हैं।

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करीब 20 बरस पहले मेरा कोच्चि आना हुआ था। एक लेखक मित्र ने अखिल भारतीय कोई आयोजन किया था। उसके बाद मैं जब कन्याकुमारी जाने लगी, तो वह बहुत चिंतित हुए। बोले, यहाँ हर मलयाली ने कम से कम तीन रेप कर रखे हैं, सँभल कर रहना! बात झूठी थी पर वे आँकड़ों में बात करते थे। बाद में मैंने जाना, अकेली कोई महिला यात्रा कर रही हो तो जाने-अनजाने सब पुरुष ऐसी ही बातें करते हैं। गार्जियन बन कर।

कन्याकुमारी मैं ट्रेन से गई। रास्ते में दो रेल पुलिस वाले मेरी चिंता करने लगे। किसी तरह झूठी कहानियाँ गढ़-गढ़ कर मैंने उनसे जान छुड़ाई। कहा, मेरे पति और बच्चे वहाँ मिलेंगे। वगैरह वगैरह। रात को अरब सागर के किनारे जाकर बैठी, तो एक साइकिल सवार ने दूर से देखा, वह औरत मरने जा रही है। वह मुझे बचाने आ पहुँचा। सच कहती हूँ, उससे पहले तक मेरी ऐसी कोई मंशा न थी। लेकिन उसके जाते ही जरूर मन हुआ, समुद्र में डूब कर देखूँ!

आप लोगों ने कॉन्फ्रेंस का एक सत्र रखा है, क्या महिला यात्री अलग तरह से देखती हैं? मैं बहुत उत्सुक हूँ उसे सुनने के लिए। महिला यात्री अलग तरह से देखती है कि नहीं, यह तो आप लोग बताएँगे, पर उसे दूसरे सब अलग नजर से देखते हैं, यह मैं कह सकती हूँ। देश हो या विदेश, ऐसा कभी नहीं हुआ कि मुझे कोई गार्जियन न मिला हो। अगर कोई महिला सचमुच अकेली हो कर यात्रा कर सके, तो वह सार्वजनिक अभिनंदन करने योग्य है!

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यात्रा करने का सबसे बड़ा आनंद यही है। आप अनजान लोगों की कहानियाँ सुनते हैं, वे आपकी। कितनी तसल्ली रहती है, उनसे फिर कभी मिलना नहीं होगा। उन्हें कभी आपके झूठ-सच का पता नहीं चलेगा। हर आदमी बड़ा नहीं तो छोटा एडवेंचर तो कर ही सकता है!

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कभी-कभी हम सब के भीतर एक अंधड़ उठता है। बेघर हो जाने का मन करता है। हम अपने से कहते हैं - चले जाना है, कहीं दूर चले जाना है।

कुछ मालूम नहीं होता, कहाँ जाना है? किसे छोड़ना है? किसी खतरे का होश नहीं रहता। न उसकी कोई परवाह।

ये गूँज इस तरह जब-तब हमारे भीतर क्यों उठती है?

हजारों बरस पहले, जिस दिन मनुष्य ने पहले-पहल आग जलाई होगी, फिर अपनी कुटिया, खेत और खूँटा बाँधा होगा, उसके घुमंतू मन का एक हिस्सा बाहर छूट गया होगा। आसमान के नीचे, किसी नदी-पर्वत के पास।

वही हमारा पुरातन मन जब-तब लौटता है। कहता है, कहीं दूर चले जाना है।

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यात्रा करना एक बात है, उसके बारे में वृत्तांत लिखना दूसरी। मैं इस व्याख्यान में इन्हें अलग-अलग रखना चाहती हूँ। यात्रा, यात्री और वृत्तांत।

हमें इनका अंतर समझ लेना चाहिए। महान यात्राएँ करना और उनका वृत्तांत लिखना - ये अलग-अलग चीजें हैं।

यह संसार हर समय कुछ कहता है। 'In the begining was the word and the word was with God...' यह तो आपको याद होगा?

मनुष्य ने भाषा बनाई ही इसलिए होगी कि वह दूसरे को अपना आश्चर्य बता पाए! इस पृथ्वी पर होने का।

हमारे आस-पास अब इतना शोर है कि सिर्फ यात्रा के दौरान हमें वह मद्धिम सी आवाज सुनाई पड़ती है, आदिम सृष्टि की। कैसी भी यात्रा हो, किसी खंडहर की, अनजान देश की, समुद्र-पर्वत या जंगल-झरने की - हर यात्रा में एक बिंदु आता है, जब यात्री अपने भीतर एक स्पंदन महसूस करता है, सृष्टि की बुदबुदाहट।

लेकिन हर कोई उसे नहीं कह पाता। जो कह पाता है, वही लेखक है। इसलिए ये तीनों चीजें अलग हैं - यात्रा, यात्री, लेखक। अगर आप अपने जीवन में सिर्फ एक काम कर पाएँ, यात्रा, तो भी वह काफी है।

दरअसल जितना यह धरती, इसकी धुरी हमें अपनी ओर खींचती है, उससे कहीं ज्यादा ऊपर की चीजें - आसमान, हवा, चिड़िएँ, स्वर्ग की कल्पनाएँ। जिसने भी हवाई जहाज बनाया, चिड़िया की तरह उड़ने के लिए था। वह जमीन और जल पर सबसे तेज भागेगा, यह बाद में पता चला।

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एक निजी अनुभव बताना चाहती हूँ। यहाँ मॉरीशस से आए हमारे मेहमान बैठे हैं। कई बरस पहले, उनके सुंदर देश मेरा जाना हुआ था, किसी प्रतिनिधि मंडल में। सारा सप्ताह समुद्र तट के साथ आते-जाते मैं हिंद महासागर के ऊपर गुब्बारे में बँधे आदमी देखती रही, उड़ते हुए।

कैसी बेचैनी थी। मैं सभाओं में बैठी थी और वहाँ आसमान में आदमी उड़ रहे थे!

सौभाग्य से आखिरी दिन पैरासेलिंग करने का मेरा संयोग हुआ। उन्होंने मुझे खुले गुब्बारे जैसी किसी पाल के साथ बाँध, रस्सी से, समुद्र के ऊपर लहरा दिया। एक तेज रफ्तार नौका से मैं बँधी थी। मैं ऊपर उठती गई, पतंग की तरह। शायद सौ-डेढ़ सौ मीटर ऊपर।

वहाँ कुछ न था, न ऊपर, न नीचे - न स्वर्ग, न देवता। केवल पारदर्शी हवा का समुंदर, उसके रंगहीन भँवर। वे मुझे वैसे ही खींच रहे थे, डुबोते हुए, जैसे जल के भँवर।

जो आदमी नीचे से हवा में मजे करता दिखता था, ऊपर डर के मारे मरा जा रहा था।

अगर आपने आइजैक डाइनेसन की किताब 'आउट ऑफ अफ्रीका' पढ़ी हो तो उसमें ऐसा ही एक वाकया है। वह उड़ान से लौटती है तो उसका सेवक पूछता है, 'ऊपर क्या था?' 'हवा।' 'उसके ऊपर?' ' बादल' 'और ऊपर?' वह बताती जाती है। 'क्या वहाँ ईश्वर दिखा था?' वह कहती है, नहीं। 'फिर उड़ने का क्या फायदा?'

मैं यही सोचती हुई धरती पर लौटी।

विडंबना देखिए, लौटते ही पता चला, वहीं, उसी तट पर, नीचे जाकर, समुद्र के धरातल पर चला जा सकता था, बॉडी सूट और ऑक्सीजन मास्क पहन कर!

जिज्ञासा का कोई अंत नहीं।

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समुद्र के धरातल से और नीचे जाएँ, तो वहाँ भी कुछ होता होगा?

बीबीसी का एक प्रोजेक्ट है - 'जर्नी टू द सेंटर ऑफ अर्थ'। अभी कुछ दिन पहले मैं यों ही उसे देखते-देखते नीचे चली गई। धरती के पेट में। लगभग केंद्र तक। नक्शा कह रहा था, इस वक्त आप इतना नीचे आ गए, यह देख रहे हैं, वह देख रहे हैं। इस समय आपके सिर पर इतने हाथियों का भार है। दो हाथी, दो हजार, दस हजार हाथी।

मैं नीचे उतरती गई। अब करीब पचास हजार हाथियों का भार मेरे सिर पर था। मैं करीब 5,000 किलोमीटर धरती के अंदर थी। अचानक नक्शे ने मुझे बधाई दी। 'अब आप धरती के केंद्र तक आ पहुँचे हैं, चारों दिशाएँ आपको अपनी तरफ खींच रही हैं, इस वक्त आप बिलकुल भारहीन हैं।'

इससे पहले कि मैं खुश होती, नक्शा झिपझिपाया, 'बहुत खुश न हों, इस वक्त यहाँ का तापमान छह हजार डिग्री सेल्सियस है, आप कब के राख हो चुके हैं!"

हँसी की बात नहीं। आप इंटरनेट पर इसे देख सकते हैं।

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जहाँ हम जा नहीं सकते, वहीं क्यों जाना चाहते हैं?

पहले चाँद, अब मंगल। सुना है, कई लोगों ने एकतरफा टिकट बुक कराई है! उन्हें यहाँ लौटने की कोई इच्छा नहीं।

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कोई हमें छिप-छिप कर देखता जरूर है। दूर ग्रह का प्राणी, कोई खंडहर, कोई पुरखा। लगातार बुलाता रहता है। जब तक हम जूते न बाँध लें, आसमान के नीचे न आ जाएँ।

रॉबिन्सन क्रूसो तो आपको याद होगा? निर्जन द्वीप पर बह आया डूबा नाविक। और गुलीवर की यात्राएँ, लिलिपुट, राक्षस?

हमारे बचपन की दुनिया को ये वृत्तांत कैसे भरे रहते थे। यदि हमारी दुनिया में सचमुच वैसे लोग न होते, हमारे बड़े, यदि हम सचमुच बौनों जैसे उत्सुक बच्चे न होते, तो क्या ये कथाएँ हमारे मन में इसी तरह रहतीं?

यात्राएँ लिखने के लिए नहीं की जातीं। बल्कि कई बार इसलिए लिखी जाती हैं कि वे लेखक की आकांक्षा में जन्म लेती हैं। विभूतिभूषण ने जो उपन्यास लिखा था, चांदेर पहाड़, अफ्रीका के जंगलों के बारे में, कोरी कल्पना से लिखा था, बंगाल के जंगलों में बैठे हुए।

जो यात्राएँ इसलिए की जाती हैं, कि कभी उनके बारे में लिखेंगे, हमेशा बेहतरीन नहीं बन पातीं, हालाँकि इधर के वर्षों में इसके अपवाद हैं - वी एस नायपॉल की भारत पर पुस्तकें, अमिताभ घोष का इजिप्ट पर संस्मरण, दुनिया के विविध कोनों से लिखे पीको आयर के रिपोर्ताज।

और हमारे अपने कृष्णनाथ, जिन्होंने हिमालय के बौद्ध जगत पर महत्वपूर्ण वृत्तांत लिखे। नागार्जुनकोंडा लिखा। अभी दो सप्ताह पहले उनका 80 बरस की उम्र में निधन हो गया। बैंगलौर में।

यात्रा-वृत्तांत को समर्पित इस आयोजन में मैं आप सब के साथ कृष्णनाथ जी की पुण्य स्मृति को नमन करती हूँ।

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इतिहास गवाह है, ह्वेन त्सांग का वृत्तांत हो या अल बरूनी का, मार्को पोलो, साँ एक्जुपरी, या एलेक्जेंडरा डेविड नील का। इन में से किसी ने लिखने के उद्देश्य से यात्राएँ नहीं कीं।

यात्राएँ केवल 'देखने' के लिए की जाती हैं।

कोई चीज, कोई स्थान, कोई प्राचीन स्मृति हममें कौंधती है और हम निकल पड़ते हैं - केदारनाथ-बद्रीनाथ देखने, बनारस की गंगा में डुबकी लगाने, गुरुवायूर, कन्याकुमारी, रामेश्वरम पहुँचने।

कोई यात्री कभी पूरा वापस घर नहीं लौटता। थोड़ा सा अपना अंश उस स्थान पर छोड़ आता है।

सदियों बाद हम उस स्थान पर जाते हैं, तो हमें पता होता है, यहाँ राम रुके थे, गिलहरी को छुआ तो उसमें लहरियाँ पड़ गई थीं। नालंदा के इस खंडहर में कभी ह्वेन त्सांग चला करते थे। इस तट पर सेंट थॉमस की नाव आ लगी थी, गुरुवायूर में। ब्राह्मणों की तरह उन्होंने भी ईश्वर को जल भेजा, फिर ईश्वर ने उनका जल पकड़ लिया, बूँदें हवा में अटकी रह गई थीं।

यात्री के साथ, उस स्थान के साथ, पाठक का अनवरत संवाद चलता रहता है। सदियों पार से।

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मार्को पोलो को चीन के राजा कुबलाइ काह्न के यहाँ बिताए 24 बरस वेनिस के कारावास में याद आए थे। एक साथी कैदी को वह अपनी आपबीती सुनाया करते थे, उसी ने उनकी यात्रा लिखी थी, बीच में अपना भी बहुत कुछ जोड़ दिया।

यही सांस्कृतिक यात्रा है, दूसरे की आपबीती में अपना भी थोड़ा सा कुछ जोड़ देना।

साँ एक्जुपरी बीसवीं सदी के शुरुआती उड़ाकू चालकों में थे। कहते हैं, विमान उड़ाते हुए वह लिखने लग जाते थे, भूल जाते थे, हवा में अकेले हैं। उनके लेखन में हमें आसमान के, सितारों के, रेगिस्तान के अद्भुत वर्णन मिलते हैं। उनकी एक पुस्तक का नाम ही है - Wind, Sand and Stars। एक बार क्रैश हो कर वह सहारा रेगिस्तान में जा गिरे। बड़ी मुश्किल से बचे। दूसरी बार समुद्र में गिरे, लाश तक नहीं मिली।

बीसवीं सदी की शुरुआत में फ्रांस की एलेक्जेंडरा डेविड नील। वह सिक्किम में और फिर वहाँ से तिब्बत पैदल सिर्फ इसलिए चलती गईं क्योंकि वहाँ विदेशियों का जाना निषिद्ध था। उन्होंने भोटी सीखी, उड़ने वाले लामाओं के साथ रहीं, खुद भी तंत्र से उड़ना सीखा। अपने सब कारनामे चिट्ठियों में पति को लिखती रहीं, जो बाद में छपे। पति बेचारे फ्रांस में बैठे उनकी राह तकते रहे। उन्नीस महीने की यात्रा का कह कर गईं थीं, 14 साल बाद लौटीं!

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जो व्यक्ति यात्रा के लिए निकलता है, वह वही नहीं, जो उस यात्रा से लौटता है।

जरूरी नहीं, वह अपना संपूर्ण अनुभव लिख ही पाए। और मानवीय अनुभव - वह है भी तो बहुत जटिल। स्मृति कितनी धीरे-धीरे अपनी परतें खोलती है। कभी एक कोने पर रोशनी पड़ती है, कभी दूसरे पर। हमें पता नहीं होता, हमारे अंदर क्या-कुछ भरा पड़ा है। यात्री स्वयं ऊपरी-बाहरी ब्योरे लिखता है और कोई दूसरा उसकी यात्रा की आंतरिक प्रक्रिया। फिर सदियों बाद हम दोनों ब्योरों को पढ़ कर उस व्यक्ति की एक मुकम्मिल तसवीर बनाते हैं।

मैं जानती हूँ, यहाँ आने वाले तीन दिनों में बड़े विचारोत्तेजक विमर्श होने वाले हैं। हम कई तरह के वृत्तांतों की बात करेंगे, कई दुनिआओं में आएँगे-जाएँगे। यहाँ हिंदी, अँग्रेजी, मलयालम के विद्वान-विदुषियाँ बैठे हैं। नई-नई बातें जानने को मिलेंगी। मैं आपके साथ एक-दो ऐतिहासिक वृत्तांतों की चर्चा करके इस प्रक्रिया को समझना चाहती हूँ - ये जो हमारी दुनिया है, मूर्त-अमूर्त, पुस्तकों-इंटरनेट से भरी, इसमें ये वृत्तांत क्या एक-दूसरे से जुड़ते हैं?

मेरा मानना है, ठीक उस समय जब हमारी एक दुनिया मिट रही होती है, कहीं दूर कोई दूसरा यात्री उसे बचाने निकल चुका होता है!

वृत्तांत सिर्फ स्मृतियाँ नहीं हैं, एक मिटती जाती दुनिया का अभिलेखन हैं।

जैसा किसी कवि ने कहा है - 'हाथों में पता नहीं रबड़ है कि पेंसिल है, जितना भी लिखता हूँ, उतना ही मिटता है।'

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सबसे पहले चीनी यात्री ह्वेन त्सांग।

सातवीं शताब्दी के उनके यात्रा-वृत्तांत में अधिकतर राजनीतिक ब्योरे हैं। वृत्तांत उनके चीनी राजा के ज्ञानवर्धन के लिए लिखा गया था, राजा की रुचि जिस तरह की कूटनीतिक जानकारियों में हो सकती थी, ज्यादातर इसी सब का ब्योरा वहाँ है, जब तक कि ह्वेन त्सांग चीन देश पार नहीं कर लेते।

भारत आने पर ह्वेन त्सांग के विवरण तीर्थ-यात्री के हो जाते हैं। उनका राजा बौद्ध था। यहाँ का हर्ष राजा कुंभ पर अपना सारा कोष दान कर देता था, फिर दोबारा उसे अर्जित करता था, हिंदू-बौद्ध प्रजा को एक समान रखता था, इस सब का वर्णन वह बड़े कौतुक से करते हैं।

यात्री ह्वेन त्सांग के व्यक्तिगत कष्टों की कोई जानकारी हमें उनके वृत्तांत में नहीं मिलती। न उनके मन का हवाला। जाहिर है, जिस के लिए लिख रहे थे, उसकी रुचि उनके कष्टों में न थी!

वह यात्रा कैसी उत्कटता में से निकली थी, इसका पता हमें उनके शिष्य द्वारा लिखी उनकी जीवनी से चलता है। बौद्धों के एक ग्रंथ योगाचार में मिलावट थी। संस्कृत में उसे पढ़ते हुए ह्वेन त्सांग ने महसूस किया। कैसे किया?

इसका थोड़ा-सा अनुमान चार सौ साल बाद लिखी अल बरूनी की एक टिप्पणी से मिल सकता है। जरा देखिए, कैसे एक वृत्तांत दूसरे का अनकहा समझने में हमारी मदद करता है!

अल बरूनी दर्ज करते हैं - 'हिंदू अपनी पुस्तकें याद रखने के लिए उन्हें छंद में लिखते हैं।"

तब क्या ह्वेन त्सांग को छंद की बुनावट में, उसके उच्चारण में कोई अंतर मिला था? उसकी किरकिरी से उन्हें इतनी बेचैनी हुई थी?

शिआन के मठ में, जिसे हम आज टेराकोटा आर्मी वाले नगर की तरह जानते हैं, उन्होंने संस्कृत सीखी थी। चीनी मठ में भारतीय गुरु वहाँ पढ़ाते थे!

कल्पना कीजिए, सातवीं सदी में भारतीय संस्कृति के प्रसार का। ह्वेन त्सांग योगाचार का मूल ग्रंथ देखना चाहते थे, उसमें कितने श्लोक हैं, आदि। जब चीन में अकाल की भुखमरी फैली, लोग शहर छोड़ कर जाने लगे, चौबीस बरस के ह्वेन त्सांग ने सोचा, शहर छोड़ कर जाना ही है तो भारत क्यों न चला जाऊँ।

रास्ता आसान न था। बीच में गोबी रेगिस्तान। अफ्रीका के सहारा जैसा दुरूह, कंकालों से पटा हुआ। दूर-दूर छितरी रियासतें। कोई बौद्ध, कोई तुर्की। कहीं-कहीं चीनी राजाओं की भारतीय रानियाँ। जीता-जागता रेशम मार्ग। ऊँटों के काफिले।

बूढ़े ह्वेन त्सांग अपने शिष्य हुइली को अपनी गाथा सुनाते हैं। वह उसे दर्ज करता है। तब हमें पता चलता है, एक दिन ह्वेन त्सांग प्यास से मरने वाले थे रेगिस्तान में। उनका घोड़ा बेहोशी की हालत में उन्हें गोबी के एक नखलिस्तान तक पहुँचा कर स्वयं मर गया।

आगे पहुँचे तो एक राजा उनकी विद्वता पर ऐसा मुग्ध हुआ कि कैद कर दिया, भारत न आने दे। तब ह्वेन त्सांग ने भूख हड़ताल की। वहाँ से छूटे, राजा के उपहारों से लक-दक, तो रास्ते में डाकुओं का हमला। समरकंद होते हुए बामियान। जो विशालकाय बुद्ध अभी कुछ बरस पहले अफगानिस्तान में बारूद से उड़ाए गए थे, इन्हें ह्वेन त्सांग ने देखा था। इनका जिक्र वह करते हैं।

फिर कंधार में पर्वत की गुफा का दर्शन, जहाँ महात्मा बुद्ध की छाया का पहले-पहल चित्रण हुआ था। कहते हैं, ऐसे तेजस्वी थे बुद्ध कि कोई चित्रकार उनके मुखमंडल का सामना न कर पाता। एक सुबह वह गुफा के द्वार पर आए तो उनकी अनुमति से शिष्यों ने दीवार पर गिरती उनकी छाया का चित्रण किया। ह्वेन त्सांग बुद्ध के निर्वाण के 1200 बरस बाद वहाँ पहुँचे, तब तक कंधार की उस गुफा में यह चित्र मिलता था।

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मैं आपको ह्वेन त्सांग की यात्रा के काल के चक्के में घुमाना चाहती हूँ, जहाँ कुछ भी स्थिर नहीं। इससे हमें समझ में आएगा कि हम जो देखते हैं, यात्राओं में, जिसके बारे में पढ़ते हैं, वह हर पल बदल रहा होता है।

कुछ माह ह्वेन त्सांग कश्मीर में रहे, पंडितों के साथ संस्कृत ग्रंथों की पढ़ाई। फिर मथुरा, इलाहाबाद का कुंभ, नालंदा। पहले शिष्य, फिर अध्यापक।

नालंदा पहुँचे तो चार द्वार। चारों पर पहरा। अपने समय का महान गुरुकुल, दूर-दूर से आए दस हजार विद्यार्थी जहाँ पढ़ते थे। जहाँ द्वार पार करने की अनुमति से पहले आचार्य परीक्षा लेता था!

प्रहरी उन्हें भीतर न जाने दें। जैसा आज भी कॉलेज-युनिवर्सिटी में होता है।

नालंदा के कुलाधिपति, आज की शब्दावली में कहें तो चांसलर, आचार्य शीलभद्र तक समाचार पहुँचा तो उन्होंने बुलवाया। देखा, यह तो वही विदेशी है, जिस का पूर्वाभास उन्हें स्वप्न में मिला था! यह बौद्ध धर्म का संदेश दूर-दूर तक पहुँचाएगा।

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जरा देखिए, ह्वेन त्सांग की यात्रा कितने स्तरों पर चल रही है - भूगोल की दुरूहता में, तुर्क-मंगोलों की मार-काट में, उनकी देह के कष्टों में, एक ग्रंथ की तलाश में, अपने समय के एक बड़े मनीषी के स्वप्न में!

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हर यात्रा के इतने ही बहुल पक्ष होते हैं। बस पात्र बदल जाते हैं। जिज्ञासा बदल जाती है। कोई खंडहर देखने निकलता है, कोई ग्रंथ लेने, कोई किसी दिग्विजयी यात्रा के समूह में।

क्या कोई एक वृत्तांत एक यात्रा के इतने सारे पक्षों के साथ न्याय कर सकता है?

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अब हमारे दूसरे यात्री - अल बरूनी। मध्यकालीन युग के सबसे बडे इसलामी इतिहासकार, खगोलशास्त्री, भाषाविद।

जैसा कि मध्ययुग का चलन था, शाही दरबारों में कलाकारों, विद्वानों की कद्र होती थी। दरबारी होने का मतलब था, उस राज्य में अपनी प्रतिभा में सबसे श्रेष्ठ होना। अकबर के यहाँ नवरत्न थे, आप जानते ही हैं।

अल बरूनी अपने देश ख्वारेज्म, अब उज्बेकिस्तान, के दरबारी विद्वान थे। उनके राजा का तखता पलटा तो वह बंदी बना लिए गए, लेकिन जल्द ही नए राजा ने उनकी प्रतिभा पहचानी और वह फिर से दरबारी बना दिए गए। अब वह राज ज्योतिषी थे और राजा के आधिकारिक इतिहासकार।

जानते हैं, नया राजा कौन था? महमूद गजनवी! सोमनाथ का मंदिर लूट कर, स्त्रियों-पुरुषों को घोड़ों के पीछे बाँध कर दास बना ले जाने वाला बर्बर राजा। उसने भारत पर कुल सत्रह हमले किए। सन 1024 में सोमनाथ पर उसका सोलहवाँ हमला था।

अल बरूनी गजनवी के साथ उसके पहले हमले के समय भारत आए, 1017 में, उसकी 'यश-गाथा' का इतिहास लिखने। गजनवी कन्नौज, मथुरा आदि में लूट-मार करता रहा और अल बरूनी भारत जैसी विचित्र भूमि का अध्ययन। गजनवी लूट का माल गजनी ले जाता और उलटे पैर वापस लौटता, भारत के किसी नए हिस्से पर हमला करने। भारत के रजवाड़ों में कोई ताल-मेल न था, सब मार खाते रहे।

इस बीच अल बरूनी भारत के रूढ़ समाज में पैठ करते हैं। इतिहासकार मानते हैं, कई बरस वह पंजाब क्षेत्र में रहे। ब्राह्मणों की शास्त्रार्थ करने की लत का यह हाल कि उन्होंने एक मलेच्छ को अपनी देव भाषा सिखाई। उनके यहाँ संसार को कैसे देखते हैं, बताने-जानने को।

धीरे-धीरे किस्सा बड़ा दिलचस्प होता जाता है। एक दरबारी अपनी मुलाजमत भूल कर पराए देश के ज्ञान के आकर्षण में सब भूल जाता है। महमूद गजनवी को भारत में सोमनाथ के हीरे-जवाहरात दिखते हैं, अल बरूनी को उपनिषदों की चर्चाएँ। जिसके भीतर जो है, वह उसे बाहर दिखता है।

जरा ध्यान दीजिए। दोनों यात्री हैं। एक साथ भारत आए हैं। ज्ञानी ज्ञान खोजता है, हत्यारा रक्त। दोनों इतिहास में बचते हैं लेकिन कितनी अलग-अलग तरह से याद किए जाते हैं!

आज कोई अल बरूनी को गजनवी के दरबारी की तरह याद नहीं करता। उन्हें गजनवी के हमलों का वृत्तांत लिखना था, लेकिन वह भारत की ज्ञान-परंपरा का वृत्तांत लिखने लगे। जिस वर्ष महमूद गजनवी मरा, 1030 में, उसी बरस अल बरूनी की भारत पर पुस्तक छपी। कुल बारह किताबें उन्होंने भारत पर लिखीं, संस्कृत से अनुवाद भी किए।

शायद उन्हें मालूम था, हमलावर बीत जाएगा, ज्ञान बचा रहेगा।

आज युनाइटेड नेशन्स के आँगन में उनकी मूर्ति लगी है, स्विट्ज़रलैंड में।

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इस सब से क्या सिद्ध होता है?

यही कि सिर्फ ज्ञान बचता है।

ज्ञान ही ज्ञान को खींचता है। पुस्तकें, इमारतें, ज्ञान को दिमाग में सँभालने वाला शरीर - ये सब भले नष्ट हो जाएँ, ज्ञान बच जाता है, पुस्तक में नहीं, अंतःज्ञान में, intuitive wisdom में। हम सब की असली यात्रा यही होनी चाहिए - intuitive wisdom तक।

यह भी मालूम होता है - कि यात्रा करने जो जाता है, वह केवल शरीर नहीं। शरीर शायद एक आवरण है, उस मन, संस्कार और जिज्ञासा का, जो यात्रा करने जाते हैं।

एक बात और समझ में आती है। हर किसी की यात्रा सांस्कृतिक कर्म नहीं। हमारे यहाँ इतनी तीर्थ यात्राएँ होती हैं, हजारों लोग दुर्गम यात्राएँ करते हैं - अमरनाथ, वैष्णोदेवी, शबरीमाला, पंढरपुर, सेंट थॉमस की पहाड़ी। जब तक एक की यात्रा दूसरे की भावना में, अंतःप्रज्ञा और अंतर्दृष्टि में कुछ नया नहीं जोड़ती, वह मूल्यवान नहीं।

यात्रा सांस्कृतिक कर्म तभी बनती है जब वह उस स्थान से, वहाँ आए अपने पूर्व यात्रियों से, संवाद करती है।

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जरा इस क्षण को ध्यान से देखिए। मैं बात कर रही हूँ, आप सुन रहे हैं। इसी एक क्षण में हमारी छाया समय पर और समय की छाया हम पर पड़ रही है।

आप इसे साफ देख सकते हैं।

स्मृति सिर्फ मनुष्यों में नहीं होती, स्थान भी याद रखते हैं, कौन कब वहाँ आया था। मूल्यवान वृत्तांत वही है, जिसमें इन दोनों पक्षों की स्मृति एक बिंदु पर आ कर ठहर जाए।

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ह्वेन त्सांग ने कपिस में, उड्डयन में (आज का अफगानिस्तान) जो बौद्ध राज्य देखे थे, वह उस समय ही पतनग्रस्त थे। आज उनका नामोनिशान नहीं। अल बरूनी ने हिंदुओं की जो रूढ़ जीवन पद्धति दर्ज की थी, वह ग्यारहवीं सदी में ही संक्रमण काल से गुजर रही थी। उसमें लोच न होती तो अल बरूनी कभी संस्कृत न सीख पाते। मलेच्छ बने रहते।

अपने यहाँ हम अकसर सुनते हैं, हिंदुओं ने कभी इतिहास नहीं लिखा। जैसे इतिहास न लिख कर हमने कोई बड़ा ज्ञान पा लिया हो!

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आज जिस बोधगया मंदिर में लाखों बौद्ध सिर झुकाते हैं, आप जानते हैं, दो सौ साल पहले तक किसी को उसका पता न था?

इतनी मार-काट से भारत गुजर चुका था। नालंदा-राजगीर कहाँ हैं, किसी को पता भी न होते यदि अलेक्जेंडर कनिंगम नाम के एक ब्रिाटिश सेना अफसर ने ह्वेन त्सांग की पुस्तक न पढ़ी होती। देखिए, एक पाठक कैसे एक संस्कृति का उद्धार करता है!

डेढ़ हजार साल पहले एक पुस्तक ढूँढ़ते हुए कभी ह्वेन त्सांग यहाँ आए थे। अब उनका यात्रा-वृत्तांत पढ़ कर यह अँग्रेज जंगल-जंगल घूम रहा था। ह्वेन त्सांग ने जो दूरियाँ लिखी थीं, दिशाएँ लिखीं थीं, उन स्थानों को कनिंगम अनुमान से खुदवा रहा था।

हमारे पुरातत्व की खोज किसी भारतीय ने नहीं की, अँग्रेज सरकार ने की। उन्होंने उसके लिए अलग से पुरातत्व विभाग बनाया। धीरे-धीरे भारतीयों को पता चला, ये उनके धरोहर हैं। साँची, महाबलीपुरम, अजंता-एलोरा, खजुराहो, लद्दाख के हेमिस, आल्ची, कपिलवस्तु, लुंबिनी। कोई मिट्टी में दबा पड़ा था, कोई समुद्र में, कोई घने जंगलों में।

ये हैं असल यात्राएँ। वृत्तांत। यह नहीं कि इस गाड़ी में, जहाज में हम बैठे, वहाँ उतरे, एक भालू मिला, चीते से मैं मरते-मरते बचा!

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उन्नीसवीं शताब्दी हमारे राष्ट्रीय जीवन का संक्रमण काल है। विरोधाभास देखिए। बाहर से आए विदेशी, केवल एक हजार-बारह सौ वर्ष की बाल सभ्यता वाले लोग, हमें 'आइडिया ऑफ इंडिया' बता रहे थे!

इससे पहले हमारी पूरी संस्कृति ने आत्म के बारे में सोचा था, हिंदू-मुसलमान-मलेच्छ होने के बारे में सोचा था। ब्राह्मण-शूद्र होने के बारे में भी। लेकिन 'भारतीय होना'? यह क्या था?

पाँच-छह सौ से ज्यादा रजवाड़ों में बसा यह देश। राजाओं के पराक्रम के अनुसार हर दस-बीस बरस में बदलता नक्शा। भारत के पुराने नक्शे देखिए। दो-ढाई हजार साल पुराने नक्शे आसानी से इंटरनेट पर हैं। कभी भारत पश्चिम में अफगानिस्तान तक फैला है, लेकिन दक्षिण में महाराष्ट्र से नीचे नहीं।

पाकिस्तान में तक्षशिला की तरफ जाइए, जहाँ सिकंदर-पोरस युद्ध हुआ था, सिंधु नदी की बाढ़ से डर कर सिकंदर लौट गया था। वहाँ साधारणतः घुंघराले बालों वाले, गोरे, साढ़े छह फीट ऊँचे सुदर्शन पुरुष आपको दिख जाएँगे। यवनों के रक्त-बीज। कंबोडिया जाइए, दक्षिण के चोल राजा वहाँ अंगकोर वाट बनवा रहे थे। श्रीलंका के पोलोन्नुनुरुवा में शिव मंदिर हैं, राजा बौद्ध था, रानी हिंदू।

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क्या यात्राएँ हमें आत्म-बिंब दे सकती हैं? हमारी सांस्कृतिक अस्मिता की पहचान दे सकती हैं?

जैसे ही राष्ट्रवाद की संकीर्णता जड़ पकड़ती है, पहले विश्व युद्ध के बाद, अँग्रेजी राज के खिलाफ भारत-भारत का शोर मचता है, कट्टरता बढ़ती है, टैगोर हमें चेताते हैं, हम हमेशा से सार्वभौमिक रहे आए हैं, केवल भारतीय नहीं!

यह चेतना टैगोर में कहाँ से आई होगी? उपनिषदों के ज्ञान से? अपनी अंतहीन यात्राओं से?

उन्होंने देखा होगा, कैसे भारत की मनीषा बिना घोड़े-तलवार के, बिना किसी देश का पुस्तकालय जलाए, केवल अपने मनीषियों के जीवनचरित से आधी से ज्यादा दुनिया को अपना बनाती आई है।

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क्या यात्राएँ हमें एक उदात्त, एक संपूर्ण, मनुष्य बना सकती हैं?

हम यहाँ यात्रा-वृत्तांतों पर चर्चा करने इकट्ठा हुए हैं। मैं आपके साथ मिलकर उन्हें किसी बड़े परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रस्ताव रखती हूँ।

यदि शाश्वत समय कोई संरचना है और उसमें मनुष्य के बौद्धिक उद्यमों के तरह-तरह के खाँचे हैं, मनुष्य ने यदि इस सृष्टि को अपनी जिज्ञासा से कई तरह से उधेड़ा-बुना है, तो यात्रा-वृत्तांतों के बिना इसकी तसवीर पूरी नहीं बनती।

जो वैज्ञानिक नासा में टेलीस्कोप लगाए आसमान की गतिविधि देखता है, जो वैज्ञानिक ईश्वर का 'हिग्स बोसोन' तत्व ढूँढ़ निकालता है, वह भी यात्री है, और जिसे अंतरिक्ष में दूर-दूर तक जा कर भी ब्रह्मांड का कर्ता नहीं दिखता, वह भी।

लेकिन यात्री - स्वयं - वह कौन है?

वह नहीं जो आपसे अपना सच-झूठ कह कर अगले स्टेशन पर उतर जाएगा। बल्कि वह जो आपके भीतर सन्नाटा छोड़ जाएगा। जहाँ आप सृष्टि की बुदबुदाहट सुनेंगे।

हर यात्री कुछ बताना चाहता है, पर बता नहीं पाता।

     'I can tell, there I have been
          But where? I can not say'

जैसा कि बहुत पहले एक कवि कह गया था।

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( सेंट थॉमस कॉलेज , कोजेनचेरी , केरल के तत्वावधान में 22-25 सितंबर , 2015 को हुई ' यात्रा-वृत्तांत व सांस्कृतिक आदान-प्रदान ' अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में दिया गया बीज-भाषण)


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