hindisamay head


अ+ अ-

कविता

अभिलाषा

हरीश पाराशर ऋषु


टुटी हुई साँसों में,
फिर जिंदगी की चाहत है,
बिखरे हुए सपनों में,
फिर हौसलों की आहट है।

गिरना-उठना, उठकर सँभलना,
सँभलकर फिर आज चलना है,
ढूँढ़ता है जज्‍बा कोई,
यूँ, फितरत में आगे बढ़ना है।

सूखे हुए अधरों पे,
फिर मौजों का तराना है,
तस्‍वीरों के टुकड़ों से,
फिर मूरत नई बनाना है।

हाथों में हाथ दूजा कोई,
यूँ मंजिल-मंजिल गढ़ना है।

वीरान चमन सजाएँ ऐसे,
हर पौधे पे सावन फूटा है।
अन्‍जानी-जानी डगरों पे,
कोई आस ही तो छूटी है,

जिधर से शाख टूटी थी,
फिर शाख वहीं से फूटी है।
 


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में हरीश पाराशर ऋषु की रचनाएँ