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कविता

जीवन

मंजूषा मन


जीवन
घड़ी के काँटों सा
घूमता रहे,
घूमता रहे,
एक ही दिशा में
एक रफ्तार में
अनवरत/बिना रुके।
छूट नहीं है
कि कह लें थकन,
माथे का पसीना पोंछ कर
झटक सकें,
सुन पाएँ राहत के
दो बोल भी,
कुछ नहीं इनके लिए
चलने के सिवा।
अगर कभी
जी में आया
या जी ने चाहा
रुक जाना
सब कुछ रुका वहीं
खत्म हुआ जीवन
घड़ी की तरह।
 


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