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कविता

युद्ध

मंजूषा मन


आज छिड़ा है भीषण युद्ध
मन और मस्तिष्क में
मन चाहता है
बह जाना
भावों के बहाव में
मस्तिष्क कहता है
रुक जा!
ये बहाव
कहीं न ले जाएगा
खाली हाथ ही
फिर लौट आएगा
क्यों आमादा है
फिर एक बार
ठोकर खाने को
पुराने जख्म
मिट तो जाने दे
तू झेल न पाएगा
अब कोई और कोई दगा
रोएगा, पछताएगा...
पर
मन कानों पर हथेलियाँ रख
सुनने को
राजी कहाँ है। 
 


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