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कविता

उपन्यास में झाँक कर देखा

प्रफुल्ल शिलेदार


उपन्यास में झाँक कर देखा
गहरे कुएँ जैसी सुरंग के तल में
लेखक जगमगाता उजाला सजाए हुए था
सारे किरदार रोजमर्रा की जिंदगी जी रहे थे
प्रसंगों का रहट चल रहा था
इतनी उत्कटता से किरदार जीवन जी रहे थे
जितना हम अपनी जिंदगी में भी कभी नहीं जीते
भाषा में चमक थी
निराशा में भी धार थी
घास के पत्तों के भी कई प्रसंग थे
कभी किसी के पीठ तले
कभी सिर के नीचे
कोमल तलवों के नीचे
मजबूत जूतों तले
खिल उठने ओस से भारी होने चकित होने
रौंदे जाने उखाड़ कर फेंके जाने के
कई प्रसंग थे
जमीदोज होने के बावजूद
एक हरा पत्ता
सिर उठाने की हिम्मत दिखा रहा था
पीले पत्ते तो मिट्टी में मिलने की आस लगाए थे
मैं बारीकी से मुआयना करने लगा
कि क्या मैं भी इसी में कहीं रेंगता हुआ दिखता हूँ
ढूँढ़ते-ढूँढ़ते गहरे कुएँ के तल तक पहुँच गया
वहाँ से ऊँचे उठे कुएँ के मुँह को
ढकने वाला आकाश ताकने लगा
मैं देखने लगा कि
क्या उस आकाश में मैं कहीं उड़ रहा हूँ !


(मराठी से हिंदी अनुवाद स्वयं कवि के द्वारा)

 


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