दौड़ती है स्त्री तमाम उम्र अपने ऊपर आकाश का चँदोवा सजाकर फिर भी न आसमान होता है उसका न जमीन आँखों में रहते हैं समंदर उसके बाँहों में भरती है कायनात सारी फिर भी होती है स्त्री अकेली।
हिंदी समय में मनीषा जैन की रचनाएँ