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कविता

अकेली स्त्री

मनीषा जैन


दौड़ती है स्त्री तमाम उम्र
अपने ऊपर आकाश का चँदोवा
सजाकर

फिर भी न आसमान होता है उसका
न जमीन
आँखों में रहते हैं समंदर उसके
बाँहों में भरती है कायनात सारी
फिर भी होती है स्त्री अकेली।
 


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