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कविता

अँधेरे में चहलकदमी

मनीषा जैन


वह अब चुप है
चारों ओर आग
द्वेष, धड़-पकड़
बंदूक बलात्कार
जेल  विरोध
घटाटोप अँधेरा

कौन हँसा यहाँ
एक दबी हुई हँसी
वो चुप रहकर तमाशा देखने लगे हैं
हँसा वो जिसे मरने का डर नहीं

चुप है वह
जिसे करनी है अपने मन की
सारी हवा, पानी
पेड़, जमीन किसके हैं?
जिनकी बाँहों पर गुदे हैं नाम
उनके पतियों के
जो जा चुके हैं अँधेरे में

उनके सत्तासीन होते ही
शर्म से झुक गई हैं आँखें जिनकी
चाल में है मंदी
ये हमारे कल का भविष्य हैं
जो भारी कदमों से कर रहें हैं चहलकदमी
हाथ खाली हैं इनके
फिर भी अँधेरों में चमक रहीं हैं आँखें इनकी
क्या पता कब तख्ता पलट हो जाए।
 


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