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कविता

जैसे अभी नहाई धूप

प्रदीप शुक्ल


वापस फिर से नर्म हवाएँ
ले कर आई धूप

कल की
जहर बुझी तलवारें
कहीं खो गई हैं
पछुआ की सिरफिरी हवाएँ
कहीं सो गई हैं
सुबह सुबह आकर बैठी है
कुछ शरमाई धूप

गलियों गलियों
घूम रही है
हर चौराहे नाके
ओस बूँद में घुस कर बैठी
और वहीं से झाँके
खड़ी हुई आँगन में जैसे
अभी नहाई धूप

फुनगी से उतरी
सीधे तो
लोट रही है घास पर
कुहरे की झीनी चादर का
घूँघट लिए उजास पर
बहुत देर तक बस फूलों से
ही बतियाई धूप
वापस फिर से नर्म हवाएँ
ले कर आई धूप
 


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