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कविता

अभी बचे हैं हम

प्रदीप शुक्ल


अरे सुनो! बंदूक चलाओ
अभी बचे हैं हम

सौ दो सौ
लोगों का मरना
भी क्या है मरना
लाशों के पहाड़ के ऊपर
बहे खून झरना
ऐसा कुछ माहौल बनाओ
अभी बचे हैं हम

गोली बम
बंदूकों से तुम
कब तक मारोगे
थक जाओगे बंधू तो फिर
शायद हारोगे
सीधे ऐटम बम गिरवाओ
अभी बचे हैं हम

गाय, भैंस,
बकरे को तो हम
रोज चबा जाएँ
अच्छा होगा एक दूसरे
को अब हम खाएँ
सुनो! हमें जल्दी निपटाओ
अभी बचे हैं हम
अरे सुनो! बंदूक चलाओ
अभी बचे हैं हम।
 


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