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कविता

माफ करना बसंत

प्रतिभा कटियार


मुझे माफ करना प्रिय
इस बार बसंत के मौसम में
मेरी हथेलियों में नहीं हैं
प्रेम की कविताएँ
बसंत के सुंदर कोमल मौसम में
मेरी आँखों में उग आए हैं
कुछ पथरीले ख्वाब
ख्वाब जिनसे हर वक्त रिसता है लहू
और जो झकझोरते हैं
उदास मौसमों को बेतरह
ख्वाब जो चिल्लाकर कहते हैं कि
बसंत का आना नहीं है
सरसों का खिल जाना भर
नहीं है बसंत का आना
राग बहार की लहरियों में डूब जाना
कि जरूरी है
किसी के जीवन में बसंत बनकर
खिलने का माद्दा होना
मुझे माफ करना प्रिय कि
कानों में नहीं ठहरते हैं सुर,
न बहलता है दिल
खिले हुए फूलों से
न अमराइयों की खुशबू और
कोयलों की कूक से
सुनो, जरा अपनी हथेलियों को आगे तो करो
कि इनमें बोनी है प्यार की फसल
फैलाओ अपनी बाँहें
मुझे आलिंगन में लेने के लिए नहीं
अपनी तमाम उष्मा मुझमें उतार देने के लिए
आओ हम मिलकर तोड़ दें
जब्त की शहतीरें
निकलें नए सफर पर
और ढूँढ़कर लाए ऐसा बसंत
जो हर देह पर खिले
धरती के इस छोर से उस छोर तक
ऐसा बसंत
जिसे ओढ़कर
सर्द रातों की कँपकँपी कुछ कम हो सके
और जिसे गुनगुनाने से
नम आँखों में उम्मीदें खिल सकें
इस बार मेरी अँजुरियों में
नहीं सिमट रही
पलाश, सेमल, सरसों के खिलखिलाहट
मेरी खुश्क आँखों में
कुछ पथरीले ख्वाब हैं
तलाश है उस बसंत की
जो समय की आँख से आँख मिलाकर
ऐलान कर दे कि
मैं हूँ, मैं रहूँगा...
 


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