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कविता

कमरे में ऐश ट्रे कोई नहीं

प्रतिभा कटियार


वो उतरती शाम का धुँधलका था
शायद गोधूलि की बेला
बैलों की गले में बँधी घंटियों की रिद्म
उनके लौटते हुए सुस्त कदम और
दिन भर की थकान उतारने को आतुर सूरज
कितने बेफिक्र से तुम लेटे हुए
उतरती शाम की खामोशी को
पी रहे थे
जी रहे थे
तुम शाम देख रहे थे
मैं तुम्हें...
तुम्हारी सिगरेट के मुहाने पर
राख जमा हो चुकी थी
कभी भी झड़ सकती थी वो
बैलों की घंटियों की आवाज से भी
हवाओं में व्याप्त सुर लहरियों से भी
मैं उस राख को एकटक देख रही थी
तुम बेफिक्र थे इससे कि
वो जो राख है सिगरेट के मुहाने पर
असल में मैं ही हूँ
तुम्हारे प्यार की आग में जली-बुझी सी
कमरे में कोई ऐश ट्रे भी नहीं...
 


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