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कविता

आखिर ये किसका प्यार है

प्रतिभा कटियार


ये किसके विरह में
जल उठे हैं पलाश के जंगल
ये किसकी उदासियों पर डाल देते हैं
शोख रंगों की चूनर
किसके इंतजार की खुशबू में
महकते रहते हैं दिन-रात
किसकी तलाश में
गुम रहते हैं बरसों-बरस
आखिर किसकी मुस्कुराहटों का
इन्हें इंतजार है...
आखिर ये किसका प्यार हैं...
वादा कहीं कोई नहीं था सचमुच
तुम्हारी खामोशियों में जब्त
तमाम वादों की शिकन
दर्ज है तुम्हारे माथे पे सदियों से
दर्ज है लकीरों से खाली पड़ी हथेलियों पे
तुम्हारे अनकिए वादों की
गुमसुम जुंबिश 
तुम्हारे दूर जाते कदमों की आहटों में
दर्ज है थकन
लौट के न आने की
हर रोज शाम के साथ उतरती है
एक उधड़े हुए वादे की याद
चाय की प्याली में
घुल जाती है, चुपचाप
सप्तपदी के वचनों से मुक्त रात
अपने दोनों घुटनों में सर डाले
समेटती है वादियों में गूँजती 
तमाम उदासियाँ
तुम्हारी खामोशियों से
जिंदगी में भर उठा है सन्नाटे का शोर
वादा कोई, कहीं नहीं था सचमुच
बस एक बोझ था, तन्हाई का
टूटने के लिए
वादा किया जाना जरूरी नहीं...
 


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