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कविता

देखना खुद को

प्रतिभा कटियार


देखना खुद को इस तरह
जिस तरह देखता है कोई
खिड़की से झाँकती हुई सड़क को
सड़क पे दौड़ती हुई गाड़ियों को
पड़ोसी के बगीचे में खिलते फूल को
या रास्ते में पड़े पत्थर को
देखना खुद को इस तरह जैसे
दूर से कोई देखता है नदी
उफक पे ढलता हुआ सूरज
या कैनवास पर बनी अधूरी कलाकृति
देखना खुद को इस तरह
जैसे दीवार पर टँगी कोई तस्वीर
कमरे में रखा हुआ सोफा
टेबल पर रखी हुई चाय
खिड़कियों पर पड़े पर्दे
देखना खुद को इस तरह जैसे
देखना ईश्वर को तमाम सवालों के साथ...
 


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