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कविता

प्यार

प्रतिभा कटियार


आसमान झुक के
कंधों के एकदम करीब आ जाता है
सड़कें ओढ़ लेती हैं
सुर्ख फूलों वाली सतरंगी चुनर
बच्चों की शरारतों
में लौट आती है मासूमियत
स्त्रियाँ बिना किसी त्यौहार के
करने लगी हैं भरपूर सिंगार
ट्रैफिक के शोर में भी
घुलने लगता है कोई राग
कोई मेज पर रख जाता है
फाइलों का नया ढेर
उन पर भी उगने लगती है
गुलाब के फूलों की खुशबू
पोपले मुँह वाली बुढ़िया
लगने लगती है
दुनिया की सबसे हसीन औरत
अजनबी चेहरों पर उमड़ने लगता है प्यार
किसी भी मौसम की डाल पर
उगने लगता है बसंत
दर्द सहमकर दूर से देखते हैं
कभी न गुम होने वाली मुस्कुराहटों को
दुनिया की तमाम सभ्यताएँ पूरी असभ्यता से
सिखाती हैं उन्हें संवेदना के पाठ
कि देखो इतना मुस्कुराना भी ठीक नहीं
मानवीयता के खिलाफ है इस वक्त
छेड़ना मोहब्बत का राग
वो थामते हैं एक दूसरे का हाथ
मुस्कुराते हैं और दोहराते हैं
खुद से किया हुआ वादा कि
सबसे मुश्किल वक्त में हम बोएँगे
इस धरती पर प्रेम के बीज
नफरत की जमीन में उगाएगे प्यार
तोड़ेंगे दुख की तमाम काराएँ
और रचेंगे सृष्टि के लिए
सबसे मीठा संगीत
चाहे तो कोई शासक
ठूँस दे उन्हें जेलों में फिर भी
झरता ही रहेगा आसमान से प्रेम
खिलखिलाता ही रहेगा बचपन
संगीनों के साए में
खिलते ही रहेंगे प्यार के फूल
कोई नहीं जान पाएगा कभी कि इस दुनिया को
सबसे नकारा लोगों ने बचाया हुआ है
नहीं दर्ज होगा इतिहास के किसी पन्ने पर
दुख, पीड़ा, संत्रास के सबसे कठिन वक्त में
किसके कारण धरती फूलों से भर उठी थी।
 


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