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कविता

रोने के लिए आत्मा को निचोड़ना पड़ता है

प्रतिभा कटियार


तुमने रोना भी नहीं सीखा ठीक से
ऐसे उदास होकर भी कोई रोता है क्या
यूँ बूँद-बूँद आँखों से बरसना भी
कोई रोना है
तुम इसे दुख कहते हो
न, ये दुख नहीं
रोने के लिए आत्मा को निचोड़ना पड़ता है
लगातार खुरचना पड़ता है
सबसे नाजुक घावों को
मुस्कुराहटों में घोलना पड़ता है
आँसुओं का नमक
रोने के लिए आँसू बहाना काफी नहीं
आप चाहें तो प्रकृति से साँठ-गाँठ कर सकते हैं
बादलों को दे सकते हैं उदासिया
फूलों की जड़ों में छुपा सकते हैं अवसाद
कि वो खिलकर इजाफा ही करें दुनिया के सौंदर्य में
धरती के सीने से लिपटकर साझा कर सकते हैं
अपने भीतर की नमी
या आप चाहें तो समंदर की लहरों से झगड़ा भी कर सकते हैं
निराशा के बीहड़ जंगल में कहीं रोप सकते हैं
उम्मीद का एक पौधा
रोना वो नहीं जो आँख से टपक जाता है
रोना वो है जो साँस-साँस जज्ब होता है
अरे दोस्त, रोने की वजहों पर मत जाओ
तरीके पर जाओ
सीखो रोना इस तरह कि
दुनिया खुशहाल हो जाए
और आप मुस्कुराएँ अपने रोने पर...
 


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