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कविता

बेसलीका ही रहे तुम

प्रतिभा कटियार


तुम्हें जल्दी थी जाने की
हमेशा की तरह
वैसी ही जैसे आने के वक्त थी
बिना कोई दस्तक दिए
किसी की इजाजत का इंतजार किए
बस मुँह उठाए चले आए
धड़धड़ाते हुए
चंद सिगरेटों का धुआँ कमरे में फेंका
मौसम के गुच्छे
उठाकर टेबल पर रख दिए
थोड़ा सा मौन लटका दिया उस नन्हीं सी कील पर
जिस पर पहले कैलेंडर हुआ करता था
फिर एक दिन उठे और
बिना कुछ कहे ही चले गए
जैसे कुछ भूला हुआ काम याद आ गया हो
न... कोई वापसी का वादा नहीं छोड़ा तुमने
लेकिन बहुत कुछ भूल गए तुम जाते वक्त
तुम भूल गए ले जाना अपना हैट
जिसे तुम अक्सर हाथ में पकड़ते थे
लाइटर जिसे तुम यहाँ-वहाँ रखकर
ढूँढ़ते फिरते थे
लैपटाप का चार्जर,
अधखुली वार एंड पीस
तुम भूल गए दोस्तोवस्की के अधूरे किस्से
खिड़की के बाहर झाँकते हुए
गहरी लंबी छोड़ी हुई साँस
तुम समेटना भूल गए
अपनी खुशबू
अपना अहसास जिसे घर के हर कोने में बिखरा दिया था तुमने
टेबल पर तुम्हारा अधलिखा नोट
तुम ले जाना भूल गए अपनी कलाई घड़ी
जिसकी सुइयों में एक लम्हा भी मेरे नाम का दर्ज नहीं
आज सफाई करते हुए पाया मैंने कि
तुम तो अपना होना भी यहीं भूल गए हो
अपना दिल भी
अपनी जुंबिश भी
अपना शोर भी, अपनी तन्हाई भी
अपनी नाराजगी भी, अपना प्रेम भी
सचमुच बेसलीका ही रहे तुम
न ठीक से आना ही आया तुम्हें
न जाना ही...
 


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