जबसे समझ लिया सौंदर्य का असल रूप
तबसे उतार फेंके जेवरात सारे
न रहा चाव, सजने-सँवरने का
न प्रशंसाओं की दरकार ही रही
नदी के आईने में देखी जो अपनी ही मुस्कान
तो उलझे बालों में ही सँवर गई
खेतों में काम करने वालियों से
मिलाई नजर
तेज धूप को उतरने दिया जिस्म पर
न, कोई सनस्क्रीन भी नहीं
रोज साँवली पड़ती रंगत
पर गुमान हो उठा यूँ ही
तुम किस हैरत में हो कि
अब कैसे भरमाओगे तुम हमें...