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कविता

उनके लहू का रंग नीला है...

प्रतिभा कटियार


उनकी शिराओं में लाल रंग का नहीं
नीले रंग का लहू है...
देह पर कोई चोट का निशान नहीं मिलेगा
न ही गुम मिलेगी होठों की मुस्कराहट
साइंसदानों, तुम्हारी प्रयोगशालाएँ
झूठी हैं
वहाँ नहीं जाँची जा सकतीं
नीलवर्णी रक्त कोशिकाएँ
न ही ब्लड सेंपल में आते हैं
सदियों से दिल में रह रहे दर्द के कारन,
ना समंदर की लहरों की तरह उठती
दर्द की उछाल
जाँच पाने की कोई मशीन है पैथोलॉजी में
बेबीलोन की सभ्यता के इतिहास में
पहली बार जब दर्ज हुआ था
एक प्रेम-पत्र
तबसे ये दर्द दौड़ ही रहा है लहू में
नहीं, शायद दुनिया की किसी भी सभ्यता के विकास से पहले ही
प्रेम के वायरस ने बदलना शुरू कर दिया था
लहू का रंग
प्रेमियों के लहू का रंग प्रेम के दर्द से नीला हो चुका है
इसका स्वाद खारा है...
इसके देह के भीतर दौड़ने की रफ्तार
बहुत तेजी से घटती-बढ़ती रहती है
दिल की धड़कनों को नापने के सारे यंत्र
असफल ही हो रहे हैं लगातार
चाँद तक जा पहुँचे इनसान के दिल की
चंद ख्वाहिशों की नाप-जोख जारी है
उदासियाँ किसी टेस्ट में नहीं आतीं
झूठी मुस्कुराहटें जीत जाती हैं हर बार
और रिपोर्ट सही ही आती है
जबकि सही कुछ बचा ही नहीं...
सच, विज्ञान को अभी बहुत तरक्की करनी है...
 


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