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कविता

कितनी कम हैं तुम्हारी ख्वाहिशें...

प्रतिभा कटियार


कोई शब्द नहीं उगे धरती पर
किसी भी भाषा में नहीं
जिनके कंधों पर सौंप पाती
संप्रेषण का भार
कि पहुँचा दो
सब कुछ वैसा का वैसा
जैसा घट रहा है मेरे भीतर
कोई भी जरिया नहीं
जिससे पहुँचा सकूँ
अपना मन पूरा का पूरा
उदास हूँ
ये सोचकर कि
न जानते हुए भी
मेरे दिल का पूरा सच
न जानते हुए भी कि
सचमुच कितना प्यार है
इस दिल में
कितने खुश हो तुम
कितनी कम हैं तुम्हारी ख्वाहिशें
और कितना विशाल
मेरी चाहत का संसार...
 


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