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कविता

तुम्हारी याद नहीं

प्रतिभा कटियार


सुनो, अब मुझे तुम्हारी याद नहीं आती
न, जरा भी नहीं
अब मेरी पलकों में
याद की कोई बदली नहीं अटकी रहती
न भीतर मचलता है
रोकी हुई सिसकियों का कोई तूफान
मुस्कुराती हूँ जी भर के
और तुम्हारी याद को कहती हूँ, 'फिर कभी'
अब मैं फूलों की पंखुड़ियों में
तुम्हारा चेहरा नहीं तलाशती
न ही हवाओं की सरगोशियों में
तुम्हारी छुअन को महसूस करती हूँ
अब मैं परिंदों को नहीं सुनाती
तुम्हारे और मेरे प्यार के किस्से
उन लम्हों की दास्ताँ
जो हमने साथ जिए थे
अब बारिशों को देख
तुम्हारे साथ भीगे पलों को याद नहीं करती
न दिसंबर की सर्द रातों में
तुम्हारी हथेलियों की गर्माहट याद करती हूँ
सुनो, अब मुझे तुम्हारी याद नहीं आती
जरा भी नहीं
रसोई में कुछ भी बनाते समय
अब नहीं सोचती तुम्हारी प्रिय चीजों के बारे में
न घर से निकलने से पहले
चुनती हूँ तुम्हारी पसंद के रंग
मौसम कोई भी हो,
तुम्हारा यह कहना कभी याद नहीं करती
कि 'सारे मौसम तुम ही तो हो...
प्रेम की आँच में धधकती गर्मियाँ हों,
बौराया बसंत, या शरारती शरद...'
देखो न, मैंने कितनी आसानी से तुम्हारी याद को
चाँद की खूँटी पे टाँग दिया है
तुम कहते थे 'सिर्फ याद न किया करो
कुछ काम भी किया करो...'
तो अब काम करती हूँ हर वक्त
कि तुम्हें याद करने का काम स्थगित है इन दिनों
मुझे सब पता है देश दुनिया के बारे में
पड़ोस वाली आंटी की बेटे के विवाहेतर संबंध से लेकर
भारत में नोटबंदी और
अमेरिका में ट्रंप की जीत तक के बारे में
मुझे सब्जियों के दाम पता हैं आजकल
सच कहती हूँ, इन सबके बीच तुम्हारी याद कहीं नहीं
हालाँकि घर से ऑफिस और ऑफिस से घर के बीच
किसी भी मोड़ पे तुम्हारा चेहरा दिख जाना
मुसलसल जारी है
फिर भी मैं तुम्हें याद नहीं करती...
जिन रास्तों ने पलकों से छलकती तुम्हारी याद को सहेजा था
वो अब मुझे देखकर मुस्कुराते हैं
उनकी चौड़ी हथेलियों पर मुस्कुराहट रख देती हूँ
जाने कैसे वो मुस्कुराहट तुम्हारा चेहरा बन जाती है
मैं तो तुम्हें दिन के किसी भी लम्हे में याद नहीं करती
फिर भी...
 


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