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कविता

भाषा

प्रतिभा कटियार


किसी स्कूल ने नहीं सिखाया
सूखी आँखों में मुरझा गए ख्वाबों को पढ़ पाना
नहीं सिखाया पढ़ना
बिवाइयों की भाषा में दर्ज
एक उम्र की कथा, एक पगडंडी की कहानी
किसी कॉलेज में नहीं पढ़ाया गया पढ़ना
सूखे, पपड़ाए होंठों की मुस्कुराहट को
जो उगती है लंबे घने अंधकार की यात्रा करके
नहीं बताया किसी भाषा के अध्यापक ने
कि चिड़िया लिखते ही आसमान कैसे
भर उठता है फड़फड़ाते परिंदों से
और कैसे धरती हरी हो उठती है
पेड़ लिखते ही
बहुत ढूँढ़ा विश्वविद्यालयों में उस भाषा को
जो सिखाए खड़ी फसलों के
जल के राख हो जाने के बाद
दोबारा बीज बोने की ताकत को पढ़ना
कहाँ है वो भाषा
जिसमें खिलखलाहटों में छुपे अवसाद को
पढ़ना सिखाया जाता है
नहीं मिली कोई लिपि जिसमें
‘आखिरी खत’ के ‘आखिरी’ हो जाने से पहले
‘उम्मीद’ लिखा जाता है
‘जिंदगी’ लिखा जाता है
वो लिपि जो
जिसमें लिखा जाता है कि
सब खत्म होने के बाद भी
बचा ही रहता है 'कुछ'...
 


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