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कविता

घर से भागने वाली लड़कियाँ

प्रतिभा कटियार


एक रोज लड़कियाँ तमाम ख्वाहिशें तह करके
करीने से सूटकेस में लगाती हैं
कच्चे-पक्के ख्वाब रखती हैं साथ में
हिम्मत रखती हैं सबसे ऊपर वाली पॉकेट में
कमर तक लटकते पर्स में रखती हैं मुसुकराहटें
उदास रातों का मोह बहुत है
लेकिन बड़ा सा गट्ठर है उनका
बार-बार उन्हें छूकर देखती हैं
और सूटकेस में बची हुई जगह को भी
फिर सबसे ज्यादा जागी
और भीगी रातों को रख ही लेती हैं खूब दबा-दबाकर
कागज के कुछ टुकड़े रखती हैं
जिनमें दर्ज है लड़-झगड़ के कॉलेज जाने पर मिले पास होने के सुबूत
हालाँकि जिंदगी में फेल होने के सुबूत बिखरे ही पड़े थे घर भर में
जिंदगी के इम्तहान में बैकपेपर देकर एक बार पास होने की इच्छा
रखती हैं किनारे से सटाकर
कुछ सावन रखती हैं छोटे से पाउच में
एक पुड़िया में रखती हैं जनवरी का कोहरा और कॉफी की खुशबू
जेठ की दोपहरों में घर के ठीक सामने
ठठाकर हँसते अमलताश की हँसी रखती हैं
कुछ किताबों को रखने की जगह नहीं मिलती
तो ठहरकर सोचती हैं कि क्या निकाला जा सकता है
सब रखने की चाहत में जबरन ठूँसकर सब कुछ
सूटकेस के ऊपर बैठकर बंद करने की कोशिश करती हैं
रिहाई का तावीज बना टिकट सँभाल के रखती हैं पर्स में
पानी पीती हैं गिलास भर सुकून से
घर को देखती हैं जी भरके
एक खत रखती हैं टेबल पर
जिसमें लिखा है कि
लड़कियाँ घर से सिर्फ किसी के इश्क में नहीं भागती
वो भागती हैं इसलिए भी कि जीना जरूरी लगने लगता है
कि बंदिशों और ताकीदों के पहरेदारियों में
अपने ख्वाबों का दम घुटने से बचाना चाहती हैं
क्योंकि वो जी भरके जीना चाहती हैं...
 


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