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आलोचना

नई सदी की कविता : काल-बोध की कला

आनंद पांडेय


किसी काल विशेष की रचनाशीलता का अध्ययन करते समय एक विशेष प्रवृत्ति की रचनाओं को उस काल की प्रमुख प्रवृत्ति मान लेना और अन्य प्रकार की रचनाओं को 'फुटकर खाते' में डालकर उपेक्षित कर देना हिंदी आलोचना और इतिहास-दर्शन की एक बहुप्रचलित और पुरानी रूढ़ि है। जबकि, किसी भी समय की रचनाशीलता विविध, विषम और व्यापक होती है क्योंकि कविता और कलाएँ स्वभाव से ही बहुवचनात्मक होती हैं। काल-विशेष की समग्रता तो फिर भी एक व्यापक चीज है, किसी विशेष विचारधारा और जीवन-दृष्टि पर आधारित काव्य और कला-आंदोलनों में भी एकरूपता और एकरसता नहीं होती है। यही नहीं, किसी एक कवि की एक ही समय की विभिन्न कविताओं में भी एकरसता और एकरूपता संभव नहीं है। इसकी वजह यह है कि कविता अपने स्वभाव से ही जनतांत्रिक और सामाजिक प्रयास है। और, जब बात एक काव्य-समय के अनगिनत कवियों और अनगिनत कविताओं की हो तो इस मान्यता के लिए तर्क खोजने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। नई सदी की कविता के बारे में जो बात सबसे पहले मन में आती है, वह यही है। नई सदी का काव्य-समय विविध, विषम और व्यापक है। किसी काव्य-आंदोलन का अभाव इस विविधता को और अधिक स्वाभाविक रूप से संभव बनाता है। 'नई सदी की कविता' पद-बंध भी किसी खास प्रवृत्ति को रेखांकित या पोषित नहीं करता है, बल्कि एक काव्य-समय का पर्याय है। यह काव्य-समय है - इक्कीसवीं सदी के डेढ़ दशक का काल-खंड।

नई सदी का कवि स्मृतियों से लदा हुआ है। वह स्मृतियों में जीना चाहता है क्योंकि जो जीवन वह छोड़कर आया है, उसे फिर से जीना चाहता है लेकिन वापस जा नहीं पाता और जो जीवन जी रहा है, उससे संतुष्ट नहीं है। वह जीवन संग्राम में पिछड़ना नहीं चाहता इसलिए वह जिंदगी के मौजूदा मोर्चे पर डटा रहना चाहता है। लेकिन, उसे हमेशा पुराने जीवन की टीस अनुभव होती रहती है। इस टीस से क्षणिक रहत के लिए वह स्मृतियों का सहारा लेता है। इसीलिए नई सदी की कविताओं में स्मृतियों की भरमार है।

आज का कवि गाँव से शहर आया है। गाँव की सामाजिकता, सामूहिक सांस्कृतिक जीवन, प्रकृति और गैरबाजारू मानसिकता, उन्मुक्त और सरल जीवन उसे सबसे अधिक याद आता है। वह सांस्कृतिक रूप से 'डिस्लोकेटेड' है। अपने को विस्थापित समझता है। शहरी जीवन की सुविधा और आर्थिक सुरक्षा की जिंदगी में वह रह रहा है लेकिन वह शहरी यांत्रिकता, अजनबियत, अकेलेपन और अवसाद के बीच गाँव की जिंदगी को याद करता है। कुमार निर्मलेंदु की 'चैत की बारिश में' 'जिंदगी के गणित' में उलझा कवि-मन स्मृतियों में गोते लगाता है। वह 'कंक्रीट के जंगल' में जबसे आया है तबसे उसने स्मृतियों को दबाने की भरसक कोशिश की है। कुछ हद तक कामयाबी भी मिली है - 'तुमसे क्या छिपाना / कुछ इस तरह फँस गया हूँ कि / तुम सचमुच बहुत कम याद आती हो' लेकिन, स्मृतियाँ कभी दफन नहीं होतीं। वे मौके-बे-मौके मन को दबोच ही लेती हैं, अपने आगोश में। कुमार निर्मलेंदु का दुनियादार कवि-मन भी ऐसे ही स्मृतियों का शिकार हो जाता है - 'जब-जब पानी बरसता है मूसलाधार / बुरी तरह याद आता है घर-परिवार / चैत की इस पहली बारिश में / भीग गया है मेरे मन का कोना-कोना / तैरने लगी हैं गाँव की स्मृतियाँ।'

यही स्मृति हेमंत देवलकर की 'आजोबा' और 'बचपन में' जैसी कविताओं में आती है, निहायत ही निर्दोष अनुभूति बनकर। कुमार निर्मलेंदु की स्मृति जहाँ ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में सामाजिक-आर्थिक कारणों की पड़ताल के लिए भरपूर अवकाश छोड़े हुए है वहीँ हेमंत देवलकर की कविता केवल अश्रुविगलित 'याद' है। अपने बचपन की, बचपन जैसी ही मासूम। कहना न होगा, हेमंत की कविताओं की स्मृति का परिप्रेक्ष्य इतना निजी है कि 'निजी को भी राजनीतिक या सार्वजनिक' मानने वाले भी इसे निजी ही रहने दें। निजी संपत्ति के दौर में संबंधों की गर्मी और एक मासूम निजी का दायरा भी आक्रांत हो उठा है। आजकल सांस्कृतिक और वैचारिक उत्पादों के माध्यम से व्यक्ति को भी एक जिंस की तरह से गढ़ा जा रहा है। जिससे हर कोई न केवल एक जैसी चीजें इस्तेमाल कर रहा है बल्कि एक जैसा सोच भी रहा है। एक व्यक्ति की विशिष्टता के लिए कोई गुंजाइश बची ही नहीं है। बकौल महाभूत चंदन राय आजकल के समय में 'निजता निजीकरण में और उदारता उदारीकरण के बाजार में तब्दील हो चुकी है। 'ऐसे समय में हेमंत देवलकर की कविताओं में स्मृति की निजता का जो सायास-अनायास आग्रह है, वह उदारीकरण और निजीकरण की राजनीति के विरुद्ध कविता में किसी सत्याग्रह से कम नहीं है।

नई सदी की हिंदी कविताओं में स्मृति का यही एक रूप नहीं है। इनमें स्मृतियों की बहुतायत है तो बहुरूपियापन भी है। 'नश्वर चीजों को ही अमरता का वरदान है' नामक कविता में हेमंत देवलकर 'किनारों पर पत्तों का ढेर जुगाली करता है स्मृतियों की' जैसा बिंब ही नहीं रचते हैं, बल्कि कविता की अंतिम पंक्तियों में उनकी चिंता भी करते हैं, जो अपनी स्मृतियों से बाहर हो गए हैं या बाहर कर दिए गए हैं - 'सिर्फ वे ही जो बाहर निकल गए हैं / अपनी स्मृतियों से / जिनके खोने की कौंध / खोने से ज्यादा खोने की खामोशी में है। 'कहना न होगा कि स्मृतियों की जुगाली असल में पत्ते नहीं, स्वयं कवि कर रहा है। और, यह जुगाली कविता की शाश्वत जुगाली है। नई सदी का कवि स्मृतियों की इस जुगाली को विशेष रूप से पसंद कर रहा है।

जाहिर है, स्मृतियों में वही जाता है जो वर्तमान में अधूरेपन, असंतोष और खालीपन का अनुभव करता है। वह वर्तमान में जो नहीं पाता है उसे स्मृतियों के अकूत खजाने से चुन-चुनकर वर्तमान को भरा-पूरा करना चाहता है। और, ऐसा हम सब करते हैं। नई सदी का कवि जब-जब इस तरह के अधूरेपन, खालीपन और असंतोष का अनुभव करता है तब-तब वह अपने अतीत के रिक्थ के पास जाता है। कभी-कभी सामयिक परिस्थितियाँ ऐसा वातावरण बनाती हैं जिसमें ऐसा करना जीने के लिए अत्यंत जरूरी हो जाता है। नई सदी की परिस्थितियों में अवश्य ऐसा कुछ है जो आज के कवि को स्मृति में धकेल रहा है। कुमार निर्मलेंदु की कविता 'चैत की बारिश में' उन परिस्थितियों की स्पष्ट झलक है। सरकारी आर्थिक नीतियों ने आज के मनुष्य को विस्थापन, अकेलापन और असंतोष दिया है। वह जीवित रहने के लिए मजबूरन शहरों में विस्थापित हो रहा है। जहाँ वह प्रकृति और संस्कृति से दूर है। वह अपने परिवार और समाज से दूर है। उस जीवन से दूर है जिसे उसने बचपन से शुरू किया था। वह बिना भावुक हुए नई परिस्थिति में अपने को स्थापित करने की जद्दोजहद कर रहा है, लेकिन अंततः वह इस जीवन से असंतुष्ट है। इसमें उसे पूरेपन की बजाय, अधूरेपन का एहसास अधिक होता है।

नई सदी के कवियों का यह स्मृति-प्रेम न पलायन है, न ही प्रतिगामिता है बल्कि मौजूदा समय में वह इससे संघर्ष की शक्ति पाता है। वह 'न दैन्यं न पलायनम' का कवि है। स्मृतियाँ इन कवियों की शक्ति है, कमजोरी नहीं। यह पुनरुत्थानवाद भी नहीं है बल्कि अपने समय के अधूरेपन का साक्षात्कार है। भावना मिश्र की एक कविता का नाम ही है - 'स्मृति।' लेकिन इसमें स्मृति कहीं नहीं है, अगर कुछ है तो वह वर्तमान के सिवा कुछ नहीं। लेकिन, कवियों का स्मृति-प्रेम है कि अपने लिए अवकाश निकाल ही लेता है! यहाँ स्मृति एक अलंकार के रूप में आई है - 'किसी के न होने में उसके होने की स्मृति की तरह।' समकालीन कविता में स्मृति ऐसे ही आई है, 'न होने में होने की स्मृति की तरह। '

महाभूत चंदन राय की एक कविता है - 'हवा के रुख के विरुद्ध।' यह हवा इतनी जहरीली और दमघोंटू हो गई है कि जीवन कठिन हो गया है। कुल मिलाकर यह कविता एक भयंकर समय में हमारे अस्तित्व के फँसे होने का एहसास कराती है। सब कुछ डरावना है, सब कुछ असह्य है, लेकिन नई सदी का कवि इस स्थिति में भी निराश नहीं है, उसकी नजर हर उस उम्मीद पर है जो भविष्य का एक रास्ता बन सकती है - 'इस समय में जब चीजें इतनी मृतप्राय और निर्जीव हो गई हैं / एक हरी दूब मुस्कराती हुई पूरे साहस के साथ खड़ी है / हवा के इस रुख के विरुद्ध।' जाहिर है, इस हवा में आज के कवि के न पाँव उखड़ते हैं, न ही वह प्रतिरोध और संघर्ष से विचलित होता है, बल्कि दूब की तरह साहस के साथ हवा के विरुद्ध डटा हुआ है। इसके अतिरिक्त सुखद और संपन्न वर्तमान का मनुष्य स्मृति-लोप का शिकार नहीं होता है। स्मृति हमेशा मनुष्य के साथ रहती आई है। कविता और स्मृति का नाता भी जगजाहिर है।

नई सदी के कवि के इस स्मृति-प्रेम और इस स्मृति-महिमा वर्णन के बाद यह भ्रम हो सकता है कि ये कवि अतीत के कानन में ही विचरण करते रहते हैं, और वर्तमान से कटे हुए हैं। नई सदी की कविताओं का एक सरसरी पाठ इस तरह के किसी भी भ्रम का निवारण करने में सक्षम है। सदा स्मृतियों में विचरना एक तरह का पलायन है, और जैसा कि हमने अभी देखा, ये कवि न अंध अतीत-प्रेमी हैं, न अतीत के अंतःवासी। इनकी जिंदगी वर्तमान में ही मुकम्मल होती है। महाभूत चंदन राय की एक कविता है - 'अंतिम इच्छा।' इसमें कवि की अंतिम इच्छा न अतीत के जीवन को दुहराने की है, न ही भविष्य के लिए मौजूदा जीवन को नींव बनाने की ही। वह सिर्फ आज में विश्वास रखता है। वर्तमान में ही सब - कुछ पा लेना चाहता है - 'मैं किसी नए जन्म की कामना नहीं करता / मैं चाहता हूँ इसी जीवन में एक वृक्ष की भाँति जन्मना। '

आज का कवि जैसे अतीत प्रेमी और भविष्य से आक्रांत नहीं है वैसे ही वर्तमान के प्रति मोहासक्त भी नहीं है। उसके लिए वर्तमान से मोहासक्त होने का कोई कारण भी नहीं है। वह वर्तमान को खुली आँख से देखता है और उसकी हर गति और धड़कन को समझता है, अनुभव करता है। उसके लिए वर्तमान उसका अपना काल-खंड तो है, लेकिन निष्कंटक नहीं है, बल्कि असंगतियों और विडंबनाओं से भरा हुआ है। महाभूत चंदन राय की कविताओं का वर्तमान तो डरावना और असह्य है ही अन्य कवियों का काव्य-संसार भी इस भय की काली छाया से भरा हुआ है। यह छाया एक ऐसी ऊब पैदा करती है जिससे साँस लेना भी मुश्किल हो जाता है। आज के कवि किसी भी तरह से इससे बच निकलना चाहते हैं - 'मैं दरअसल कर्तव्यों, अधिकारों, उत्तरदायित्यों, उपेक्षाओं, असफलताओं, झूठी क्षमा प्रार्थनाओं और क्षमाओं की क्षतिपूरक खानापूर्तियों से भरे इस बोझिल जीवन से ऊब चुका हूँ / मैं लगातार मशीनी होती इस आधुनिक सभ्यता शैली से छुटकारा चाहता हूँ / मैं मिट्टी का यह तन ढोते हुए महज मिट्टी नहीं होना चाहता और मरते हुए महज मृत्यु को पाना नहीं चाहता।' अन्य कवियों का वर्तमान भी कुछ कम घातक नहीं है। नित्यानंद गायेन की कविता 'जीवन के कुरुक्षेत्र में' वस्तुतः वर्तमान जीवन के कुरुक्षेत्र की सनद है। जिसमें वह अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्षरत है - 'कई सदियों से लगा हुआ हूँ / खुद को बचाने में / जी हाँ, कविता के बहाने / मैं खुद को बचाए रखने के संघर्ष में व्यस्त हूँ।' यह संघर्ष एक व्यक्ति नहीं, एक कवि नहीं बल्कि एक पूरी-की-पूरी पीढ़ी कर रही है।

नई सदी के कवि के सरोकार केवल स्थानीय नहीं हैं बल्कि वैश्विक हैं। उनकी चिंता में एक बेहतर भारत के साथ-साथ एक बेहतर दुनिया का स्वप्न भी है। अरविंद श्रीवास्तव एक ऐसे कवि हैं जो हिंदी कविता के वैचारिक सरोकारों को वैश्विक बनाने पर विशेष रूप से ध्यान देते हैं। वे हमारे समय को वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। 'अभी-अभी' कविता में वे दुनिया भर में मानवता पर हो रहे हमलों की खबर देते हैं। ऐसा करके वे हिंदी कविता के सरोकारों को वैश्विक आयाम देते हैं - 'अभी-अभी गजापट्टी पर बमबारी / अभी-अभी कंधार पर ड्रोन हमला / खून से लथपथ है यह धरा और / अभी-अभी एनीमिया से पीड़ित माँ ने / तोड़ा दम अस्पताल में!'

जब आज के मर्दों के दुखों का आलम यह है, तो औरतों के दुखों का तो सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है। नई सदी की कवयित्रियाँ हमें महिलाओं के जीवन-संघर्ष से ही नहीं बल्कि उनके मुकम्मल जीवन से भी परिचित कराती हैं। ऐसी ही एक कवयित्री हैं हेमा दीक्षित। उनकी कविताएँ हमें औरतों की दुनिया में ले जाती हैं, जहाँ वह 'गंदले पानी से धोती है / अपने सर माथे रखी / लाल स्याही की तरमी में / चुन-चुनकर निकालती है / कलेजे के कब्रगाह में गड़ी / छिनाल की फाँसें' और 'कुटती है/ पिटती है।' आज की कविताएँ महिलाओं के त्रासद जीवन के विविध पक्षों का अंकन ही नहीं करती हैं, बल्कि उन्हें जगाती भी हैं। इस त्रासदी का सबसे दुखद पक्ष यह है कि महिलाएँ अपनी स्थिति के प्रति उदासीन और अचेत हैं। हेमा दीक्षित 'हे सखी' कविता में ऐसी स्त्रियों को संबोधित करती हैं - 'अपने ही निजत्व / के विगलन का सेवा मूल्य / सेवाधर्मिता और सतीत्व के / रुग्ण खंभे से कसी बंधी / कसमसाती 'सेविका'।' अरविंद कुमार की कविता 'बच्ची' औरतों के भयावह वर्तमान को बड़ी मासूमियत से सामने रखती है - 'बच्ची सबकी / चिंताओं में आ गई है / पोलियो, टीबी, डिप्थीरिया, पीलिया और इंसेफेलाइटिस / यह दवा, वह खुराक, रेडियो, टीबी और अखबार / गुड़गाँव, मेरठ, भिवंडी, गोधरा, मुजफ्फरनगर, निठारी और तेजाब / आशंकाएँ, असुरक्षा और हवाओं में तैरता हुआ भय / सब सतर्क होकर सोचने लगे हैं।' यह औरतों की समाज में वर्तमान दशा है जो आज की हिंदी कविता में प्रतिबिंबित हुई है।

आज का मनुष्य तरह-तरह के अंतर्विरोधों और असंगतियों से भरा हुआ है। वह जिस व्यवस्था और संरचना में आकार ले रहा है वहाँ यह अंतर्विरोध वस्तुतः जीवन की कला है। एसपी सुधेश जैसे कवि आज के मनुष्य के अंतर्विरोधों को बखूबी पहचानते हैं और बड़ी साफगोई से उजागर करते हैं। 'नया एपिडेमिक' नामक कविता आज के बौद्धिक और विचारशील मनुष्य के अंतर्विरोधों की कविता है। अंतर्विरोध उसके सोच में ही नहीं है, बल्कि शब्द और कर्म में भी है। आदर्श और व्यवहार में भी है। सचेतन होने के उसके दावे के बावजूद उसके शब्द और कर्म में जो विलगाव है, वही इस अंतर्विरोध का स्रोत है। सुधेश इस अंतर्विरोध को मुखर होकर सामने लाते हैं - 'मुझे हर वस्तु चाहिए / पर वस्तु बनना पसंद नहीं / हर वस्तु का उपभोक्ता हूँ / पर उपभोक्तावाद पसंद नहीं / बाजार जाना ही पड़ता है / पर बाजारवाद पसंद नहीं।' यह अंतर्विरोध आज के मनुष्य की नियति बन गया है। मुक्ति के वैचारिक और दार्शनिक निरूपणों को व्यवहार में लाए बिना उनका कोई मूल्य नहीं, यह वह जानता है, लेकिन आज का मनुष्य मुक्ति के लिए जिन विचारों और कार्यक्रमों को तय करता है, उसका पालन करने भर की स्वतंत्रता भी उसके पास नहीं है। इसलिए वह अंतर्विरोधों और विडंबनाओं से ग्रस्त रहने के लिए बाध्य है। ये अंतर्विरोध मनुष्य की असहायता और बेबसी को और अधिक दारुण और मार्मिक बनाते हैं। कभी - कभी उसे अत्यंत हास्यास्पद और हिप्पोक्रेट भी बनाते है। जो भी हो, एक अच्छी बात यह है कि आज के कवि सभ्यता के असभ्य संकट में फँसे आज के मनुष्य की नियति को और अधिक स्पष्ट करते हैं।

इस तरह की कविताएँ कोरी भावुकता की कविताएँ नहीं हैं, बल्कि ये आज के मनुष्य की विचारशीलता की साक्ष्य भी हैं। सुधेश की यह कविता अत्यंत विचारपूर्ण है। अंत में इसकी विचारशीलता चरम पर है - 'पर आज वैश्वीकरण उदारीकरण बाजारीकरण/ फल फूल रहे हैं / नए एपिडेमिक की तरह।' इसी तरह नित्यानंद गायेन 'उदारवादी लोग' कविता में काफी विचार देते हैं, वैचारिक शब्दावली में। वे मनुष्य को विचारधारा के अनुयायी के रूप में भी देखते हैं - 'यहाँ प्रगतिशील और उदारवादी लोगों की एक बड़ी भीड़ है।' सुधेश की तरह गायेन ने भी शिक्षित और प्रगतिशीलता के दावेदारों के व्यवहार की निंदा की है। उनके असली रूप को उजागर किया है। लेकिन, 'एक बड़ी भीड़ हो या दो छोटी-छोटी भीड़' कवि को बौद्धिक विमर्श की शब्दावली की भीड़ में खो जाने की सलाह नहीं दी जा सकती।

ऐसा नहीं है कि इस तरह पारिभाषिक शब्दों और दार्शनिक अवधारणाओं के प्रयोग के बिना कविता में विचारशीलता का समावेश नहीं किया जा सकता, लेकिन आज का कवि उच्च शिक्षित है, विचार और बौद्धिकता से कविता की ओर आता है, काव्य-कला-शिक्षा का उसके पास अवकाश और धैर्य कहाँ! कविता में इस तरह के पद-बंधों के इस्तेमाल के कारण कभी मुक्तिबोध की बड़ी आलोचना हुई थी। नामवर सिंह ने अपने पत्रों में उन्हें पारिभाषिक शब्दों, पदावलियों और दार्शनिक अवधारणाओं वाले शब्दों के प्रयोग से बचने की सलाह दी थी। फिर भी, इस प्रवृत्ति से न मुक्तिबोध बच सके, न बाद के कवि और दिनोंदिन स्थिति इतनी जटिल होती गई कि आज के कवि के लिए इस तरह के शब्दों का प्रयोग एक अनिवार्यता बन गया है। भले ही आचार्यगण इसे अच्छी और ग्राह्य कविता के लिए घातक मानते आए हैं और सुकवियों को चेताते आए हैं फिर भी आज का कवि अपनी बात कहना चाहता है और इन शब्दों के प्रयोग से वह अपनी बात को वैचारिक रूप से गंभीर बनाकर पाठक तक पहुँचा देना चाहता है। इसकी कीमत चाहे उसे पाठकीयता के संकट के रूप में ही क्यों न चुकानी पड़े!


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