(
विशेष संदर्भ : '
वाजश्रवा के बहाने')
कुँवर नारायण हिंदी कविता की ऐसी विरल उपस्थिति हैं जिनके यहाँ वह सब कुछ
विद्यमान है, जो दूसरे कवियों के यहाँ मौजूद है, परंतु जो चीज कुँवर जी के
यहाँ है, वह अन्य कवियों के यहाँ नगण्य है। कुँवर नारायण की कविता में वर्तमान
और मिथकीय इतिहास के बीच जो आवाजाही है, मिथकीय घटनाओं से वर्तमान संवेदना की
जो टकराहटें हैं, काल और इतिहास का जो स्वअर्जित काव्य-विवेक है और अनुभूति की
जैसी शुद्धता कुँवर नारायण में है, वह हिंदी कविता के इतिहास में शमशेर बहादुर
सिंह के सिवाए और कवियों में बेहद कम नजर आती है। अनुभूति की जैसी शुद्धता और
शब्द-स्फीति से सायास बचने की जैसी अतिरिक्त सतर्कता शमशेर के यहाँ मौजूद है
और कई बार उनकी यह खूबी उनकी सीमा भी बनती हुई-सी लगती है। लेकिन कुँवर नारायण
बहुत खूबसूरती से इन चीजों से स्वयं को बचा लेते हैं। शब्द-स्फीति का आग्रह
शमशेर में इतना प्रबल है कि इन आग्रहों के बीच इस वजह से कई बार क्रिया तक
उपेक्षित रह जाती है और उनकी कविता का अर्थ-कवच और अधिक परुष बन कर रह जाता
है। दूसरी बात यह कि नामवर जी ने शमशेर की इस प्रयत्नसाध्य पवित्रता के बारे
में लिखा है, 'शमशेर की आत्मा ने अपनी अभिव्यक्ति का जो एक प्रभावशाली भवन
अपने हाथों तैयार किया है, उसमें जाने से मुक्तिबोध को भी डर लगता था - 'उसकी
गंभीर प्रयत्नसाध्य पवित्रता के कारण।' इस पवित्रता का अहसास मुझे भी है और डर
भी कम नहीं।' परंतु कुँवर नारायण में ऐसी प्रयत्नसाध्य पवित्रता का प्रभावशाली
भवन शायद ऐसा नहीं है, जहाँ जाने से किसी भी सहृदय पाठक को किसी भी तईं डरने
की जरूरत हो। बल्कि कई बार उनकी कविता इतनी आत्मीयता से कंधे पर हाथ रखकर,
दैनंदिन की बातों से इतिहास की यात्रा पर निकल जाती है, जहाँ से चीजें पूरे
परिदृश्य को और अधिक आलोकित और स्पष्ट करती हुई-सी चलती हैं।
यह सच है कि इतिहास को समझे बगैर वर्तमान को ठीक से नहीं समझा जा सकता, लेकिन
उसके साथ ही यह नहीं भूलना चाहिए कि इतिहास यदि वर्तमान को प्रभावित करता है,
तो कदाचित् वर्तमान भी इतिहास को प्रभावित किए बिना नहीं रहता। दोनों के बीच
काल की टकराहटों को एक कवि जिस संवेदना और विवेक से देखता - विश्लेषित करता है
और एक उत्तम काव्य में रूपांतरित करता है, उसके कुँवर नारायण अकेले बड़े
उदाहरण हैं! 'आत्मजयी' और 'वाजश्रवा के बहाने' की कविताओं में जहाँ वे मृत्यु,
काल और मिथकीय घटनाओं से टकराते हुए वर्तमान काल की विडंबनाओं को अनावृत्त
करते हुए चलते हैं, वहीं आम जीवन की छोटी-छोटी घटनाएँ भी उनसे अलक्षित नहीं
रहती हैं। उनकी काव्य-दृष्टि ऐसी है कि उनके छू भर देने से छोटी-सी बात भी एक
बड़े फलक और बड़े आयाम को पा जाती है। कहते हैं अंतोन चेखव किसी भी चीज पर
कहानी लिख सकते थे और नागार्जुन किसी भी विषय पर कविता लिख सकते थे या इसको इस
तरह भी कहा जा सकता है कि वे मादा सूअर को भी 'मादरे-हिंद की बेटी' कह सकते
थे। इसलिए नागार्जुन के यहाँ न केवल काव्य-विषयक वैविध्य की प्रचुरता है बल्कि
अभिव्यक्तिगत वैविध्य की ऊँचाई भी कम नहीं है। कुँवर नारायण में जहाँ शमशेर
जैसी अनूभूति की शुद्धता है, वहीं नागार्जुन की तरह काव्य-विषयक वैविध्य और
अभिव्यक्तिगत वैविध्य का शिखर भी विद्यमान है। कुँवर नारायण जैसे सजग और
बहुपठित कवि अपनी भाषा की कवि-परंपरा से सकारात्मक चीजें ग्रहण करते हुए भी
अपने निज कंठ-स्वर को बनाते / बचाते हुए अपने स्वर की ऐसी छाप छोड़ते हैं
जिससे किसी भी भाषा-साहित्य का इतिहास समृद्धतर होता है। कुँवर नारायण जैसे
कवि का व्यापक जीवन-विवेक उनके काव्य-विवेक और प्रतिबद्धता को और अधिक स्पष्ट
करता हुआ चलता है। उनकी कविता है 'अबकी बार लौटा तो' जिसमें वे कहते हैं, 'अगर
बचा रहा तो / कृतज्ञतर लौटूँगा / अबकी बार लौटा तो / हताहत नहीं / सबके
हिताहित को सोचता / पूर्णतर लौटूँगा।'
ऐसा नहीं है कि कुँवर नारायण अपने समय और जीवन की नकारात्मक घटनाओं / बातों से
अनजान हैं या ऐसी चीजें जाने या अनजाने अपनी दृष्टि से ओझल कर देते हैं।
वस्तुतः वे चीजों के सकारात्मक और प्रशंसात्मक पक्षों को देखने वाले कवि हैं।
आज प्रेम और सृजन की शक्ति को हमारे समाज ने लगता है कहीं पीछे छोड़ दिया है
और नफरत को एक जीवन-मूल्य-सा मान लिया है। शायद इसलिए प्रेम करने से लोगों की
सामाजिक हैसियत और इज्जत प्रभावित होती है और अपनी संतानों को मौत के घाट उतार
देने में उन्हें तनिक भी हिचक नहीं होती। आखिर ये कैसा समाज हमने बना डाला है,
जो प्रेम के प्रतिदान-स्वरूप बच्चों को मृत्यु देता है और घृणा का महिमामंडन
सार्वजनिक तौर पर करता है! कुँवर जी अपनी कविता 'इतना कुछ था' में कहते हैं,
'इतना कुछ था दुनिया में / लड़ने झगड़ने को / पर ऐसा मन मिला / कि जरा-से
प्यार में डूबा रहा / और जीवन बीत गया।' जरा-से प्यार में डूबा हुआ मन वाले
समाज में पिछले कुछ दशकों में जिस तरह सुनियोजित ढंग से घृणा के बीज बोये गए
हैं उसने जरा-सा प्यार में डूबे हुए जीवन जी लेने वाले समाज को असंभव बना दिया
है। अक्षय चक्रवर्तीत्व के स्वप्न में डूबे हुए समाज को कुछ भी 'जरा-सा' नहीं
चाहिए। वह अपने स्वार्थ के लिए किसी चीज को नष्ट कर सकता है और अपनी निज-सफलता
के लिए किसी भी स्तर तक जा सकता है।
सत्ता और शक्ति पर एकाधिकारवादी प्रवृत्ति के प्रसार ने मनुष्यता और संवेदना
को कहीं पीछे छोड़ दिया है और दोहन और शोषण आज उसके मूल्य बन गए हैं। इसी
मानसिकता ने सन् 1992 में अयोध्या और 2002 में गुजरात को घृणा और अमानवीयता के
एक प्रतीक में प्रत्यावर्तित कर दिया है। कहना न होगा कि इसलिए अपने
साक्षात्कारों तक में कुँवर नारायण कहते हैं कि 'तट पर हूँ, तटस्थ नहीं'। और
वे यह बात महज ऐसे ही नहीं कहते, उदाहरण देखिये, 'हे राम / जीवन एक कटु यथार्थ
है / और तुम एक महाकाव्य! / तुम्हारे बस की नहीं / उस अविवेक पर विजय / जिसके
दस बीस नहीं / अब लाखों सर-लाखों हाथ हैं / और विभीषण भी अब / न जाने किसके
साथ है।' इस अविवेक पर विजय न प्राप्त कर पाने की राम की अक्षमता के बहाने
दरअसल कवि राम के दैवीय शक्ति की शिथिलता के साथ-साथ वर्तमान समाज की रचनात्मक
शक्तियों की दुर्बलता को रेखांकित करते हैं, जिसमें महाकवि का शायद वह पराजय
बोध भी है - 'हो गया व्यर्थ जीवन मैं रण में गया हार।' इसी कविता में कुँवर जी
आगे कहते हैं, 'इससे बड़ा क्या हो सकता है / हमारा दुर्भाग्य / एक विवादित
स्थल में सिमट कर / रह गया तुम्हारा साम्राज्य।' जिस राम को पूरे जग में
तुलसीदास सियाराममय मानते और 'करहुँ प्रनाम जोरि जुग पानी' कहते हैं उस राम की
अयोध्या को आधुनिक मानव-समाज ने किस तरह दैहिक, दैविक और भौतिक तापों का
प्रतीक बन दिया! यह सोचते हुए थोड़ा अजीब लगता है कि तुलसीदास की मिथकीय
त्रेता की वह कैसी पुरातनता थी जिसमें किसी को किसी भी तरह का कोई ताप नहीं
व्यापता था, जबकि तकनीक और विज्ञानसंपन्न आधुनिकतासंपन्न धर्म, शब्दों और अन्य
अस्मिताओं की पृथकता को हिंसा और विध्वंस की वाजिब वजह मानती है! आज देश में
अनेक तरह की अयोध्याओं को देखा और महसूस किया जा सकता है, जिसकी परिणति अंततः
आम और निरीह जन को दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से प्रताड़ित करना ही रह गया
है। अयोध्या के गलियारों से राजनीतिक, आर्थिक सत्ता की संभावनाओं फूटती रही
हैं, इतिहास के पाठ-कुपाठ की सिसकियाँ निकलती रही हैं - वहाँ अब दैहिक, दैविक
और भौतिक तापों से मानवता के त्राण की कोई काव्य-संभावना तक शायद शेष नहीं
रही।
अयोध्या में राम-शिला पूजन से जो राजनीति शुरू हुई और बाबरी मस्जिद के विध्वंस
में भी जिसका पर्यवसान नहीं हुआ, जिसकी सांगठनिक उग्र परिणति गुजरात में दिखाई
पड़ी क्या वह सब भारतीय समाज में अचानक ही घटित हुआ? किसी भी भाषा-साहित्य की
कविता अपने समय की आँख होती है, तो क्या हिंदी कवियों ने अयोध्या के बाद भी
सांप्रदायिकता के तीक्ष्ण नखों और क्रूरताओं को ठीक-ठीक लक्षित नहीं किया?
सांप्रदायिकता को लेकर अयोध्या के बाद हालाँकि हिंदी में कविताएँ लिखी गईं,
परंतु उन कविताओं में कितनी मार्मिकता है और वे सही मायनों में वाकई कितनी
'कविता' भी है, यह विचारणीय है। सांप्रदायिकता को लेकर अपने पक्ष को चुनने के
मामले में अधिकांश कवियों में कवि होहुँ और चतुरता छिपाऊँ वाली मानसिकता के
तहत 'पोलिटिकली करेक्ट' होने की करियरिस्ट व्याकुलता अधिक दिखाई देती है।
सच्ची भावुकता के स्थान पर शायद पेशेवर रुदाली का रुदन अधिक दिखाई देता है। इस
प्रतिमान पर देखें, तो कुँवर नारायण की 'अयोध्या' जो इत्तफाक से सिर्फ राम की
ही अयोध्या नहीं है, स्वयं कवि की जन्मभूमि भी वही अवध है और षड्यंत्रपूर्वक
जिसे सांप्रदायिकता और घृणा के प्रतीक में बदला गया, उसकी दुर्दशा उन्हें
आहत-मर्माहत ही नहीं करती, गहरे विषाद और अपराध-बोध से भी भर देती है। इसलिए
वे राम से कहते हैं कि हे राम वह त्रेता-युग था और यह नेता-युग है। नेता-युग
की सारी कवायद सत्ता के लिए होती है, मनुष्यता के लिए, जीवन-रक्षा के लिए
नहीं। यह कविता अपनी अयोध्या के लिए कवि का 'शोकगीत' है, ठीक वैसा ही शोक और
निरर्थकता-बोध जैसा निराला के यहाँ है। अपनी पुत्री सरोज से क्षमायाचना करते
पिता का वह चित्र कवि की ईमानदार अभिव्यक्ति और निरर्थकता-बोध का एक मार्मिक
उदाहरण है, 'धन्ये मैं पिता निरर्थक था / तेरे हित न कुछ कर सका।' अपनी
अयोध्या को सांप्रदायिकता के इस प्रतीक में निरंतर बदले जाते हुए देखते रहने
की जो विवशता है और उसे न रोक पाने का जो सच्चा अपराध-बोध है, वह कुँवर नारायण
की इस कविता में बहुत शिद्दत से उभरकर आया है।
जीवन, मृत्यु, प्रेम, शोक आदि कविता के ऐसे शाश्वत विषय हैं जिनसे हर काल का
कवि किसी-न-किसी रूप में कभी-न-कभी अवश्य टकराता है। आज से लगभग आधी सदी पहले
प्रकाशित अपने खंड काव्य 'आत्मजयी' में कुँवर नारायण ने जीवन और मृत्यु को जिस
दार्शनिक अंदाज में देखा वह पाठकों को संसार और जीवन की नश्वरता का जिस तरह
बोध कराती है, उसके के बाद कुछ देर के लिए ही सही एक प्रकार का 'श्मशान
वैराग्य' उत्पन्न होता है। लेकिन वर्ष अपने अगले खंड काव्य 'वाजश्रवा के
बहाने' में वे इस भाव को बिल्कुल उल्टे और अलग तरीके से देखने की चेष्टा करते
हैं। स्वयं कवि के अनुसार, 'वाजश्रवा के बहाने जीवन के इसी प्रबल आकर्षण के
स्पर्श की चेष्टा है। इस जिजीविषा के विभिन्न आयाम चाहे भौतिक हों या आत्मिक,
चाहे बौद्धिक (दार्शनिक) हों या भावनात्मक, तत्वतः वे हैं जैविक ही। 'आत्मजयी'
में यदि मृत्यु की ओर से जीवन को देखा गया है, तो 'वाजश्रवा के बहाने' में
जीवन की ओर से मृत्यु को देखने की एक कोशिश है।'
इन दो खंड काव्यों के अतिरिक्त कुँवर जी की जो अन्य कविताएँ हैं, उनका
काव्यात्मक फलक कम नहीं है। आज यह आवश्यक नहीं है कि कोई कवि काव्यशास्त्रीय
मानकों को आधार मानकर धीरोदात्त नायक को लेकर आठ-दस सर्गों में महाकाव्य लिखे
तभी वह महाकवि होने का अधिकारी हो सकता है। महाप्राण निराला ने कोई महाकाव्य
नहीं लिखा, इसके बावजूद वे पाठकों, विद्वानों और विद्यार्थियों के बीच महाकवि
कहे और माने जाते हैं। प्रश्न तो यह भी पैदा होता है कि आप जितना लिखते हैं
उसमें कितना कहते हैं? जो और जितना आप कह पाते हैं उससे निर्धारित होता है
आपकी कविता की अर्थवत्ता, प्रासंगिकता और कवि की महत्ता। परंतु आज कवियों में
जिस तरह 'अमरत्व' प्राप्त करने की औरंगजेबी प्रवृत्ति पनप चुकी है, उसमें
कविता में महाकाव्यात्मक फलक तो दूर, कविता की सार्थकता तक ढूँढ़ना कठिन है।
हड़बड़िया कविताओं की गड़बड़िया कवि-सैन्य प्रवृत्ति पर कुँवर नारायण की यह
कविता कितनी सटीक बैठती है, देखिए, 'जल्दी का जमाना है / सब जल्दी में हैं /
कोई कहीं पहुँचने की जल्दी में / तो कोई कहीं लौटने की।' लेकिन हैरत तब होती
है जब आप इन हड़बड़िया समुदाय से यह पूछ बैठें कि आखिर इस हड़बड़ी की मंजिल
क्या है या इससे भी अधिक कि आखिर इसका हासिल क्या है, तो बकौल कुँवर जी, 'आपको
आश्चर्य होगा / कि इस तरह रोके जाने के खिलाफ / उसके पास कोई तैयारी नहीं।'
कुँवर जी जीवन के जिस भी क्षण, पल या घटना को अपना काव्य-विषय बनाते हैं, उसके
छोर को पकड़कर आप जीवन की संपूर्णता को उसके पूरेपन में देख सकते हैं।
वाजश्रवा सिर्फ मिथकीय चरित्र भर नहीं है, उसके चरित्र में हम आज के जीवन की
घटनाओं-परिघटनाओं की प्रतिच्छाया भी देख सकते हैं। वे कहते भी हैं, 'वाजश्रवा
के मन में आत्मिक ऊहापोह कम हैं, वैदिक जीवन-दृष्टि की लौकिकता प्रमुख है। आज
की भौतिकता में भी उसकी एक झलक पहचानी जा सकती है। साथ ही, वाजश्रवा के मन में
गहरा विक्षोभ भी है उस 'अशुभ क्रोध' को लेकर जिसके कारण उसके जीवन-यज्ञ में
इतना बड़ा व्यवधान पड़ गया।' इसलिए कठोपनिषद के वाजश्रवा को कुँवर जी आज के
उत्तर-आधुनिकोपनिषदीय परिदृश्य में जिस शोक, पश्चाताप और विडंबना के साथ
रेखांकित करते हैं, दुर्भाग्य से हिंदी काव्य-आलोचना में इसकी जैसी और जितनी
पहचान, विश्लेषण और रेखांकन अपेक्षित था, उतना नहीं हुआ। वैदिक युग का जो आज
था, जो कल था, जो काल और काल का बोध और मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति थी, उसमें
कोई मूलभूत अंतर नहीं आया है। 'वाजश्रवा के बहाने' की पहली कविता में कुँवर जी
कहते हैं, 'वह 'आज' वैसा ही है / जैसा कोई 'आज' रहा होगा / इस आज से कहीं बहुत
पहले / तब भी पूरी दुनिया को / जीत लेने की हड़बड़ियों से लैस / निकलते होंगे
/ सजेधजे सूरमाओं के झुंड / और शाम को घर लौटते होंगे पस्त / दिनभर की धूल
चाटकर / थकी-मांदी हताशाओं के बूढ़े सिपाही!' इस कविता की गहरी मारकता और
प्रतीकात्मकता अद्भुत है! दुनिया को जीत की लेने की सिकंदरी महत्वाकांक्षा की
शिकार अकेली महाशक्ति अपने से आकार और शक्ति में कई गुणा छोटे देशों से
थक-हारकर 'आज' भी उसी तरह बार-बार दुनिया जीतने की सिकंदरी इच्छा के साथ
निकलती है, पराजित होती है और थकी-मांदी हताशाओं के सैनिक उसी तरह सोते, जगते
और जीते हैं 'आज' भी, जैसे कभी वैदिक युग के 'आज' में यह सब करते होगें सैनिक
और सजे-धजे सूरमा।
'वाजश्रवा के बहाने' में शक्ति के उग्र और विस्फोटक रूप की अपेक्षा संयत, उदार
और अनुशासित पक्षों में अधिक आस्था व्यक्त की गई है। वाजश्रवा के भीतर जो
क्षमाभाव और पश्चाताप है उसकी आकुल पुकार की अत्यंत मार्मिक अभिव्यक्ति इस
संकलन की कविताओं में हुई है। वाजश्रवा-नचिकेता प्रसंग में लोकमानस में
वाजश्रवा की जो लोक-छवि है उससे अलग एक पिता का पुत्र-प्रेम, पश्चाताप आदि के
साथ-साथ जीवन के अनेक शेड्स यहाँ देखे जा सकते हैं। 'उसका रुदन जैसे एक स्तवन
से / गूँज उठा हो भुवन का कोना-कोना / वह छा गया है आक्षितित / व्योम से परे
तक / प्रदीप्त हैं / लोक परलोक।' भारतीय साहित्य की परंपरा में प्रिय या
प्रिया से विछोह के बाद आकुलता, किए का पश्चाताप आदि भावों की अनेक कृतियों
में अनेक मार्मिक प्रसंग हैं। कालिदास का यक्ष हो या सीता के वियोग में
पेड़-पौधे और जीव-जंतुओं तक से सीता का पता पूछने वाले तुलसीदास के राम - 'लौट
आ ओ धार' की आकुल पुकार उनका स्थायी भाव होता है। तुलसीदास ने लिखा है, 'रहे न
आरत के चित चेतू / बार-बार कहे आपन हेतू।' बार-बार आपन हेतु कहने की यह
बारंबारता वाजश्रवा की व्यथा और करुणा में पूरी तरह सन्निहित ऐसे उदात्त भावों
का सृजन करता है कि ठेठ नागार्जुनीय शब्दावली में उनसे से यह पूछने का मन करता
है - 'कुँवर नारायण सच सच बतलाना / नचिकेता के दान-शोक से / वाजश्रवा रोया या
तुम रोए थे?'
'वाजश्रवा के बहाने' की भूमिका में कुँवर जी लिखते हैं, 'पिता-पुत्र के
संबंधों को मूलतः द्वंद्वात्मक ढंग से न देखकर संयुक्त या 'दोहरी' जीवनशक्ति
के रूप में देखा गया है।' यह सच है कि है कि जीवन में संघर्ष भी हैं, पर
संघर्ष-ही-संघर्ष नहीं हैं। संघर्ष और हिंसा अतिवाद में है न कि विभिन्नताओं
में। वाजश्रवा के पश्चाताप की एक बानगी देखिए, 'लौट आओ प्राण / पुनः हम
प्राणियों के बीच / तुम जहाँ कहीं भी चले गए हो / हम से बहुत दूर - / लोक में
परलोक में / तम में आलोक में / शोक में अशोक में / लौट आओ प्राण।' पुत्र के
लौटने की वाजश्रवा की एक पुकार की कातरता से गूँजती रहती हैं दिशाएँ, जिसे
सदियों बाद भी एक कवि सुनता है, अपने समय में आवृत्ति और विडंबनाओं को देख
अनावृत्त करता है। पीढ़ियों की दीवार अक्सर पिता-पुत्र के संबंधों में तनाव और
दुख का कारण बनती है। इसलिए वाजश्रवा कहता है, 'जानता हूँ / दीमक-लगी चौखटों
की / बासी नक्काशियों को पार कर / भुतही हवेलियों में पाँव रखते / झिझकेगा एक
नवागत पुत्र का भविष्य-बोध।' इसलिए पुत्र के आज से पिता के कल को जो दीवार
बाँटती है, आज के युग से बीत चुके कल की दीवार को जो अंतराल बढ़ाती है, उसे
पाटना हमेशा से कठिन रहा है।
दीवार चाहे दो दिलों के बीच खिंच जाए, दो संस्कृतियों, दो धर्मों और दो
समुदायों के बीच उठ जाए - कभी अच्छा नहीं होता। दीवारें अक्सर सुख का कारण कम
और दुख का करण अधिक बनती हैं। दो समय में पैदा हुए दो लोगों के बीच बीता हुआ
समय सिर्फ बीता हुआ समय भर ही नहीं होता, वह दो तरीके की मानसिकता और सोच को
भी इन अंतरालों में बना देता है। जीवन-विवेक और समय-बोध को पृथक कर देता है।
इस वजह से 'दीवारें' बन जाती हैं, 'कम दीवारों से बड़ा फर्क पड़ता है /
दीवारें न हों / तो दुनिया से भी बड़ा हो जाता है घर।' वाजश्रवा के जीवन-काल
में नचिकेता का लौट आना महज लौट आना भर ही नहीं है, संवाद और प्रेम का पुनः
लौट आना संभव होना भी है। वाजश्रवा के लिए चौथे पहर में जीने और मरने का वही
अर्थ नहीं रहा, जो जीवन के पूर्व पहरों में था। 'कठिन होता है समझ पाना जीने
का अर्थ / आयु के चौथे पहर में / जब बदल जाते हैं / युद्ध और शांति के अर्थ /
तब हम केवल जीतने के लिए नहीं / केवल न-हारने की लड़ाई लड़ते हैं।'
कुँवर नारायण 'वाजश्रवा के बहाने' में मंत्र जैसी शक्ति से परिपूरित इतनी अधिक
कविताएँ हैं कि सारी कविताएँ उद्धरणीय प्रतीत होती हैं। उनके पास अपार
जीवनानुभव के साथ-साथ विराट् और व्यवस्थित अध्ययन भी है। इस कारण चाहे वे आज
के विषय-वस्तु पर कविता लिखें या वाजश्रवा-प्रसंग लिखें-इतिहास-आख्यान और
वर्तमान तीनों में लगातार उनकी आवाजाही बनी रहती है। इसलिए प्रिय से विछोह के
कारण नैकट्य की आकुलता को अभिव्यक्त करने वाले कवि को अति-नैकट्य के ऋणात्मक
पक्षों का भी ज्ञान है। वे इसी संग्रह की 'असंख्य नामों के ढेर' शीर्षक कविता
में कहते हैं, 'निकटताओं के बीच भी / जरूरी है दूरियों के अंतराल / चमकने के
लिए / जैसे दो शब्दों को जोड़ती हुई / खामोश जगहों से भी / बनता है भाषा का
पूरा अर्थ / बनता है तारों-भरा आकाश।' संस्कृत की एक उक्ति है - 'अति परिचयात्
अपमानस्य कारणम्।' क्योंकि कुँवर नारायण ऐसे सामीप्य की व्यवहारिक मुश्किलों
को जानते हैं, 'बचना होता है ऐसे सामीप्य से / जो नष्ट कर दे दो संसारों को /
जो बदल दे निकटता के अर्थ को / एक घातक विस्फोट में!' प्रकृति का नियम है
विकास के लिए एक निश्चित दूरी, रागानुराग के लिए एक निश्चित अंतराल। जिस तरह
धान के बीज को पहले एक खेत में उगाते हैं और फिर उन पौधों को वहाँ से उखाड़कर
दूसरे खेत में उचित दूरी पर दोबारा रोपते हैं, जहाँ वह पर्याप्त जीवन-रस और
पोषण पाकर फूलता-फलता है, उसी तरह संबंधों के मामले में भी सच है।
हिंदी कविता के इतिहास में कुँवर नारायण का निज कंठ-स्वर उनके तमाम समकालीन
कवियों से बिल्कुल अलग है, जिसे बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के लक्षित किया जा
सकता है। जिस तरह निराला, मुक्तिबोध के निज कंठ-स्वर को हिंदी कविता के सहृदय
पाठक आसानी से पृथक कर सकते हैं, कुँवर नारायण के समकालीन कवियों में जिस तरह
रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा के निज कंठ-स्वर को भी अलग से पहचाना जा सकता
है, उसी तरह कुँवर जी का निज कंठ-स्वर भी अन्य कवियों से सर्वथा पृथक है और
निश्चित रूप से उनके समकालीनों में अलग से रेखांकित करने योग्य है। दूसरी बात,
भाषिक वैविध्य और काव्य-शिल्प के वैविध्य के मामले में भी कुँवर जी का जो रेंज
है, वह आप हर किसी में नहीं पा सकते, लेकिन हर बड़े और महान कवि में अवश्य पा
सकते हैं। तुलसीदास में भाषा, भाव, काव्य-शिल्प और स्वरों की जितनी विविधता
है, कालिदास और भवभूति के यहाँ जो वैविध्य है वह भारतीय कविता के इतिहास में
कुछ ही गिने-चुने कवियों के यहाँ देखा जा सकता है। समकालीन हिंदी कविता की एक
बड़ी त्रासदियों में से एक यह भी है कि चमकदार भाषा और एक समय-स्वीकार्य-शिल्प
प्राप्त कर लेने वाले कवियों के यहाँ अपार परिमाणात्मक काव्य-वृद्धि तो मिलती
है, गुणात्मक परिणाम कम और भाषा एवं स्वर-वैविध्य तो बेहद कम पाया जाता है।
कवि-आलोचक विष्णु खरे ने एक ऐसे ही एक 'वरिष्ठ' कवि की कविताओं की समीक्षा
करते हुए थोड़ी कठोर भाषा में कभी उन कविताओं को 'चुसे हुए शब्दों का मलबा'
कहा था। निराशाजनक यह है कि आज चुसे हुए शब्दों का मलबा कही जाने लायक कविताओं
के विशाल 'भंडार' को लेकर आलोचना चुनी हुई चुप्पी या कतिपय अन्य कारणों से
खोटे सिक्कों की बड़ी ढेर से असली और खरे सिक्के को अलग नहीं कर पा रही है।
परिणामस्वरूप सार्थक और प्रासंगिक कविताओं की पहचान और उसके महत्व के रेखांकन
के साथ-साथ हिंदी कविता के पाठकों के काव्य-विवेक को जाग्रत और परिष्कृत करने
का काम जिस आलोचना को ईमानदारी से करना चाहिए था वह अपने दायित्व के निर्वहन
में पूरी तरह सफल नहीं रही है। इस वजह से अच्छी और बुरी, बेहद अच्छी और बेहद
बुरी कविता का फर्क मिटता जा रहा है और इससे न सिर्फ कविताओं की विश्वसनीयता
और शक्ति में कमी आई है बल्कि आलोचना भी प्रश्नांकित होती है।
'वाजश्रवा के बहाने' में कुँवर जी अपने-अपने समय के हर बड़े कवि की तरह सामयिक
प्रश्नों के साथ-साथ जीवन के शाश्वत प्रश्नों से भी टकराते हुए आगे बढ़ते हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल 'कविता क्या है?' के प्रश्नों से सन् 1909 से लेकर अगले
डेढ़-दो दशकों तक टकराते रहे, पंत को महसूस हुआ कि 'वियोगी होगा पहला कवि आह
से उपजा होगा गान' और धूमिल ने भी कविता में ही कविता को परिभाषित करने का
प्रयत्न किया। इस कड़ी में यदि कुँवर जी को देखें तो वे 'कविता' शीर्षक से
लिखी बहुत छोटी-सी कविता में कहते हैं, 'कोई चाहे भी तो रोक नहीं सकता / भाषा
में उसका बयान / जिसका पूरा मतलब है सचाई / जिसकी पूरी कोशिश है बेहतर इनसान।'
जिस तरह सच्ची और बेहतर कविता की पहचान कठिन से कठिनतर होती जा रही है, उसी
अनुपात में बेहतर इनसान की कोशिश और सचाई के पक्ष में खड़ी होने वाली कविताओं
की संख्या वास्तविक तौर पर निरंतर घटती जा रही है।
अनुभूति की शुद्धता और शमशेर की जिस 'प्रयत्नसाध्य पवित्रता' की चर्चा हमने
शुरू में की थी, उसके साथ-साथ 'काल' बोध को लेकर दोनों कवियों में जो साम्य
है, उसे सहज ही लक्षित किया जा सकता है। शमशेर काल से होड़ लेते हुए दिखाई
देते हैं, तो कुँवर नारायण काल के अलग-अलग पहलुओं को बेहद बारीकी और दार्शनिक
अंदाज में देखते हैं-अनेक कविताओं में अनेक बार काल अनेक रूपों में आता है। अब
जैसे काल का यह रूप देख लीजिए, 'कभी उसे लगता है / 'कल' एक भविष्य है / और वह
उसका मिथक, / कभी लगता है 'कल' एक अतीत है / और वह उसका 'मृतक' / कभी लगता है
'आज' एक 'संधि' है / दोनों से युक्त और दोनों से पृथक।' आज और कल, कल और
परसों, परसों और बरसों के माप में मापने की सामान्य मनुष्योचित कोशिशों से हट
कर कुँवर नारायण एक दार्शनिक कवि की तरह समय को देखते और परिभाषित भर करने की
ही कोशिश नहीं करते, उसके बरक्स यह दृष्टांत भी रखते चलते हैं कि समय कहाँ
बीतता है, हम बीत जाते हैं। मनुष्य शिशु से युवा और युवा से वृद्ध और फिर
वयोवृद्ध होकर बीतता चला जाता है, समय कहाँ बीतता है!
कुँवर नारायण की कविता को पढ़ते हुए मेरे जैसा पाठक बार-बार आज लिखी जा रही
कविताओं की तरफ मुड़-मुड़कर देखता है - जहाँ उसे दर्शन, यूटोपिया और
कवि-स्वप्न लगभग विलुप्त दृष्टिगोचर होता है। शायद इसीलिए एक कवि सोच-समझ
वालों को थोड़ी नादानी देने और एक कवि सपनों की मौत को खतरनाक घोषित करता है।
मगर हिंदी कविता से स्वप्न, सरलता और दर्शन का गायब होते चले जाना, प्रकृतिपरक
कविताओं के साथ-साथ ग्राम-केंद्रित कविताओं का अभाव क्या अनायास है? गाँवों और
प्रकृति से हिंदी कवियों की खाईं इतनी चौड़ी हो चुकी है कि आज की कविता में
प्रकृति और ग्राम्य-जीवन लगभग सिरे से गायब है। दर्शन वगैरह की बात करना
'कलावादी' और दक्षिणपंथी होने-जैसा मान लिया गया है। इसलिए आज यह
दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति अचानक नहीं पैदा हुई है कि संस्कृत, प्राकृत, पाली और
अपभ्रंश साहित्य तो छोड़िए, ब्रज और अवधी साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान भी बेहद
कम हो गए हैं। आज समकालीनता पर इतना अधिक जोर है कि अब छायावाद तक पर बात करना
पुरातनपंथी घोषित कर दिए जाने के लिए बहुत है। इसलिए साहित्य की ऐतिहासिक
परंपरा और इतिहास-बोध से अपरिचय की स्थिति में इधर निरंतर वृद्धि हुई है। आज
भी क्लैसिक्स के पाठकों की संख्या में कमी नहीं आई है और लोग क्लैसिक्स की ओर
हमेशा उन्मुख रहते हैं। कहना न होगा कि कार्ल मार्क्स जैसे विचारक भी
प्रतिवर्ष निष्ठापूर्वक शेक्सपीयर का साहित्य पढ़ते और आनंद लेते थे। यहाँ
कुँवर जी का नचिकेता के बहाने यह स्वप्न देखें, 'उसकी इच्छा होती / कि
यात्राओं के लिए / असंख्य जगहें और अनंत समय हो / और लौटने के लिए / हर समय हर
जगह अपना एक घर।'
कुँवर नारायण की कविताएँ क्लैसिक्स की कोटि में रखी जाने लायक हैं। क्लैसिक्स
की कोटि की कविता किसी भी कालखंड में कालजयिता की माँग करती हुई नहीं पाई जाती
हैं। रचनाओं की कालजयिता समय के साथ स्वयं ही स्पष्ट से स्पष्टतर होती चली
जाती हैं। कभी किसी कालिदास को कोई मल्लिनाथ, कभी किसी घनानंद को ब्रजनाथ, कभी
किसी निराला को रामविलास शर्मा मिल जाता है, तो आमजनों को भी ऐसे क्लैसिक्स का
सच्चा आनंद सुलभ हो जाता है। कुँवर नारायण की क्लैसिक्स सरीखी कविताओं को कोई
मल्लिनाथ अभी तक मिला है या नहीं, यह तो मुझे ज्ञात नहीं है लेकिन यह विश्वास
अवश्य है कि उनकी रचनाएँ समय के साथ अपनी शक्ति से क्लैसिक्स का दर्जा
खुद-ब-खुद भी प्राप्त कर लेंगी। कुँवर नारायण की रचना और आलोचना दोनों से यह
पता चलता है कि उन्होंने पाश्चात्य के साथ-साथ भारतीय साहित्य, दर्शन और ज्ञान
के अन्य अनुशासनों का भी व्यवस्थित और गहन अध्ययन किया है। फिल्म, संगीत और
रूपंकर कलाओं का भी उन्हें गहरा ज्ञान है, इसलिए इन माध्यमों की अभिव्यक्ति
कला को ठीक से जाने बगैर उनकी कविताओं की उन सूक्ष्म तंतुओं को खोलना थोड़ा
कठिन हो सकता है। भाषा को बरतने की जो उनकी शैली है, वह 'अरथ अमित अरु आखर
थोरे' के साथ-साथ 'सुंदरतानि के भेद को जानै' वाली विदग्धता से भी परिपूरित
है।
अब फिर से कुँवर जी की कविताओं की ओर लौटें। मृत्यु को लेकर क्या कहते हैं,
'मृत्यु इस पृथ्वी पर / जीव का अंतिम वक्तव्य नहीं है / किसी अन्य मिथक में
प्रवेश करती / स्मृतियों अनुमानों और प्रमाणों का लेखागार हैं हमारे जीवाश्म।'
...और जिस समाज में सारा धार्मिक आचार-व्यवहार और कर्मकांड लोक-परलोक की
सैद्धांतिकी पर आधारित हो, वहाँ परंपरा और साहित्य का यह बोध विशेष तौर पर
द्रष्टव्य है, 'परलोक इसी दुनिया का मामला है / जो सब पीछे छूट जाता / उसी सब
का / उसी माला से किंवदंती-पाठ।' मनुष्य जीवन-काल में सब कुछ पा लेने का अवसर
देने वाला समय मनुष्य के बीत जाने के बाद, मृत्यु के बाद कुछ भी साथ ले जाने
का समय और अवसर नहीं देता। देता क्या है, यह देखिए, 'एक जीवन-संदेश / कि समय
हमें कुछ भी / अपने साथ ले जाने की अनुमति नहीं देता / पर अपने बाद / अमूल्य
कुछ छोड़ जाने का पूरा अवसर देता है।' समय ने उन्हें यह जो अमूल्य अवसर दिया
है, उसका उपयोग उन्होंने सच्ची मनुष्यता और जीवन को सार्थकता प्रदान करने में
किया है। वृहत से वृहत्तर और मनुष्य से मनुष्यतर की निर्मिति का काव्य-स्वप्न
उनके जीवन-स्वप्न से गहराई से सन्नद्ध है। अंत में 'वाजश्रवा के बहाने' कुछ
पंक्तियों से अपनी बात समाप्त करना चाहूँगा। 'जो बाकी है/ वह कितना बाकी रहने
के योग्य है/ एक ऐसा सवाल है/ जिसके सही उत्तर पर निर्भर है / केवल एक व्यक्ति
की नहीं / बल्कि व्यक्तियों के पूरे समाज की / सफलता या असफलता।'