इस पत्थर के जंगल में भौंकते हैं लोग छोड़ देते हैं कराहने दिन–रात अपने ही हाल पर यह भूल कि निकला है विष उनके ही भौंकने से !
हिंदी समय में संजीव ठाकुर की रचनाएँ