खबर जानने के बाद भी
कि छोड़ दिया जाऊँगा - अकेला
इस भटकटैया के जंगल में,
कविता लिखने नहीं बैठा
मैं जाग रहा था
मेरे साथ जग रहा था
धोबी घाट का गदहा
सीटी बजाते, लाठी पटकते
कॉलोनी के बहादुर !
मेरा हृदय
कर रहा था कदमताल
मेरे पैरों के साथ
बालकोनी के कई कोस
गिने मैंने
अपने इन्हीं पैरों से।
मैं चाहता था
मेरी नींद
अपने तकिये के नीचे लेकर सोने वाले
जगें भी,
समझ लें मुझे
गमले में लगा पौधा पीपल का
हजारों मच्छरों की काट के तमगे
मिले थे उस दिन मुझे !
और,
आज तीसरे दिन
मैं कविता लिखने बैठा हूँ
मैं जानता हूँ
कविता मेरे भीतर है
बाहर तो शून्य...