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कविता

सार्थकता

संजीव ठाकुर


सुनता रहा
देर तक
सौ तारों वाले संतूर का
डींगालाप
तानपूरा
और अपनी ओर
व्यंग्य में उसे मुसकुराते देख
आहत हो गया।
कोफ्त हुई उसे
अपने गिनती के चार तारों पर
अपनी लघुता का एहसास
उस पर तारी हो गया !
मूड बिगड़ गया उसका
बिखर गए उसके स्वर !

उसके बिखरते ही
रुक गया
खान साहब का गायन
मंद पड़ गईं
तबले पर थिरकती उँगलियाँ
सौ तारों वाला संतूर
नहीं ले सका उसकी जगह
मुँह बाए खड़ा रह गया !
मनाया गया तब उसे
लाया गया सुर में
खान साहब के शागिर्दों के द्वारा
पुचकारा गया।
तब वह आया अपनी लय में
वातावरण संगीतमय हो उठा।
वापस आया उसका
खोया हुआ आत्मविश्वास
चार ही हैं तार तो क्या हुआ ?
देता है वह आधार
बड़े-बड़े गायकों को, वादकों को ।
वह है कैनवस
किसी संगीतकार का
रचते थे उस पर
पेंटिंग,
स्वरों से 
कुमार गंधर्व,
गाते थे भैरवी बड़े गुलाम अली,
भीमसेन जोशी
उसे स्वयं मिलाते थे !
 


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