मैं जब जन्मा तब रोया नहीं था। इसलिए मेरे पैदा होते ही मेरी माँ रो पड़ी।
डॉक्टर कहते थे कि मैं शायद कभी सुन और बोल न सकूँ। मेरे मस्तिष्क का पूरी तरह
विकास नहीं हो पाया है। मैं गूँगा, बहरा, मंदबुद्धि, दुनिया के लिए गैर जरूरी
हो गया।
मेरे जन्म के बाद मेरे पिता को अहसास हुआ कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था।
मेरी माँ दूर के रिश्ते में उनकी बुआ लगती थी। उन्होंने सबके खिलाफ होकर उनसे
शादी की। तब वे आधुनिक थे, पुरानी मान्यताओं को तोड़ डालना चाहते थे। लेकिन
मेरे जन्म के बाद उन्हें अहसास हुआ कि उन्होंने जो किया, वह पाप था। और पाप से
ही ऐसी विकृत संतानें पैदा होती हैं। अब वे इसका प्रायश्चित करना चाहते थे।
इसके लिए उन्होंने मेरी माँ से संबंधविच्छेद का फैसला किया। मंदिरों में झाड़ू
लगाई। कन्या पूजन किया। हनुमान मंदिर में 40 दिन पोंछा लगाया। गुरुद्वारे में
जूते साफ किए...। और फिर परिवार के कहने पर एक दूसरी लड़की से शादी कर ली।
इसके साथ उनके संबंध पाप नहीं थे।
माँ पिताजी से अलग थी। वह न गलती छोड़ना चाहती थी और न पिताजी को। इस संबंध के
बारे में उसकी अपनी कोई परिभाषा नहीं थी। बस एक आस्था थी, जिद और मजबूरी भी,
इससे बँधे रहने की। उसने अपनी साड़ी के पल्लू में एक गाँठ बाँध ली, कि अगर मैं
ठीक हो गया तो वह पीर बाबा की मजार पर चादर चढ़ाएगी।
दादी ने पिताजी की गलती भी सुधारी और माँ की मजबूरी को भी जगह दी। घर के पिछली
तरफ का एक कमरा उन्होंने माँ और मेरे रहने के लिए दे दिया। घर में खाने-पीने
की कोई कमी नहीं थी। न मुझे, न माँ को। फिर भी माँ खुश नहीं थी। वह बूढ़ी,
बीमार सी दिखती। मुझे देखकर कभी खुश होती तो कभी रोती रहती। और फिर पल्लू में
गाँठ बाँध लेती। एक-एक कर उसकी कई साड़ियों में गाँठ बँध गई थी।
मैं पिताजी को पिता नहीं कह सकता था, यह पाप था। छोटी माँ के आने के बाद घर
में एक छोटा भाई और बहन भी आए। वे दोनों सुंदर थे, बोल सकते थे, सुन भी सकते
थे। पिताजी उन्हें देखकर खुश होते। वह पिताजी को पिता कह सकते थे।
मुझे देखते ही मेरे अच्छे पिता को न जाने क्या हो जाता। वह पागलों की तरह मुझ
पर और मेरी माँ पर बरस पड़ते। शायद मेरा होना उनके प्रायश्चित पर पोंछा फेर
देना था। बाकी सबके लिए मेरा होना एक असभ्यता, एक मजाक था। एक बदनुमा सा
उदाहरण भर। छोटे भाई-बहन के लिए भी। जिसे देखकर वे हँसते। कभी मुझ पर पानी
डालते। कभी सिर पर गुब्बारे मारते, मैं रोता तो खूब हँसते। उन्हें हँसता देखकर
मैं भी हँसता, तब वे और मारते। वे स्कूल जाते, मैं नहीं जा सकता था। वे सुंदर
कपड़े पहनते, मैं नहीं पहन सकता था। मेरे मुँह से लार गिरती रहती। मैं जो भी
पहनता वह गंदा हो जाता। कभी-कभी मैं निक्कर में पेशाब कर देता, तब छोटी माँ
मुझे बहुत पीटती। वे पिताजी को उनके पाप और माँ को उनकी चरित्रहीनता की याद
दिलाती। मैं किसी लायक नहीं था, मैं कुछ नहीं कर पाता। पिताजी मुझे हाथ भी
नहीं लगाना चाहते थे। इसलिए जब वे मुझ पर बहुत गुस्सा होते तो जूते और लातों
से मुझे पीटते। वे माँ के कमरे तक सिर्फ मुझे ढूँढ़ने या हम दोनों के होने पर
अफसोस जताने ही आते। मेरे सब त्योहार यूँ ही लानतों, जलालतों में बीतते। और
माँ के मेरी गलतियों पर पिटते हुए।
एक दिन माँ ने मुझे नहला कर धूप में बैठाया। बच्चे गली में खेल रहे थे। मैं भी
वहाँ पहुँच गया। मुझे नंगा देख सब लड़कों ने मेरे शरीर पर आगे पीछे मारना और
जोर-जोर से हँसना शुरू कर दिया। चोट तो लगी पर उन्हें हँसता देखकर मैं भी
नाचने लगा। पता नहीं कब वहाँ पिताजी आ गए। कान पकड़कर वे मुझे खींचते हुए माँ
के पास ले आए और माँ को पीटते हुए समझाने लगे कि मुझ मंदबुद्धि को कपड़े पहनने
की तमीज सिखाए। मैं अब बच्चा नहीं रहा। इस बार मैंने माँ को पिटने के लिए
अकेला नहीं छोड़ा। जैसे सब लड़के लात से मेरे शरीर के आगे पीछे मार रहे थे
मैंने भी पिताजी को मारा। माँ घबरा गई। पिताजी बेंत उठाने के लिए दौड़े और माँ
ने मुझे कमरे में बंद कर दिया। आज फिर माँ ने मुझे पिताजी की मार से बचा लिया
था। पर वह रो रही थी। उसने आज फिर अपने पल्लू में एक गाँठ लगा ली। मुझे समझ
नहीं आता, पीर बाबा की मजार पर माँ कितनी चादरें चढ़ाएगी!
माँ सो चुकी थी, उसके अलावा मुझे रोकने वाला कोई नहीं था। मैं गली में निकल
गया। गली से बाहर सड़क पर। और फिर एक भीड़ में। मैं भीड़ के पीछे छुप गया।
यहाँ बंदर का तमाशा हो रहा था। सब लोग ताली बजा रहे थे, पैसे फेंक रहे थे। मैं
भी तो ऐसे ही नाचा था, सब हँस रहे थे। फिर वे पैसे फेंकने की बजाए मुझे मार
क्यों रहे थे? मुझे ये लोग अच्छे लगे। मैं भी नाचने लगा, सब हँसने लगे, मुझ पर
पैसे फेंकने लगे। मदारी मुझे भगाने लगा पर मैंने पैसे उठाकर उसे दे दिए, वह
खुश हो गया। मैंने और बंदर ने मिलकर नाच दिखाया। नाच खत्म हुआ। सबने ताली बजाई
और चले गए। मैं कहाँ जाता? मैं वहीं बैठा रहा। मदारी ने मुझसे बहुत कुछ पूछा,
पर मैं नहीं बता सका। इसी बात से पिताजी नाराज थे। मैं किसी लायक नहीं था। पर
मदारी ने मुझे मारा नहीं। उसने मुझे अपने साथ साइकिल पर बिठाया और ले चला। हम
एक बस्ती में पहुँच गए। मदारी के घर। वहाँ एक औरत थी। वह माँ की तरह गाँठें
लगा रही थी। सफेद कपड़ों में। उसके पास चने, कंकड़ और धागे पड़े हुए थे। वह
गीले कपड़ों में उन सबसे अलग-अलग तरह की गाँठें लगा रही थी। उसने मुझे खाना
खिलाया और फिर मैं सो गया। सुबह उठा तो मुझे माँ की बहुत याद आई और मैं रोने
लगा। मुझे अपने घर का रास्ता भी नहीं पता था। मदारी ने मुझे अपने साथ साइकिल
पर बैठाया और ले चला। मैं खुश था, मदारी सब कुछ कर सकता है, वह मुझे मेरे घर
भी ले चलेगा। पर उसने ऐसा नहीं किया। दिन भर उसने अलग-अलग जगहों पर मुझे बंदर
के साथ नचाया और शाम को वापस अपने साथ घर ले आया। वह औरत अब भी सफेद गीले
कपड़ों में गाँठें लगा रही थी। माँ कहती थी कि गाँठ लगाने से मुराद पूरी होती
है। इसलिए मैं भी गाँठें लगाने लगा। अब शायद माँ मुझे जल्दी मिल जाएगी। मेरी
गाँठें देखकर वह औरत खुश हो गई। उसने मुझे और दो चार तरह से गाँठें बाँधनी
सिखाई, मैंने बाँध दी। वह खुश हो गई और फिर मुझे शाबाशी दी। जैसे माँ देती थी।
मुझे माँ और ज्यादा याद आने लगी और मैं रोने लगा। उस औरत ने मुझे अपने हाथ से
खाना खिलाया और सुला दिया। सुबह उठा तो फिर माँ याद आने लगी। आज उसने मुझे
मदारी के साथ नहीं भेजा, बल्कि अपने साथ घर पर रख लिया। हमने दिन भर में ढेर
सारी गाँठें लगाईं। शाम को हम गाँठ लगे कपड़े लेकर बाजार में गए। यह तो दुनिया
ही अलग थी। गाँठ लगे कपड़े जब भट्टी के उबलते पानी से बाहर निकलते तो अलग ही
रंग के हो जाते। गाँठों में बंधे कंकड़ और दाने उन्हें खौलते रंगों से बचा
लेते और फिर वे लाल, नीले, पीले, हरे... रंगों के साथ मिलकर और खूबसूरत हो
जाते। माँ होती तो कितनी खुश होती, उसे तो पता ही नहीं होगा कि गाँठें जब
रंगों से लड़ती हैं तो कितनी सुंदर हो जाती हैं।
वहाँ से हम और कपड़े लेकर आए। ढेर सारे। हमें इनमें और गाँठें लगानी थीं। ढेर
सारी गाँठें, ढेर सारे रंगों के लिए। मैं थक गया था, मैंने खाना खाया और सो
गया। सपने में गाँठें मुझसे बात करना चाह रहीं थीं। पर मेरी नींद टूट गई।
अँधेरे में कोई मुझे तंग कर रहा था। गली के उन लड़कों की तरह। आगे पीछे से।
मैं डर गया। मदारी मेरे पास था। मैंने डर के मारे आँखें बंद कर ली और फर्श पर
दूर घिसट आया। पर थोड़ी देर बाद उसने मुझे फिर से आगे पीछे से छेड़ना शुरू कर
दिया। मैंने डर के मारे उसे लात मार दी। मुझे पता था छेड़ने के बाद पिटाई होती
है। मैं डर गया अब मदारी मुझे मारेगा। मैं रोने लगा, वह मेरा मुँह बंद करने
लगा। मैं तड़पने लगा। चिल्लाने की कोशिश करने लगा। मैंने उसे जोर का धक्का
मारा, जैसे पिताजी को मारा था। उसने मुझे तमाचा मारा, मैंने गाँठों वाले कपड़े
से उसकी गर्दन में एक बड़ी सी गाँठ लगा दी। अब वह चिल्ला रहा था, तड़प रहा था,
मैंने गाँठ और सख्त कर दी। वह पैर पटकता रहा और आखिर फर्श पर गिर पड़ा। मैं डर
के मारे कोने में दुबक गया। वह औरत उठ गई थी, मदारी को गिरा देखकर वह रोने
लगी। उसने मुझे मारना शुरू कर दिया। माँ होती तो मुझे बचाती। मैं कोने में
दुबका रहा। लोगों की भीड़ इकट्ठा हो गई। वे मुझे हैरानी से देख रहे थे, मुझे
लगा अब सब मिलकर मुझे मारेंगे। मैं वहाँ से भाग खड़ा हुआ। भीड़ मेरे पीछे थी।
मैं भागा जा रहा था, भीड़ मुझे पत्थर मार रही थी। भागते-भागते मैं ठोकर खाकर
गिर पड़ा।
***
जब मुझे होश आया मैं हॉस्पिटल में था। मैं अब भी डरा हुआ था। मैं हर वक्त
बिस्तर के नीचे या कोने में दुबका रहता। पिताजी, मदारी और भीड़ के पत्थरों ने
मुझे एक कोने में कर दिया था। मैं माँ को याद करता, रोता और एक गाँठ बाँध
देता। सब मुझ पर तरस खाते। एक दिन मैं यूँ ही कोने में दुबका चादर की गाँठ
बाँध रहा था, कि माँ आ गई। माँ मुझे देखते ही रो पड़ी, और मुझे सीने से लगा
लिया। मैं भी माँ से लिपट कर रोता रहा। माँ मुझे वापस घर ले आई।
माँ ने मुझे नहलाया, खाना खिलाया, दवा दी और देर तक थपकियाँ देती रही, पर मुझे
नींद नहीं आई। आँखें बंद करता तो पिताजी, मदारी और भीड़ सब एक साथ मुझ पर
बरसते दिखाई देते। सब मिलकर अगर मुझे मारने लगे तो माँ अकेली मुझे कहाँ बचा
पाएगी। माँ के पल्लू में अब भी गाँठ बँधी थी। मैंने माँ की साड़ियों में गाँठ
लगाकर कई पोटलियाँ बना दीं। उन पोटलियों में बड़े-बड़े पत्थर बाँध कर कोने में
छुपा दिया। और दिन रात उनके पास बैठा रहता। मेरी पोटलियाँ खौलते रंगों की तरह
सबसे लड़ सकती हैं। माँ मुझे कोने से निकालने की, सुलाने की बहुत कोशिश करती,
पर उसे कहाँ पता था कि सोने के बाद लोग कैसे तंग करते हैं।
आज पिताजी फिर गुस्से में थे, मुझे ढूँढ़ते हुए वे हमारे कमरे की तरफ आ रहे थे।
उनके हाथ में बेंत था। मेरा शरीर दुखने लगा था सबसे मार खा-खाकर। अब तो मेरे
शरीर पर जख्म ही जख्म नजर आते थे। मैंने कोने में लगे पोटलियों के ढेर की तरफ
देखा, कोई मेरी मदद के लिए नहीं उठी। मैंने कमरे का दरवाजा बंद कर दिया। और
सारा सामान दरवाजे पर इकट्ठा कर दिया ताकि कोई दरवाजा न खोल सके। पिताजी
गुस्से से दरवाजा पीट रहे थे। उनकी आवाज तेज होती जा रही थी, डर के मारे मेरा
पेशाब निकल गया, मैं काँपने लगा। रोने लगा, आँख से, मुँह से चिपचिपा पानी रिस
रहा था। मैं पोटलियों के बीच में घुस गया। मैंने आखिरी बार हर एक की तरफ बड़ी
आस से देखा, कोई मेरी मदद के लिए नहीं खुली। मैंने खुद एक पोटली की गाँठ खोली
और एक मजबूत फंदा अपने गले में बना लिया, जैसे मदारी के लिए बनाया था।