ये शहर भी अजीब हैं न अनोखे? लाख गाली दे दिया करें रोज मैं और तू इन्हें पर
इनके बिना तेरे-मेरे जैसों का कोई गुजारा है बोल? कितने साल बीत गए हम दोनों
को यहाँ आए। अब तो ये ही दूसरा घर बन गया है हमारा। हम रहते यहीं हैं,
कमाते-खाते यहीं, यारी-दोस्तियाँ भी अब तो यहीं हैं बस एक परिवार ही तो गाँव
में हैं। याद है न तुझे शुरू-शुरू में मन कैसा तड़पता था कि थोड़े पैसे जोड़ें
और भाग लें अपने गाँव। कुछ भी न सुहाता था मुझे तो यहाँ का। आज से कई साल पहले
जब आया था तो कुँवारा था। होगा कोई सोलह-सत्रह का। बस पूछ न ऐसा लगता था कि
कोई रेला बह रहा हो शहर में। रेला भी कैसा कि बस सब एक-दूसरे को बिना पहचाने
भागे जा रहे हों। हर समय अम्मी का चेहरा याद आया करता और खाने के नाम पे रुलाई
छूट जाती। एक कमरे में चार-पाँच हम लड़के। न कायदे का बिछौना, न खाना। पाँच
लोगों के कपड़ों-बर्तनों से ठुँसा एक जरा-सा कमरा। मजबूरी जो न कराए थोड़ा।
गंदी-सी बस्ती, बजबजाती नालियाँ। अब तो फिर भी मोटर की सुविधा हो गई है नहीं
तो पहले दो-एक नल। बस... वहीं नहाना, पानी भरना। मार तमाम गंदगी और शोर-शराबा,
आए दिन के लड़ाई-झगड़े।"
"तो अब क्या सब खत्म हो गया है? गंदगी के साथ लड़ाई-झगड़े तो और बढ़े हैं
बस्ती में। मर्द-लुगाई कुत्तों की तरह लड़ते हैं यहाँ। कौन से हीरे-मोती जड़े
हैं जो सब चिपके हैं यहाँ से?"
जमील को अनोखे की आवाज सुनाई ही नहीं पड़ रही थी बस होंठ हिलते दीख रहे थे।
उसका मन अतीत के गलियारे में जो एक बार दाखिल हुआ तो समय आज से पीछे न जाने
कितने वर्षों की यादों में खोने लगा।
"मुझे नहीं जाना शहर अम्मा। यहीं फेरी लगा लूँगा मैं भी अब्बा की तरह। मना कर
दे तू उनसे। पहले भी खालू के काम में क्या-क्या न सुनने को मिला था, भूल गई
तू।"
"न जमील, मेरे बस की नहीं है उनको समझाना। समझदार होके कैसी बातें करता है तू।
देखता नहीं यहाँ क्या कमाई है। जिनके पास मौके की जमीने थीं वो सब हाईवे
निकलने से अच्छे दाम कमाकर शहर चले गए। उनके रहते काम-धंधा ठीक चलता भी था अब
फेरी के काम में वो बात कहाँ रही? कोई दिन ठीक बीत भी गया तो कई दिन के फाके।
फिर कोई जमीन है नहीं हमारे पास जो जोते-बोएँ, कमाएँ-खाएँ। जानता नहीं है रे
तू हारी-बीमारी, ब्याह-शादी जीवन के सब तौर-तरीके निभाने पड़ते हैं। इस कमाई
में दो पैसे बचाना तो दूर खाना मिल जाए बड़ी बात...। नहीं आज नहीं तो कल तुझे
जाना ही पड़ेगा। मैं कुछ न कहूँगी उनसे।"
उत्तर-प्रदेश में खतौली के पास छोटे से गाँव का रहने वाला था जमील। न
पढ़ा-लिखा और न ही जमीन-जायदाद वाला। उसे तो मुफलिसी में बीता बचपन भी बड़ा
शानदार लगता। दिल में उमंग और दिमाग में अब्बा की जेब की राई-रत्ती चिंता
नहीं। सारा दिन घुमक्कड़ी, पोखर में डुबकियाँ और खेल-कूद। जरा बड़ा हुआ तो
अब्बा के साथ फेरी पर जाना और वहाँ भी मस्ती। घरों से निकले पुराने
कूड़े-कबाड़ से उनके दिन जगमगाए रहते। पुराने कपड़े, जूते, बर्तन, कागज, खाट
की पैबंद लग-लग कर घिस चुकी निवाड़ें, लोहा-लक्कड़ उठाने, बोरों में भरने में
अब्बा की मदद करता था जमील। उन्हें बिकवाने कस्बे में जाता और फिर वहाँ से आकर
अपनी पुलिया पर। बड़ा होते ही ये पुलिया उसका स्वर्ग हो गई थी, जहाँ अशरफ,
युसुफ, उमेश और रामफल के साथ उसकी महफिल जमती। दुनिया भर की गप्पें,
हँसी-ठठ्ठे, मन के छिपे राज की साझेदारी, साथ जवान हो रही लड़कियों के
किस्से-कल्पनाएँ और सुनहरे जीवन के सपने। घंटों-घंटों ये पुलिया उनके सपनों से
आबाद रहती। आपस में लड़ते भी थे पर जल्दी सुलह भी हो जाती।
इस बार अम्मा-अब्बा पूरा मन बना चुके थे जमील को शहर भेजने का। बस रहमत चाचा
का आना बाकी था इस बार जैसे ही आएँ जमील उनके हवाले। अम्मा के मायके के रहमत
चाचा कई बरसों से दिल्ली में बसे हुए थे। उनके आने में अभी समय था। इधर कुछ
समय से गाँव में अजीब-सी हरकत दिखाई दे रही थी। अचानक गोधरा-गुजरात का शोर बढ़
रहा था। ठीक वैसे ही जैसे कई साल पहले मचा था। तब राम मंदिर बनना था और राम
मंदिर बनाने की जमीन के लिए बाबरी मस्जिद तोड़ी जानी थी। हिंदुओं ने एक रुपया,
एक ईंट की फरमाइश कर दी थी गाँव भर में। कार-सेवा के लिए चंदे और लोग माँगे
जाने लगे थे। गाँव के कितने किशोर उस रेले में शामिल हुए उस दफा। इस बार शोर
वैसा ही था और माहौल में सनसनी फैली थी।
"बदला तो हम लेके रहेंगे। छोड़ेंगे नहीं। समझ क्या रखा है?" - उमेश का स्वर
बड़े दृढ़ निश्चय के साथ निकला।
अखबार और टी.वी. की खबरें गाँव भर में फैल चुकी थीं। खबरों पर सवार जलजला गाँव
में दाखिल हो गया। गाँव में हिंदू-मुसलमानों की संख्या बराबर थी पर देश में
किसका पलड़ा भारी है हर कोई जानता था और इसी बीच हिंदू नौजवानों को अपना देश
और अपना धर्म बचाने के रास्ते पर डाल दिया गया था। इनमें से कई भटके नौजवान
अपने बचपन के दोस्तों से देश में रहने और देशभक्ति की कीमत अदा करने की बात
करने लगे। उस दिन जमील, युसुफ से भी उमेश इसी हक से बात कर रहा था। पुलिया पर
बैठना मिनट-मिनट भारी हो गया जमील और युसुफ के लिए। एक काला सन्नाटा तारी था
वहाँ। उस सन्नाटे में वीर पुरुष की तरह प्रकाशवान था उमेश। रामफल परेशान था और
जमील-युसुफ अकारण ही कठघरे में खड़े कर दिए गए थे। ये प्रकाश अँधेरे को भयभीत
कर और स्याह कर रहा था। उस दिन तो रामफल ने किसी तरह किस्सा निबटवाया पर उमेश
की ठसक बरकरार थी। आज सुलह का रास्ता नदारद था।
घर लौटते समय जमील ने महसूस किया कि आतंक का साया उसके पीछे चला आया है। घर
पहुँचा तो खालू और खाला आए हुए थे। खाला ने उसे देखते ही गले लगाकर माथा चूमा,
शमशेर खालू की दबंग आवाज में किस्से जारी थे। खालू जबरदस्त किस्सागो थे और
गाँव से जाने के बाद भी उनका रसूख आज भी यहाँ कायम था। गाँव के बड़े-बूढ़े बड़ा
मान देते थे उनको। शमशेर जहाँगीराबाद चला गया था अपने परिवार के साथ। उसका
बढ़ईगीरी का धंधा जम गया था वहाँ। पहले कारीगर था अब तो सालों बाद छोटे-मोटे
ठेके मिलने शुरू हो गए थे। एक बार जमील को भी ले गया था अपने संग पर उससे तो
आरी ही न सधी। रोज साथ काम पर ले जाता शमशेर उसे। जमील को बिठा भी देता। जमील
उठाई-धराई के काम तो कर देता पर लकड़ी न चिरती उससे। मालिक जब उसे ठलुआ देखता
तो उसका भी पारा चढ़ता। हिकारत की नजर ही नहीं हिकारत के शब्द भी जब मुक्त हो
गए तो जमील का दाना-पानी उठ गया वहाँ से। इस काम में मन नहीं लगा जमील का।
खाने के बाद खालू ने भी बाबरी मस्जिद के समय की बात उठा दी।
"वोट की राजनीति में अब तक पीसे जा रहे हैं भईया। मुसलमान होने का कर्ज चुकाओ
और चुप रहो - यही तो सिखाया जा रहा है न। हम कुछ न बोलें तो देशभगत और बोलें
तो पाकिस्तानी। कौन है यहाँ पाकिस्तान का जरा बताओ? हमारे-तुम्हारे बाप-दादा
तो इसी मिट्टी के रहे और बोलो हम-तुमने कभी देखा है पाकिस्तान? कभी जाने की
सोची है वहाँ?" खाट पर औंधे लेटे खालू अब्बा से बोले।
"और मस्जिद तो अल्ला का घर ठहरा फिर उसे क्यों तोड़ा था उन्होंने? सैंतालीस के
तकसीम किए आज भी अलग ही पड़े हैं हम।" अब्बा के सवाल में छिपे डर को पहली बार
महसूस किया जमील ने। पर तकसीम की बात जमील को कुछ ज्यादा समझ में नहीं आई। वह
सोचने लगा "सन सैंतालीस... कित्ते बरस हो गए होंगे चालीस-पचास या उससे ज्यादा
पर तकसीम... बँटवारा...? ...और आज... आज क्यों तकसीम की बात कर रहे हैं अब्बा?
उमेश की आज की बात से पहले तो मुझे रामफल और उमेश अपने से अलग न लगते थे, मुझे
क्यों नहीं दिखा ये बँटवारा?"
"हक की लड़ाई है भाई! वरना हमारे गाँव की मजार पर हिंदू मन्नत नहीं माँगते।
धूप-अगरबत्ती न जलाते? बाबरी के बाद भी। इतने सालों में हुआ यहाँ कोई झगड़ा
तुम्हारे देखे? और वहाँ जहाँगीराबाद का ही सुन लो न जब से गया हूँ सब ठीक ही
चल रहा था कोई झगड़ा न था धर्म के नाम पर। बाबरी मस्जिद के समय की बात है कुछ
बाहरी लोगों ने हिंदू-मुस्लिम के नाम पर भड़का दिया। अब जान लो कि ये सदियों
का नाजुक मामला ठहरा और सदियों से भड़कते आए लोग फिर भड़क गए। दोनों भूल गए
बरसों पुराने अपने रिश्तों को और मार-पीट पर उतारू हो गए। जवान लड़के जिनके न
कोई काम न धंधा गुटबाजी में लग गए और भड़काने वाले न इधर कम थे न ही उधर।
दोनों तरफ हथियारों की होड़ मचनी शुरू हो गई। इन जवानों के मन में भड़की आग
देख के परधान को लगा कि अनर्थ हो जाएगा। दंगा हो गया तो घरों के चिराग बुझकर
मातम में बदल जाएँगे। अरे बड़े तरीके से सँभाला भैया उसने तो। मार-काट का
अंदेशा होने पर उसने कही कि 'जब लड़ के ही फैसला करना है तो लड़ो पर खबरदार
कोई बाहर का आदमी न लड़ेगा। आज जाओ सारे गाँव वाले, शाम को मैदान में अब लड़कर
ही फैसला ले लो।"
शमशेर की बात को सब दम साधकर सुन रहे थे। जमील के मन में वैसी ही उथल-पुथल मच
रही थी जैसे उस दिन गाँव भर के लोगों में मची होगी। उस दिन शाम तक कितने घर
झंझावातों से हिल गए होंगे? कितनी खलबली, कितनी तैयारियाँ और फिर जीता कौन?
जमील का मन निचावला न था, उसकी आँखों से 'फिर क्या' का इशारा पाकर शमशेर ने
साँस खींचकर दोबारा कहानी का सिरा आगे बढ़ाया - "तो भैया हुआ ये कि जहाँ शाम
को मार-काट की बन आई थी हुआ एकदम उलटा ही। माँओं-बापों ने मुसीबत समझ कर धमका
दिए अपने लाड़ले। बड़ों ने समझदारी दिखाई जनम-मरण के बरसों पुराने साथ ने सबको
चेता दिया और फिर हाय-हत्या से उजड़ जाने वाले सबके काम-धंधों पर मंडराता खतरा
नहीं था क्या? और लो शाम को चिड़िया का बच्चा तक न फटका मैदान में। परधान की
बात का ऐसा असर पड़ा कि सबके होश ठिकाने आ गए। आखिर कौन चाहता है बेबात की
लड़ाई। रोज हिंदुओं को हमसे काम पड़ता है और हमारा उनके बिना गुजारा नहीं।
इत्ती पुरानी दोस्तियाँ और लेन-देन ठहरा। जानते हो जब काम से दिल्ली जाता था
बड़े ठेकों के लिए तो कितने पंडित दोस्त शहर आते और फरमाइश से मीट-मुर्गा
पकवाते। झककर खाते थे सब। बस जहाँगीराबाद में तो उस दिन सब कुशल की अल्ला और
राम ने। अब फिर ये नई मुसीबत है गोधरा की।"
आखिरी बात को अनसुना करते हुए जमील के मन को अपार संतोष मिला। ऐसा हौसला जागा
कि अभी जाए उमेश के घर जाए बताए उसे पूरी कहानी। उसका मन को जहाँ राहत मिली
थी, उसने महसूस किया कि अब्बा पहले से तो जरूर कुछ ठीक लग रहे हैं पर उनकी
चिंता मिटी न थी अब तक।
अगले दिन पता चला कि उमेश कई और लड़कों के संग गायब है। रामफल ने बताया उस पर
भी संग चलने का बड़ा दबाव था लेकिन रामफल पर घर की सैंकड़ों, जिम्मेदारियाँ
थीं तो उसने बड़ी मुश्किल से जान छुड़ाई। गाँव में यों तो सब शांत दिखता था पर
धर्म की बातें खुलकर नहीं होती थीं अब। पहले की तरह। एक बिना लड़ी लड़ाई चल
रही थी जो ज्यादा खतरनाक थी। एक भारी-जानलेवा सा माहौल। इन दिनों पुलिया भी
जमील को न सुहाती। उमेश था नहीं और युसुफ और रामफल के काम अचानक ही अधिक बढ़
गए थे। यों तो जमील पहले भी पुलिया पर कई बार एकांत का सुख उठा चुका था पर अब
वह एकांत डराता और हौआ-सा खड़ा करता। इस बीच उमेश लौट आया और दिन-दिन भर हिंदू
धर्म की महागाथाओं के किस्से सुनाया करता। साफ पता चल रहा था कि किसी बड़े
हिंदू जलसे में शामिल होकर लौटा है। अपने धर्म की जय-जयकार और बाकी सब को
दुत्कार रहा है। जमील जैसों के लिए गहरी नफरत और हिंसा उसकी आँखों में ऐसे ही
नहीं उग आई थी। आज कौन कह सकता था कि ये जिगरी दोस्त थे कभी? उससे आमना-सामना
होने से जमील भी कतराने लगा अब तो। कहीं मन न लगता था। युसुफ से भी एक दिन
अच्छी कहा-सुनी हो गई उसकी।
"अरे चल न मेरे संग। जब ये लोग अपना धर्म बचाने को कूद रहे हैं तो हमें भी एक
होना होगा न। जब मार-काट, आगजनी के इल्जाम धरे ही जा रहे हैं हम पर तो पूरा
करके ही दिखा देते हैं... चल न... जाकिर भाई बहुत सच्ची बातें बोलते हैं। आखिर
को सगे हैं हमारे। चल बुलाया है उन्होंने।"
युसुफ के शब्दों से आग लग गई जमील को। जाकिर के मन में भरे जहर से वो वाकिफ था
फिर जाकिर यों भी उसे पसंद न था। मुसलमान लड़कों को घेरकर अल्ला के नाम पर
उनका लीडर बना रहता था जाकिर। जमील ने युसुफ को समझाने की कोशिश की पर बात-बात
में मामला बिगड़ गया। जमील की मर्दानगी को चुनौती देता युसुफ अपनी राह चला
गया। रोज ही एक उदास सुबह से शुरू हुआ जमील का दिन निराश रात में बीतने लगा।
जहाँ से जाने की कल्पना उसमें अजीब सी सिरहन भर देती थी आज वो इस जगह से भाग
जाने की सोचने लगा। और फिर सब कुछ भाँपकर माँ-बाप ने उसे रहमत के हवाले कर
दिया। रहमत उसे दिल्ली ले आया।
"देखो बेटा अब जो भी है यही सच है कि तुम अब तरीके से कमाने की सोचो। माँ-बाप
का सहारा बनो। रहने-ठहरने की थोड़ी बहुत रकम दी है तुम्हारे अब्बा ने पर खुद न
कमाओगे तो खाओगे क्या और घर क्या भेजोगे? कमरे का इंतजाम कर देंगे। कई जन साथ
रहेंगे। मिलजुल के रहते हैं यहाँ तो तुम भी रहो। फेरी के काम में मन लगता है न
तुम्हारा तो एक जगह बात कर ली है। कल लिवा ले चलेंगे। अपना काम समझो और करो।
कोई परेशानी होगी तो हम हैं ही यहाँ।"
नई जगह को अभी समझ नहीं पाया था जमील पर जिम्मेदारी समझ आ गई थी। यों जीवन से
बहुत बड़ी उम्मीदें तो नहीं थीं उसकी। हाँ रहे थे कुछ सपने जो पुलिया पर बैठे
बड़े रंगीन और शानदार लगते थे। पर अब न तो पुलिया रही न पुलिया के सपने।
पुलिया की हवाई कल्पनाओं के बरक्स आज कई ठोस हकीकतें जमील के आगे थीं जिनका
सामना उसे अब अकेले ही करना था।
"रद्दी...ई... ई... पेपर" की आवाज से गलियों-गलियों घबराता-सा घूमने वाला जमील
थोड़े ही दिन में सब ठिकानों का आदी हो गया। घरों, मोहल्लों की उसे सही पहचान
हो गई थी। भाव-तौल का पक्का, देखने-सुनने में अच्छा और फालतू किसी से बोलना
नहीं। गंदी बस्ती में रहने के बाद भी साफ-सुथरा बनके रहता। यों रोज नहाने की
आदत तो उसकी बचपन से ही थी। यार-दोस्त छेड़ते - "अरे पिछले जनम में बामन रहा
होगा तू?" रद्दी बेचने के ठिए भी उसने जल्दी ही जान लिए। रोज के सामान को रोज
ही ठिकाने लगाने का नियम बना लिया था उसने। कुछ बरसों में काम जमा लिया जमील
ने। अब पैदल नहीं एक साइकिल थी साथ में और हाथ में एक घड़ी भी। शहर की हवा उसे
भी छू रही थी। जमील को ये छुअन भली लगती पर हवा में बहना उसे पसंद न था। शहर
की अपनी छूट भी थी कि किसी को उसके धर्म से कुछ लेना न था, सबको अपने काम से
मतलब। संगी-साथियों का भी धर्म मजदूरी था और जात दिहाड़ी मजदूर थी। अपने-अपने
घरों से उखड़कर अब सबने अपने ये जो छोटे-छोटे घर बना लिए थे तो सब होली-ईद
मिलकर मनाते थे। हाँ धर्म के नाम पर एक-दूसरे का खुलकर मजाक उड़ाते और
पूजा-पाठ का अगर समय निकलता तो वो भी कर लिया करते।
"अबे पहली शादी कब कर रहा है तू?"
"क्या मतलब?"
"पहली करेगा तभी तो तीन और कर पाएगा न यार। तुम्हारे में तो खुल्ली छूट है।"
"साले इस कमाई में एक को पाल लूँ तू चार की बात करता है। हमने तो नहीं देखी
अपने यहाँ किसी की चार शादी। तूने देखी है क्या?" मजा लेने के लिए यों सब हँस
लेते।
अचानक एक दिन मोहल्ले की शांत-सी जिंदगी में हलचल मच गई। रात ही रात में किसी
ने कोठियों के आगे खड़ी दो बड़ी गाड़ियों के टायर और एक का स्टीरियो निकाल
लिया। डॉ. यादव की गाड़ी तो एकदम नई थी तो गुप्ता जी की गाड़ी भी चंद साल
पुरानी थी पर टायर अभी बदले गए थे। सुबह से ही पुलिस की गाड़ियाँ खड़ी थीं और
पूछताछ चल रही थी। ड्यूटी पर तैनात एक गार्ड भी आज गायब था।
"एक दिन में नहीं हो सकता ये कारनामा साहब। बड़े दिनों की प्लानिंग है।"
घटनास्थल पर मौजूद लोग आपस में बतिया रहे थे।
"गलती आप सबकी है। मैं कितनी बार कहा पर आप लोगों ने ध्यान नहीं दिया। कभी रात
ही रात में नालियों पर ढके, ढक्कन गायब हो रहे हैं। कभी एक-एक करके बच्चों की
महँगी वाली साइकिलें। पर किसी ने परवाह की? बैठे रहो जब तक आग आपके घर को नहीं
लगती। पर फिर ये शिकायत न करना कि कोई नहीं आया मदद को। हम क्या पागल हैं कि
आज जब कोई हमारा साथ नहीं दे रहा तो हम कल उसके साथ खड़े होंगे?" गुस्से में
गुप्ता जी क्या बोले जा रहे थे उन्हें होश नहीं था।
सारे लोगों को कठघरे में खड़ा कर दिया था गुप्ता जी ने और लोगों पर भी अब
नैतिक जिम्मेदारी आ गई थी। लोग कुछ कर तो सकते नहीं थे पर अपनी बातों से
गुप्ता जी और डॉ. साहब को ढाँढस तो बँधा ही सकते थे। और सबसे बड़ी बात लोग इस
समय अपनी पूरी संवेदनशीलता के साथ खड़ा दिखाई देना चाहते थे। चोरी की इस
वारदात ने सबको सचेत कर दिया था। सबको अगला नंबर अपनी ही गाड़ी का आया लगने
लगा।
"काम तो उसी का है जिसने यहाँ घरों को बड़े ढंग से ऑब्जर्व किया है। और ये बात
भी है कि गार्ड ने उसकी मदद की है।" लोगों ने दोनों की परेशानी को अपनी
परेशानी मानकर बोलना शुरू किया।
"आज गाड़ी पर हाथ साफ किया है, कल घरों पर करेंगे देख लेना।"
लोगों के तनाव और बेचैनी के साथ मुहल्ले में आमदरफ्त भी बढ़ गई थी। रोज के काम
तो आखिर अपनी ही गति से चलने थे। पुलिस तफ्तीश अभी जारी थी। मोहल्ले में काम
करने वाली महरियों से लेकर दूध, सब्जी वाले, घरों में चिनाई-पुताई करने वाले
मजदूरों के संग 'रद्दी पेपर' की हाँक लगाता जमील भी रोज की तरह समय पर आ गया।
भीड़-भाड़ देखकर सब जानने के लिए वह भी भीड़ का हिस्सा बन गया। डॉ. साहब के
रसूख और पुलिस महकमे में खासी जान-पहचान से इनक्वायरी की गंभीरता के मद्देनजर
पूछताछ के लिए कुछ लोगों को निकट के थाने में ले जाया जरूरी था। पूछताछ के लिए
कुछ लोगों के साथ जब जमील का नाम लिया गया तो वो सकते में आ गया।
"मैं क्यों? मैंने क्या किया है? मेरा क्या लेना-देना इस सबमें?" उसके मन ने
कई सवाल किए। पर जाना तो था ही। घबराहट के बावजूद उसकी मुद्रा बेधड़क थी, कोई
अपराध नहीं किया था उसने।
"सवाल ही तो पूछेंगे न पूछ लें। मैं कोई मुजरिम थोड़े ही हूँ। हाँ दिहाड़ी तो
खोटी होगी आज।" आगे की घटना का अनुमान लगाकर उसने अपने मन से ही सवाल-जवाब का
क्रम तैयार किया।
थाने में पूछताछ के दौरान जब जमील का नंबर आया तो वह पूछे गए सवालों का
सही-सही जवाब दे रहा था। इतने में डॉक्टर साहब ने चौकी पर तैनात थानेदार से
कहा - "यू नो दीज पीपुल... दे आर बोर्न क्रिमिनल्स।" अँग्रेजी उसके पल्ले नहीं
पड़ी पर हाव-भाव से समझ गया बात कुछ उसके विरोध की ही है। डॉक्टर साहब के कथन
पर थानेदार ने बड़ी तेजी से अपना सर हिलाया और सवाल जारी रखे - "तो ये बता
कहाँ बेचता है तू अपना माल? पुराना कबाड़ ही बेचता है या गाड़ी के टायर-टूयर
भी? और ये बता स्टीरियो कहाँ बेचता है?" जमील की बलिष्ठ शारीरिक संरचना को
ताड़ते हुए थानेदार बोला।
हैरत में पड़े जमील को जैसे सुनाई देना बंद हो रहा था। अपनी पूरी शक्ति से वह
अपने कान और ध्यान सवालों पर लगाने की कोशिश करने लगा। शरीर में जैसे खून का
दौरा किसी दबाव से रुक गया हो और उसकी सारी चेतना जड़ता में तब्दील होने लगी।
बिना सबूत, गवाह, कोर्ट-कचहरी के जमील को सीधे-सीधे दोषी करार दिया जा रहा था।
इस अपमान के बावजूद अपनी जड़ होती जा रही इंद्रियों को जबरन सचेत करते हुए,
सामने बैठे लोगों से कोई सवाल न करते हुए भी उसे जवाब देना जारी रखना था। उसकी
नजर में यही उसके बेगुनाह होने का अकेला रास्ता था।
"जी मैं तो सिर्फ रद्दी-लोहा, प्लास्टिक ही उठाता हूँ घरों से... ऐसी चीजें
कहाँ।" टूटे हुए मन से जमील ने कहा।
"और जो उठाएगा भी तो क्या तू इतना संत आदमी है कि हमें बता देगा? और कौन-कौन
साथ हैं तेरे, इस धंधे में? ...बता?" थानेदार की आवाज गरजी।
साथ बैठे बेलदार प्रकाश से रहा न गया - "साब! ये बेकसूर आदमी है। मैं जानता
हूँ इसको। मेरे साथ रहता है।"
मुसीबत के वक्त प्रकाश के इन शब्दों ने सच में अँधेरे को चीर दिया। पर अगले ही
क्षण थानेदार हरकत में आ गया। सीट से उठकर एक भरपूर थप्पड़ पड़ा प्रकाश के गाल
पर।
"अबे तू क्या राजा हरिश्चंदर के खानदान का है? जो तुझ पर विश्वास कर लूँ। और
साले तुझे कौन जानता है यहाँ? बिहार से आया है या यूपी का है? तू भी इसके संग
शामिल है क्या चोरी में?" प्रकाश थानेदार का मुँह ताकता रह गया। गाल पे पड़े
तमाचे से उभर आईं लाल परतों के किनारे खौफ की सफेद परत भी खिंच गई थी। जमील सब
समझ रहा था ये थप्पड़ उसी के नाम का है जो प्रकाश को पड़ा है। लंबी, उबाऊ
कार्यवाही से संतुष्ट होकर डॉक्टर साहब चल दिए। आज हॉस्पिटल में उनकी ओ.पी.डी.
थी और गुप्ताजी को भी पुलिस के आसरे न बैठकर गाड़ी दुरुस्त करानी थी। थानेदार
ने इतना सच तो बता दिया था उन्हें कि कुछ मिलने की उम्मीद न रखें पर समझौता इस
बात पर हुआ कि इन लोगों को सस्ते में न छोड़ा जाए। इनको मिली सजा, सबक बने
औरों के लिए। कुछ मजदूर भी भेज दिए गए पर जमील, प्रकाश और गार्ड को नहीं भेजा
गया। अपमान के साथ-साथ आज की दिहाड़ी मारे जाने का भी जमील को दुख था। और अब
कल से कौन बुलाएगा उसे अपने घर कबाड़ लेने? इस थुक्का-फजीहत से निकल भी गया तो
थाने की कहानी कई दिन चलेगी और फिर डॉक्टर साहब और गुप्ता जी अब क्या उसे जमे
रहने देंगे वहाँ? कितने सवाल जमील पर अपना शिकंजा कसते ही जा रहे थे। और सबसे
बड़ा सवाल तो यही था इस बेबात की कैद से कब छूटेंगे?
उन तीनों को एक कोने में मुजरिम की तरह बिठा दिया गया। बरसों पहले उमेश के
चेहरे पर जिस नफरत को जमील ने पाया था वही आज और धारदार होकर थानेदार के चेहरे
पर उग आई थी। एक नाम, सिर्फ एक नाम की वजह से जमील मुख्य अपराधी मान लिया गया
था और उसके साथ बैठे दो लोग अपराध को अंजाम देने वाले उसके साथी के रूप में
बिठाए गए थे। उसके मन में बरसों पहले की अब्बा की बात लहर की तरह उठी...
तकसीम। जब शहर आया था तो उसने सोचा था यहाँ किसी को किसी के जात-धर्म से कुछ
लेना-देना नहीं है। राजधानी का खुलापन उसने इसी रूप में महसूस किया और सराहा
था। पर आज की घटना ने उसके सामने एक बड़ा सच ला खड़ा किया कि बातें जब तक
ढकी-छिपी रहें सब बहुत सुंदर दिखाई देता है। परत उघाड़ दो तो हर जगह एक
बजबजाता नाला ही है और कुछ नहीं। अपमान और आतंक की परतें तनिक शिथिल हुईं तो
भूख की मारी आँतों ने मुँह उठाया। पर यहाँ कौन सुनेगा? सुबह से शाम होने को
आई। सब तो पूछ डाला, अब क्या? इतने में रहमत चाचा के साथ ठेकेदार संतोष आता
दिखाई दिया। संतोष का आना-जाना है इन थानों में। कहीं कोई अवैध निर्माण करवाता
है तो मालिकों से थाना-पुलिस की झोलियाँ वही तो भरवाता है। जमील और प्रकाश समझ
गए कि यहाँ से छूटे मजदूरों ने ही ये दूर की कौड़ी खोज निकाली है। उम्मीद और
बेचैनी की कसमसाहट माथे पर खिंचती चली जा रही थी। आखिरकार वही हुआ। यहाँ भी
संतोष ने पुलिस की झोली भरवाई। पूरे दिन की उनकी 'मेहनत' जाया नहीं हुई। अच्छी
कमाई हुई।
"चाचा अब न रुक सकूँगा मैं यहाँ।" शहर में सब कुछ खत्म हुआ मानकर एक गहरी
हताशा में जमील ने कहा।
"कहीं भी चला जा बेटा तेरा सच तो संग चलेगा ही। फिर अब गाँव में क्या धरा है
तेरे लिए? और शहर, ये हो या कोई और क्या फर्क पड़ता है। थोड़े दिन में भूल
जाएँगे सब। तू कोई और मोहल्ला पकड़ लियो।" रहमत चाचा ने समझाते हुए कहा।
"लोग भूल भी जाएँ चाचा पर मैं क्या भूल सकूँगा?" सवाल वाजिब था और रहमत से
जवाब देते न बना।
कुछ दिन उदास रहने के बाद जमील सचमुच गाँव चला आया। घटना के चंद दिन हताशा में
जरूर बीते पर उसे ये समझा गए शहर ही अब उसका अंतिम ठिकाना है। अच्छा-बुरा चाहे
जैसा। घर की गरीबी, गाँव में नौजवानों के लिए पसरी बेकारी, दिन ब दिन बढ़ती
जिम्मेदारियों की सोच ने जमील की जिल्लत को कहीं बहुत दूर धकेल दिया। फैसला
लेने के बाद भी उसका एकदम से संयत और सहज होना असंभव था। थाने से जान छुड़ाने
के चक्कर में रुपये भी काफी खर्च हो गए थे। गाँव वापिस लौटकर उसे फिर वैसी
राहत मिली जैसी कभी यहाँ से शहर आकर मिली थी। समय की इस अजीबोगरीब शक्ल-सूरत
को वह बनते-बिगड़ते बड़े नजदीक से देख रहा था।
घर में उसने शहर का सच किसी से नहीं कहा। सबने माना घर की याद के चलते जमील
वापिस आया है पर उसकी उदासी किसी से छिपी न रह सकी। अब्बा रोज ही उसे
यार-दोस्तों के घर जाने और गाँव के बुजुर्गों से मिलने की बात कहते। ऐसा नहीं
है कि जमील को पुराने दोस्तों से मिलने में कोई एतराज था। वैसे भी जिस तरह समय
की धरती पर तीखे पत्थरों के नुकीले कोने पानी की गोद में पड़े रहने से अपना
नुकीलापन खो बैठते हैं ऐसा ही जमील के साथ हुआ था। उमेश और युसुफ की बात वह
लगभग भुला चुका था। अब तीनों घर-परिवार वाले हो चले थे और उमेश आज भी हिंदू
लड़कों के लीडर के रूप में ही जाना जाता था। मिलने पर सबके बीच कटुता के निशान
नहीं थे पर रामफल को छोड़ सबमें एक झिझक बाकी थी जो पुलिया के दिनों को हरा
नहीं होने दे रही थी। घूमते-घामते जमील पुलिया पर भी हो आया। पुलिया आज भी
किशोर-जवान दोस्तों का अड्डा थी। वहाँ आज भी कोई चिंता, दुख, परेशानी और तकलीफ
नहीं थी बस चेहरे बदल गए थे। जमील को लगा जैसे इन चेहरों ने वक्त की धारा को
उसके लिए पीछे मोड़ दिया है। कुछ क्षण अतीत में जीकर जब जमील लौटा तो सब नदारद
था। चेहरे की उदासी कुछ और बढ़ गई। इधर उसने पाया जाकिर का रूतबा भी बढ़ चला
था गाँव में। जाकिर भाई खासी इज्जत से नवाजे जाने लगे थे। अल्लाह और ईमान की
राह का हवाला देकर अच्छा रूआब जमा लिया था उन्होंने। अब्बा ने कई दफा उनसे मिल
आने की बात कही पर जमील का मन न माना। उसकी याद में अब भी जाकिर का सच जिंदा
था। और आज के शांत माहौल में भी जाकिर और उमेश के उस समय के चेहरे याद आते ही
उसका मन उचाट हो जाता था। उसे लगता ऐसे ही लोग जिम्मेदार हैं जो इनसान को उसकी
मेहनत, काबीलियत और ईमानदारी से नहीं सिर्फ उसके धर्म से जानना पसंद करते हैं
और समय आने पर दूसरे की पतंग काटना जिनका पसंदीदा खेल है। और इस खेल के सख्त
नियम हैं क्रूरता और मनमाफिक बर्बरता, जिसमें दूसरे के लिए कोई रिआयत नहीं।
शहर की घटना को जब इस सबसे जोड़कर देखता तो पाता ये चेहरे वहाँ भी इसी रूप में
है - 'ये खेल है कब से जारी।'
जवान बेटे की उदासी जब किसी भी तरह, कई दिन तक दूर नहीं हो सकी तो अम्मा को एक
ही उपाय सूझा - उसकी शादी। शमशेर खालू ने पहले ही लड़की देख रखी थी और वो माँ
को पसंद भी थी।
"वैसे अभी तो नहीं पर जैसा तुम कहो अम्मा... आज नहीं तो कल करनी ही है शादी।"
जीवन का एक और बड़ा काम निबट जाए कुछ यही अंदाज था जमील का। और लो बात पक्की
हो गई।
"बेटा तू ले जाना सोनी को अपने साथ शहर। यहाँ दिल न लगेगा उसका तेरे बिना। और
वो यहाँ रही तो तू भी भागा-भागा आएगा हर दूसरे दिन।" शहर के लिए निकलने से
पहले माँ ने जमील से कहा।
"नहीं अम्मा वहाँ, कहाँ...? तेरे पास ही रहेगी।"
जमील का गंभीर और निश्चयात्मक स्वर सुनकर रेशम भी सकते में आ गई। लड़के की
आवाज में शादी को लेकर खुशी की एक धड़कन तक नहीं मिली उसे। चुप रहना ही उसे
ठीक लगा इस वक्त। जमील के दिमाग में पहले भी कोई उलझन नहीं थी अपनी होने वाली
बीवी को लेकर। शहर की दमघोंटू, गंदी बस्ती उसे यों भी इनसानों के रहने लायक
नहीं लगती थी। फिर काम पर जाने पर पीछे सताने वाली फिक्र के बारे में उसने
पहले ही गौर कर लिया था। बाद मे थाने की घटना ने तो उसके निर्णय पर पक्की मोहर
लगा दी। गाँव में रहेगी तो सुरक्षित रहेंगी वहाँ के मुकाबले। जमील ने ठान
लिया।
शहर आकर जमील ने दोबारा काम जमाया। रहा जमुनापुरी में ही प्रकाश, अनोखे और
सुनील के साथ पर काम का मोहल्ला बदल लिया। साथ रहने वाले अनोखे ने बड़ी मदद
की। इस बीच जमील की शादी हो गई और कुछ समय बाद वो एक बेटे का बाप बन गया। अब
जीवन के सारे सुख उसके हिस्से में थे। बात-बात पर हँसता और बेबात पर भी उसकी
हँसी न थमती। अब उसे दोगुनी ताकत से कमाना था। एक अच्छा जीवन, भाई-बहनों की
जिम्मेदारी, बेटे की सही पढ़ाई-लिखाई और बहुत से अरमान थे उसके। सोनी ने उसकी
जिंदगी में उमंगें भर दी थीं। शहर वापिस आकर जमील ने अनोखे की मदद से एक बड़ी
सोसायटी का काम उठा लिया। अनोखे भी उसी सोसायटी में माली का काम करता था। नए
काम की शुरुआत के साथ पिछले सारे अनुभवों को जमील ने सिरे से दरकिनार कर दिया
था। बस अब उसे अपना काम पूरे ईमान से करना था। इधर उसने पाया कि राजधानी में
चुनाव के बाद हवा कुछ बदल चली है।
"जय धरती माँ, जय गऊ माता' के शब्दों पर हलचल सी मच जाती सोसायटी में -"अरे
गौ-ग्रास वाला आ गया। भाग के जा और वो रात की रोटी दे आ।"
ऊपर के माले से तुरंत भागकर न आ पाने वाली थुलथुल काया बीबीजी महरी को तुरंत
दौड़ाती। आस-पास कई लोग बड़े नियम से अपना धर्म निभाने लगे थे। जमील सोच में
पड़ जाता हमारे गाँव में तो पहली-पहली, ताजी रोटी निकालकर लोग खुद गाय को खिला
आते थे। बिना किसी गाड़ी और भोंपू के शोर-शराबे के। पर आज आने वाली ये गाड़ियाँ
तो तेज गानों के साथ गाय का गुण गाती फिर रही हैं। जमील को समझने में बड़ी
दिक्कत होती कि गौ-ग्रास लेने का ये कैसा तरीका है। और अगर ऐसा करना ही है तो
शांत तरीके से माँगा जाए यह दान। उसने आस-पास भी गौर किया तो पाया ये गाड़ियाँ
तो अब हर सोसायटी-मोहल्ले में आ रही थीं। शुभ अभियान के नारों, भाषणों और
गीतों के साथ। मंदिरनुमा शक्ल की गाड़ियों में मंदिर की तरह ही घंटी लगी थी।
नीचे चमकदार स्टील के दो ड्रम सजे थे। एक बात और जो वो सोचता कि जो लोग रोटी
और खाने की अन्य चीजें न भी दे पाते थे उन सबके दिमाग में अगले दिन दान के लिए
तैयार रहने की घंटी तो बज ही जाती होगी। ये गाड़ियाँ कौन से मकसद से आ रही हैं
जमील समझ नहीं पाता। वैसे भी इन गाड़ियों की ड्यूटी दिल्ली भर में लग रही थी।
पिछली सरकार ने नगर-निगम की कूड़ा बटोरने वाली गाड़ी 'आपके द्वार पर' खड़ी
करवाई थी जिसकी आवाज गली-मोहल्ले में रोज गूँजती थी। नई सरकार आने के बाद से
उत्साहित गौ-रक्षक समिति ने उसी तर्ज पर गौ-ग्रास की रिक्शानुमा गाड़ियाँ उतार
दीं। जमील हर दिन हिसाब लगाता कि पूरे दिल्ली भर में ऐसी गाड़ियाँ बनाने-चलाने
का कितना खर्च आता होगा और ऐसी ढेर सारी गायें कहाँ बँधी होती होंगी जो इस
खाने को खाती होंगी? उसे तो आज भी अपनी बस्ती और आस-पास के इलाकों में
घूमती-फिरती गायें कूड़े के ढेर में मुँह मारती दयनीय और कुपोषित ही दिखाई
देतीं।
सोसायटी में अधिकांश परिवार हिंदू थे। जहाँ तक संभव होता जमील अपना नाम, धर्म
बताए बिना ही काम चलाता।
"राम-राम जी" जैसा उसका संबोधन जहाँ लोगों को जहनी तौर पर संशय की सीमाओं से
मुक्त करता वहीं उसके खुद के लिए जैसे ये राम-नाम एक ढाल बन गया था। अपने बचाव
में एक हथियार सरीखा। जो लोग उसे नाम से जानते वो उसके इस संबोधन से खुश होते।
"आया न सही राह पर। यहाँ रहना है तो हम रहते हैं वैसे ही रहना होगा। हमारी तरह
राधे-राधे बोल या फिर जय राम जी की।"
शेष लोगों के लिए तो वह केवल कबाड़ीवाला ही था। उन्हें इतनी फुर्सत ही कहाँ थी
जो उसका नाम जानते और उसके बारे में। अधिकतर घरों में तो वैसे भी ये काम घरेलू
नौकरों के ही जिम्मे थे। फिर तौल के पुराने तराजू भी अब अनुपयोगी होकर किसी
कबाड़ का हिस्सा हो चुके थे। स्प्रिंग बैलेंस जैसे छोटे से औजार की बदौलत अब
जल्दी से कबाड़ को बोरी में भरकर उसमें हुक फँसाकर बोरे को अपनी समूची ताकत से
जमील उठा लेता। स्प्रिंग बैलेंस का काँटा किलो के निशान के आगे रुक जाता।
जितने किलो के हिसाब से तय होता उतने पैसे जमील हिसाब लगाकर तुरंत चुकता कर
देता। शुरू से ही घुलने-मिलने की आदत नहीं थी उसकी। शरीर से ताकतवर दिखता था
पर इधर उसने अपनी खास भंगिमा से उसे भी कतरने की कोशिश की। दोनों हाथ पीछे की
ओर बाँधकर एक फर्माबरदार मुलाजिम की मुद्रा और ढीले-ढाले कंधों में गर्दन
झुकाकर चलना। कमीज को पैंट के अंदर डालकर कभी चुस्त दिखने की कोशिश नहीं करता।
शरीर की सारी मजबूती को इस भंगिमा ने जैसे उपेक्षणीय बना दिया था। काम बचा-बना
रहे, जमील इसके लिए बड़े सचेत प्रयास करता। उसके ऐसा करने के पीछे वो चेहरे भी
नुमायाँ थे जो उसे ऐसा करने पर बाध्य करते। एक कामवाले की औकात को अपनी बेबाक
नजरों से हरदम तौलते।
काम से फारिग होते ही वह पार्कों में काम करने वाले अनोखे के संग बैठ जाता।
अनोखे यहाँ माली का काम करता था। कड़ी मेहनत और मजदूरी कम। वो तो ड्यूटी के
बाद कुछ घरों में उसका अपना काम था गमलों के रख-रखाव का नहीं तो गुजारा
मुश्किल था। बातून अनोखे समझदार था। जमील का गार्जियन बनकर रहता था सोसायटी
में - "क्यों फालतू काम करता रहता है बे तू इन लोगों के। जब देखो ऊपर सामान
चढ़ाना है कबाड़ी वाले को भेज दो। अरे जरा ये कर दे और वो कर दे... किसी का
टाईम खोटी हो इनकी बला से।" अनोखे की इस बात से जमील अपने आज में लौट आया।
"कोई नहीं थोड़ी देर के कामों के लिए क्या घबराना। और कौन सी ये सरकारी नौकरी
है हमारी? दो काम फालतू करेंगे तो कोई न निकालेगा और गलत भी न सोचेगा। क्यों?
बात का सिरा पकड़कर जमील ने कहा।
"इस फेर में न रहियो तू। जिस दिन निकालना होगा तेरा पिछला किया-कराया काम न
आएगा देख लियो। तू किसलिए करता है, जानता हूँ सब। पर अच्छाई का जमाना नहीं है।
फिर हम जैसों की कोई यूनियन-वूनियन कहाँ जो बचा ले। हमसे सही तो ये माइयाँ हैं
बर्तन-झाड़ू वालीं। पैसे बढ़वाने होते हैं तो सब जनी एक हो जाती हैं। पर
हमारा... जानता है छत्तीस नंबर वालों ने दशहरे के दिन कहा भाई रावण बनवा दे
बच्चों का। अब बता मैं क्या रावण का कारीगर हूँ जो बनवा दूँ? दो घड़ी हमारा
सुस्ताना भी इन्हें बर्दाश्त नहीं। साफ मना कर दी मैंने। तू भी कर दिया कर।"
कहने को कह दिया अनोखे ने पर जानता था जमील नहीं करेगा ये सब। अनोखे ने बात
खत्म की ही थी कि जमील का फोन बजा।
"रोशन की तबीयत बड़ी खराब है। बस तुम आ जाओ किसी तरह। गर्दन एक तरफ लटक गई है
और कुछ नहीं खा रहा कई दिन से।" फोन पर सोनी ने बताया। सोनी के सुबकते हुए
शब्दों ने जमील का सारा चैन छीन लिया। रोशन की तबीयत और काम का हर्जा समेत
तमाम चिंताएँ उसके सर पर सवार हो गईं। बच्चे की तकलीफ सुनकर पहली फुर्सत में
जमील गाँव रवाना हो गया। अपनी पहचान के एक-दूसरे कबाड़ी को काम पर लगा दिया
उसने। सोसायटी ने जमील को काम पर रखने से पहले ही बता दिया था एक-दो दिन से
ज्यादा की छुट्टी नहीं मिलेगी। गाँव जाकर पाया तो वाकई बच्चे की तबीयत काफी
खराब थी। पहले जब भी जमील लौटता था रोशन अपनी हँसी से उसका स्वागत किया करता
था। छह-सात महीने के रोशन ने बोलना तो शुरू नहीं किया था पर उसके 'बा, बा'
जैसे शब्द जमील को अब्बा सुनाई दिया करते। हाथों में उछाल-उछालकर अपने बेटे से
घंटों खेलता था जमील। पर आज उसके आने पर बच्चे में पहचान की एक भी हरकत नहीं
दिखी उसे। उसके हँसते-खेलते बच्चे को क्या हो गया? दिल-दिमाग जैसे सुन्न पड़
रहे थे जमील के।
"अरे घबरा मत तू बच्चे दाँत निकालते हैं तो ऐसी परेशानी आती ही है। पहली औलाद
है न इससे ज्यादा परेशान हो रही है सोनी। वैसे मजार पे जाकर झाड़ा तो मैं लगवा
आई हूँ।" अम्मा चिंतित होते हुए भी उसका हौसला बढ़ा रही थी।
"कल चलेंगे इसे बड़े अस्पताल लेकर।" गाँव के इलाज से कोई खास फायदा न देखकर
उसने जल्दी से फैसला लिया। अगले कई दिन अस्पताल में डॉक्टर को दिखाने में
बीते। लंबी लाइनों में लगना, टेस्ट के लिए भटकना, दवाइयों के लिए दौड़ना पड़ा
उसे। रुपया खर्च हो रहा था पर बच्चा सही होने में नहीं आ रहा था। पता नहीं
डॉक्टर ढंग से देख भी रहा है या नहीं। आखिर डॉक्टर ने बताया दिमाग से नीचे आने
वाला कोई पानी शरीर में नहीं पहुँच पा रहा है। कोई नली लगानी पड़ेगी चीरकर तब
ठीक होगा बच्चा। घर में ऑपरेशन के नाम पर कोहराम मच गया। अम्मा-अब्बा मानने को
तैयार ही नहीं थे कि ऐसी भी कोई बीमारी होती है - "ठग रहा है डॉक्टर। हमने तो
अपने पूरी जिंदगी में ऐसी बीमारी न देखी किसी बच्चे की।" अम्मा बोली।
"बेटा दिल्ली ले चल एक बार वहाँ ही दिखा लेते हैं।" अब्बा ने कहा।
दिल्ली के अस्पतालों के जनरल वार्डों की असलियत जमील जानता था। लंबे इंतजार और
महँगे इलाज। कहने को तो सरकारी हैं पर टेस्ट के पैसे क्या कम हैं वहाँ? पर
बेटे की हालत देखते हुए उसे दिल्ली जाना ही ठीक लगा। अगले दिन जाने की तैयारी
हो गई पर उसी रात रोशन चल बसा। सोनी के साथ जमील भी पगला गया। बच्चे के दुख ने
तोड़ दिया उसे। वो सारे सपने, सारी उम्मीदें मिट्टी में लिपटी बेरौनक हो गईं
जिस मिट्टी में रोशन खामोश लेटा था। बार-बार खुद से यही सवाल करता - "मैंने
क्या बिगाड़ा था किसी का, जिसकी ये सजा मुझे मिली।" पर जवाब नदारद रहता। सारी
दिशाएँ अजीब से सन्नाटा में डूबी जान पड़तीं और इस सन्नाटे के बीच कभी-कभी
लगता रोशन घर के किसी कोने में पहले की तरह हँस-खेल रहा है। जैसे अभी सोनी गोद
में ले आएगी उसे और रोशन 'बा, बा' करता लपकने लगेगा उसकी तरफ। पर उस सन्नाटे
को केवल सोनी की सिसकियाँ और तेजी से उठने वाली चीखें ही तोड़ा करतीं और उसके
बाद फिर से एक लंबा सन्नाटा घर भर में छा जाता।
जमील की जिंदगी का गिरता-उठता ग्राफ यों तो पहले भी उसे तोड़ता आया था पर फिर
एक नई उम्मीद से खड़े हो उठना उसकी फितरत में था। चोट लगती थी, घायल भी होता
था पर मरहम-पट्टी के बाद दुरुस्त और फिर पहले जैसा। पुराने रोग और गम पालने की
फुर्सत भी अब कहाँ थी उसे। जिंदगी को बदलते देखता और खुद भी बदलने की कोशिश
करता। पर इस बार सँभालना मुश्किल हो रहा था।
"बेटा तू हिम्मत हारेगा तो सोनी कैसे जिएगी? मरद का काम है हौसला देना, औरत को
सँभालना। औलाद का दुख तो दोनों को एक जैसा है बेटा पर उसने जनम दिया था रोशन
को। उसके दुख की तो सोच। जाने क्या-क्या सोचती होगी...। और ऊपर वाला है न
भरोसा कर... जैसे लिया है वैसे दोबारा देगा भी।" माँ ने इशारों में बता दिया
कि बहू उम्मीद से है। उसके शब्दों में जाने कौन-सी मरहम थी कि दर्द हरे होने
के बावजूद कम दुख रहे थे। जमील दर्द की तमाम हदों को पार कर फिर खड़ा हो गया।
कुछ दिन सोनी के साथ गुजारे। जिंदगी पूरी तरह नहीं अधूरी ही सही, पुरानी शक्ल
में लौटने लगी। इधर जमील की बचाई रकम खर्च हो गई थी। अब उसे दो-दो मोर्चे
सँभालने थे - घर और घर के लिए पैसा। उसे शहर आना ही था।
"नहीं साहब ऐसा कैसे हो सकता है? इतने बरस खिदमत की है आप लोगों की। मुसीबत के
मारे को और न मारो साहब।" जमील को खुद पर यकीन नहीं था वो लगभग गिड़गिड़ा रहा
था अपने काम के लिए।
"देख भाई, तू इतने साल से है न यहाँ, कभी माँगा तुझसे कुछ? बोल? अब इतना कमाता
है कि गाँव जाकर ठाठ से रहता है तू। मकान-वकान भी बनाया ही होगा। साल के बीस
हजार ही तो देने हैं बस और कौन सा तुझ अकेले से माँग रहे हैं सबकी एंट्री का
चार्ज है और हम कौन-सा अपनी जेब में रखेंगे। सोसायटी के कामों में लगेगा सारा
पैसा।" सोसायटी नए प्रधान ने बड़ी ही सहजता से कहा।
"गरीब आदमी हूँ साहब। साल में लाख रुपया कमा सकूँगा तभी तो दे पाऊँगा बीस
हजार... पर इतनी कमाई कहाँ है मेरी...।"
"वो तू जान और फिर ये भी तो देख कितना सुरक्षित है तू यहाँ... हमारे पास...
देख नहीं रहा इतने साल से... हैं जमील?" जमील शब्द पर सारा वजन डालते हुए
प्रधान ने उसके हिस्से के सच को बयाँ कर दिया। कमीशन और जमील नाम के आदमी की
प्रोटेक्शन मनी दोनों ही मुद्दे नए प्रधान की लिस्ट में थे।
यहाँ आने पर जमील ने सारा माहौल बदला पाया। सोसायटी में काम करने आने वालों के
लिए एंट्री फीस का नया फरमान जारी होने वाला था। कई दिन सब पर तलवार लटकती
रही। जमील का मन किया भाग जाए किसी ऐसी जगह जहाँ कोई दिक्कत न हो, परेशानी न
हो, पर जानता था कि ऐसी जगह न कहीं थी, न होगी। सोसायटी के कुछ लोगों के दखल
और सदाशयता से कई दिन बाद समस्या हल हुई। एक बीच का रास्ता निकाला गया कि
सोसायटी को पैसा देने में असमर्थ लेबर को अब हफ्ते में कुछ घंटे यहाँ के
काम-धाम करने होंगे बिना किसी आना-कानी के।
"देख लिया सब। करो अब जमींदार की बेगारी। इधर से न सही तो उधर से कान तो उमेठ
ही लिया न। ...और जमील तुझे बचाने कौन साला आएगा बताए जरा? याद नहीं है कैसे
निकला था तू पुराने मोहल्ले से। किसी एक ने भी किया था तेरी नेकी का बखान?
बड़े आए पैसा माँगने वाले।" अनोखे चुप न रहा।
बेटे के दुख और एक नया आसमान टूटने के बाद बहुत बड़ी राहत महसूस करके जमील ने
कहा - "उसमें क्या है अनोखे, जहाँ एक घंटे बाद आते थे तो एक घंटा पहले आ
जाएँगे। तू न घबरा... सोच कहाँ से लाते इतना रुपया और फिर निकाले जाकर कहाँ
काम ढूँढ़ते?"
बँधी-बँधाई नौकरी न होते हुए भी माली, कबाड़ी, गाड़ी धोने वाले, बिजली मरम्मत
वाले और मिस्त्रियों के लिए ये सोसायटी ही कमाई का आधार थी। जैसे-तैसे सबने नई
स्थिति को स्वीकार कर लिया। काम की मारा-मारी के इन भयंकर दिनों में अधिकांश
को इसमें किसी जुल्म की कोई गंध नहीं आई। मेहनत के कुछ घंटे और बढ़ गए थे पर
पगार उतनी ही रही सबकी। दिन बीतने पर अनोखे जैसे कामगारों की ये खलिश भी दूर
हो गई। गौ-ग्रास के रिक्शे से नियत समय पर तेज आवाज में रोज का गीत आज भी चल
रहा था - "हे धरती माँ हे गऊ माता... गूँज रहा है मंत्र महान... पूर्ण सफल हो
शुभ अभियान... जीवमात्र का हो कल्याण।"
अब जमील और भी जिम्मेदारी से काम करने लगा। रद्दी के अपने काम से फुर्सत मिलते
ही रोजाना उसे किसी न किसी काम से दौड़ना ही पड़ता। कभी किसी ऑफिस के चेक जमा
कराने तो कभी किसी के निजी काम से। शाम के समय भी कई बार मुसीबत पेश आ ही जाती
जब उसे अपने कबाड़ को ठिकाने लगाना होता। पर जमील चूँ नहीं करता। एक जमील ही
क्या सभी मुलाजिम इन्हीं हालातों से गुजर रहे थे। कामों का तूफान जब गुजरता तब
दो घड़ी की फुर्सत में नन्हें रोशन का चेहरा उसकी आँखों में घूम जाता। सोनी से
भी लगभग रोज ही बात होती थी उसकी। उसे मोबाइल खरीदकर दे आया था इसलिए सोनी भी
अक्सर बात-चीत कर लेती। उसकी जचगी के दिन भी पूरे होने वाले थे। जमील को चिंता
सताती रहती। यों अम्मा पूरी देखभाल कर रही थी पर जमील हर बार उन्हें सोनी का
ध्यान रखने, डॉक्टर को दिखाने और ढंग की खुराक जैसे निर्देश देता रहता। सोनी
से वादा किया था तो समय से पहले गाँव पहुँच गया जमील।
"हाँ भाई हम पे भरोसा कहाँ था तुझे कि ख्याल रखेंगे तेरी बीवी का? अब सँभाल ले
तू।"
बेटे का मजाक उड़ाते हुए अम्मा ने कहा तो जमील, अब्बा के सामने जरा शर्माया पर
जबान तक आए उसके शब्द बेसाख्ता निकल पड़े - "अम्मा जीवन भर का साथ है
मेरा-इसका, निभाना तो पड़ेगा न।"
और जमील-सोनी की गोद में फिर एक बच्चा था। स्वस्थ और सुंदर।
"देख सोनी बिल्कुल रोशन पर गई है न बिटिया?"
सोनी हैरान रह गई। अक्सर बच्चे की शक्ल देखकर माँ-बाप यही देखते हैं कि
एक-दूसरे में से किस पर गया है या फिर ननिहाल-ददिहाल में किस के चेहरे-मोहरे
से मिलता है पर जमील... वो तो अलग सी ही बात कर रहा था। उसकी खुशी थम नहीं रही
थी।
"इसका नाम रोशनी रखेंगे सोनी... रोशन जैसी रोशनी। तू देखना खूब जतन करूँगा
इसका मैं। थोड़ी बड़ी हो लेने दे, तुझे और इसे शहर ले जाऊँगा। वहीं पढ़ाऊँगा,
किसी अच्छे स्कूल में। मदरसे नहीं भेजूँगा शमशेर खालू की तरह।"
"जाओ रहने दो पूरे खानदान में कोई लड़की बड़े शहर के अच्छे स्कूल में गई भी है
कभी?" इठलाते हुए सोनी ताना जरूर मारती पर भीतर से जानती थी कि जमील बात का
पक्का है। फिर अपने छोटे से घर की कल्पना उसके मन में नई चंचलता भर रही थी।
बिटिया को छोड़ आए जमील का मन गाँव में ही अटका रह गया। जब भी मौका पाता अनोखे
को या कमरे में लौटने पर प्रकाश और सुनील को उसके छवि का बखान करके सुनाता।
"अबे पगला गया है। हम भी बाप बने हैं कि तू निराला बना है?"
सब उसे छेड़ते पर उस छेड़ में जमील को और आनंद आता।
जमुनापुरी की उस बस्ती में जमील ने ठीक-ठाक कमरा देखना भी शुरू कर दिया था।
यों बस्ती कच्ची थी और गंदी भी पर काम के नजदीक तो थी। साइकिल से आने-जाने में
ज्यादा समय नहीं लगता था उसे। आगे की योजना सोचकर अपने काम को भी उसने बढ़ा
लिया। पुराना घरेलू सामान भी अब वह खरीदने और बेचने लगा। धंधे के कुछ लोगों से
सही जान-पहचान हो गई थी तो उसकी हिम्मत बढ़ गई।
पुराना फर्नीचर, कंप्यूटर, टी.वी., टेपरिकॉर्डर वगैरहा बिजली का सामान सब लेने
लगा कबाड़ में। यों घरों को समयानुसार नया बनवाने वाले लोग पुरानी चौखटें,
ग्रिल, घुन खाए या पानी में फूल गए दरवाजे, जाली की बेकार हो चुकी खिड़कियाँ
आदि बिकवाने के लिए उसे ही बुलाते। लोग पुराने हर सामान से उकताकर नए सामान की
ओर दौड़ रहे थे। अब भारी और टिकाऊ का नहीं हल्का और टीम-टाम के फर्नीचर का चलन
था। पुराना टिकाऊ सामान जिसे करीबी रिश्तेदार भी लेना नहीं चाहते थे जमील उस
समस्या का जल्द समाधान कर डालता। इससे उसकी साख भी बन रही थी और पैसा भी।
अखबार, लोहा-लक्कड़ और प्लास्टिक अब भी वह खरीदता था पर अब समय के अनुसार अपने
को बदलकर धंधे का विस्तार उसने कर लिया था और खुश था। जब भी घर जाता रोशनी के
लिए अच्छे-अच्छे खिलौने और कपड़ों की खरीदारी करके ही जाता। अम्मा-अब्बा भी
खुश थे।
इस बार गाँव से आया तो उसका पक्का इरादा था अब कोई कमरा ठीक करके सोनी और
रोशनी को यहाँ ले आएगा। बच्ची की नींव सही पड़ गई तो ही अच्छी रहेगी जीवन भर
उसने सोचा। और फिर कमरा अनोखे और प्रकाश के बगल में ही लेगा। हारी-बीमारी के
साथी तो ये ही थे उसके शहर में। सब सोचते हुए दोस्तों से जरूर सारी बातें साझा
करता था जमील। अनोखे के साथ तो आना-जाना और काम की समान जगह होने के कारण
चौबीस घंटे का साथ था ही उसका।
"इस बार तू चलना अनोखे ईद पे मेरे संग गाँव। कसम से यार घर में घुसते बस नाम
बता दियो अपना फिर देखना कैसी खातिर होगी तेरी। सब जानते हैं तुझे।" जमील
बोला।
"तो तूने सब बक दिया है वहाँ।" ठेठ अंदाज में अनोखे ने कहा।
दोनों ने तेज ठहाका लगाया। अगले ही पल अनोखे बोला - "कहाँ फुर्सत होगी मुझे
दीवाली पर। सौ काम होते हैं। साल भर का त्यौहार थका मारता है। घर पहुँचते ही
सारे घर की पुताई में लग जाता हूँ। बैठने नहीं देती तेरी भाभी जरा सी देर को।
फिर काम पर नहीं लौटना है कैसे आऊँगा तू ही बता?"
"अरे बरेली से खतौली जरा सी दूर है। तू मेरे घर ईद मनाकर अपने यहाँ दीवाली मना
लेना या लौटती बार घर आ जाना दोनों संग लौट लेंगे।"
थोड़ी आना-कानी के बाद अनोखे मान गया। जमील ने सोचा संग ही सोनी और बेटी को भी
लेता आऊँगा एक साथी होगा तो बड़ी सुविधा रहेगी।
सुबह काम पर जाते समय दोनों ने देखा रास्ते में बड़ी चहल-पहल थी। पास जाने पर
मालूम हुआ यहाँ माता की चौकी बिठाई जा रही है। कई उत्साही नौजवान माथे पर
सुनहरी गोट की लाल चुन्नी बाँधे टेंट वाले से काम करवाते हुए भागदौड़ में लगे
थे। उनकी आवाजें खूब खुली हुईं थीं। पटरी और सड़क पर भी चौकी का सामान बिखरा
पड़ा देखा उन्होंने। मुख्य सड़क से करीब होने के कारण ट्रैफिक वहाँ से तिरछा
होकर गुजरने लगा। सबको खासी दिक्कत हो रही थी। पर धर्म का काम था तो सबको
असुविधा भी मंजूर। फिर लड़कों के हट्टे-कट्टे शरीर और गरजती आवाज ने किसी को
शिकायत करने की कोई छूट भी नहीं दी थी।
शाम तक दोनों अपने उसी पुराने रास्ते से लौटे तब तक माता का भवन पूरा सजकर
तैयार था। चार मेजों को जोड़कर माता का भवन सजाया गया था। बड़ी-सी, भड़कीले
रंग वाली प्रतिमा के सामने माता का शेर भी विराजमान था। स्टीरियो पर तेज आवाज
में भेंटे और भजन चल रहे थे। फिल्मी गीतों की चालू धुनों पर कुछ लड़के-बच्चे
नाच रहे थे। उनका नाच भी फिल्मी ही था, जैसे वो बोल पर नहीं धुन पर ही थिरक
रहे हों। अनोखे और जमील ने माँ के अस्थायी मंदिर के आगे शीश नवाया पर साइकिल
का हैंडिल नहीं छोड़ा। दिन भर के थके होने के बाद अभी खाना भी बनाना था और फिर
अगले दिन काम पर जाने के लिए सोना जरूरी था उनका। वैसे भी चौकी, जागरण तो अब
आए दिन की बात हो गई है। 'रोज-रोज अगर इनमें जाने लगें तो काम क्या खाक
करेंगे' - अनोखे नास्तिक नहीं था पर इस मामले में एकदम साफ था। चौकी से कमरा
पास होने के बावजूद जमील के तीनों संगियों में से कोई भी वहाँ नहीं गया।
अगले दिन काम पर जाते हुए दोनों ने देखा चौकी आज भी कल की तरह ही सजी है। हाँ
झाँकियाँ शायद और सजा दी गईं हैं। आज भीड़ कल से अधिक थी और स्टीरियो भी सप्तम
सुर में बज रहा था। साथ में एक टेबल और लगा दी गई थी। नए देवताओं के रूप में
गणेश, शिवजी के साथ विराजमान थे। दाएँ-बाएँ और सामने की छोटी सी जगह में
भक्तों के लिए दरियाँ भी बिछा दी गई थीं। उन पर रखी चादरों से अंदाजा हो रहा
था कि रात को कई लड़के यहीं सोए होंगे।
अब तो दोनों जने आते-जाते रोज ही माता के भवन में कोई न कोई नवीन परिवर्तन
देखते। चौकी के भवन पर लगे बिजली के लट्टू खींचकर आगे बनी मस्जिद के करीब तक
ले आए गए थे। पहले साधारण सा दिखने वाला भवन अब भव्य हो चला। रात में कई
भजन-मंडलियाँ भी जुट जातीं ऐसा सुनील ने सबको बताया। सुनील तो चौकी की आरती
में एक दिन शामिल भी हुआ। बस तभी से पड़ा था सबके पीछे - 'देख लो रात को एक
दिन आरती। इतने करीब में होने का कुछ तो फायदा उठा लो।'
अनोखे ने सोचा एक दिन सभी चल पड़ेंगे साथ, वैसे भी चौकी का प्रोग्राम कुछ दिन
आगे खिसक चुका था इसकी सूचना उसे भी मिल गई थी। शनिवार को शुरू हुई चौकी को कल
हफ्ता पूरा होने वाला था। सुबह वहाँ से गुजरते हुए अनोखे और जमील ने देखा कि
आज बात कुछ और ही है। आटे-आलू की बोरियाँ, तेल के कनस्तर, मसाले भी चौकी के
घेरे में पड़े हैं। और दो हलवाई बड़े-बड़े पतीलों-कड़ाहों को धोते पीछे की तरफ
भट्टी सुलगा रहे हैं।
"ले भाई आज तो भंडारा होगा। दोपहर में पूरी-आलू की सब्जी मिलेगी। हो सकता है
हलवा भी।" अनोखे ने हँसते हुए कहा।
"तू जा नहीं रहा था न चौकी में, तो लड़कों ने आज तुझे बुलाने का पक्का इंतजाम
कर दिया।" जमील ने चुटकी ली। दोनों ने तय किया कि आज खाने के समय यहीं आ
जाएँगे।
भंडारे के समय पहुँचे तो माहौल में अजीब-सी तनातनी के संकेत मिले। लाइन काफी
लंबी थी और लाइन में लगे लोगों से ही पता चला - "दिन में बड़ी पुलिस आई थी
मस्जिद के पास। एक दिन की चौकी तय होने के बाद अब हफ्ते से ऊपर इक्कीस दिन की
चौकी बिठा दी गई है।" किसी ने बताया।
"इन ठलुओं को कोई काम-धंधा नहीं है क्या? इक्कीस दिन जमे रहेंगे यहाँ? ...हमें
तो काम से मिनट भर फुर्सत नहीं भगवान को हम भी मानते हैं पर हमें फुर्सत नहीं
मिलती पूजा-पाठ की। आज भंडारा खाने आए हैं, खाकर निकलेंगे काम पर।" अनोखे चुप
न रह सका।
"हम भी तुम जैसे हैं भाई। पर असल बात ये है मस्जिद के ठीक बगल में माता का
मंदिर बनाया है। और धीरे-धीरे मस्जिद की तरफ सरकते आ रहे हैं। अरे कहीं और बना
लेते। ऐसे में न उनके भजन सुनाई पड़ेंगे न इनकी अजान। घाल-मेल से दोनों को
परेशानी होगी, दोनों भड़केंगे।" कोई बोला।
"हाँ, मस्जिद तो पक्की है और कितनी पुरानी भी मंदिर कहीं और बना लेते न।" जमील
का ये कहना था कि आग लग गई। पास से गुजरते किसी सेवक भक्त के कानों में पड़ते
ही धमाका हो गया।
"हमारा खाकर हमें गाली देने वाला तू कौन है बे? ...हम क्यों सरकाएँ मंदिर?
इतनी परेशानी है तो ले जाएँ वो अपनी मस्जिद कहीं और। हमारा मंदिर यहीं बनेगा
और जितने दिन चाहेंगे रहेगा। इनके बाप की नहीं हमारे बाप की जमीन है। गाड़
दिया है हमने तंबू, दिखाए कोई उखाड़कर।"
भक्त ने तैश में गुस्से, नफरत और अपने अधिकार का इजहार किया। उसके कई संगी भी
नजदीक आ गए। अनोखे ने चुप रहने का इशारा किया जमील को। भला हुआ जो ये लड़के
नहीं जानते थे कि जमील का धर्म क्या है। जमील का मन रुकने का कतई न था पर
अनोखे ने उसे रोके रखा। उधर मस्जिद के पास भी भीड़ जमा हो गई। कई लोग चौकी के
शोर-शराबे और बदइंतजामी से गुस्साए हुए थे। दोनों तरफ तनातनी थी और बीच में
भंडारे की भीड़। दोनों तरफ के लोग। मस्जिद के पास घिरे लोग अपने धर्म पर सीधे
प्रहार के कारण तो आहत थे ही उन्हें आज की जुम्मे की नमाज की फिक्र भी थी।
यहाँ भी नमाज के लिए भीड़ जुटनी शुरू हो रही थी। भंडारे की भीड़ से उन्हें
नमाज अदा करने की जगह निकालने में मुश्किल आने लगी। बरसों से कभी ऐसा न हुआ था
कि जुम्मे की नमाज में जगह कम पड़ी हो। पर लग रहा था आज ऐसा होगा। जमील ने
सोचा आज खाने के बाद वो भी नमाज अदा कर लेगा पर माहौल की नब्ज तेज होती जा रही
थी।
मस्जिद की तरफ से आए गुस्साए लोगों ने भंडारा जल्दी निबटाने की बात कही तो हवा
में जहर फैल गया। बात भद्दी गालियों से होती हुई सीधे तौर पर सांप्रदायिक रंग
ले बैठी। अपने-अपने धर्म की पैरवी में जिसके मन में जो आ रहा था वह बके जा रहा
था। 'हमारी मस्जिद पुरानी है... हमारा मंदिर यहीं रहेगा' - जैसे जुमले हवा में
तैरने लगे। उत्तेजना के माहौल को भाँपकर जमील ने वहाँ से निकल चलने के लिए
अनोखे का हाथ दबाया। पर अनोखे नहीं हिला। थोड़ी देर में आग ठंडी पड़ी पर उसे
सामान्य नहीं कहा जा सकता था। मस्जिद से आई भीड़ अभी वापिस लौटी ही थी कि माता
के भवन के पास मांस का लोथड़ा फेंके जाने का शोर मच गया। पर अबकी बार ये शोर
यों ही न थमा। चौकी के भ्रष्ट होने के साथ भक्तों का अहंकार आहत हुआ था। न
किसी ने लोथड़े को देखा न तफ्तीश की और सैलाब मस्जिद की ओर बढ़ चला। इससे पहले
कि लोग कुछ समझ पाते या सुरक्षित स्थान पर पहुँचते पत्थरबाजी शुरू हो गई।
मामूली पत्थर नहीं भारी-भरकम ईंटें। भंडारे की जगह लगी भीड़ में भगदड़ मच गई।
कई बच्चे, आदमी और औरतें रौंदे चले जा रहे थे। लोग बेतहाशा भाग रहे थे... लोग
बेमकसद मर रहे थे। धर्म के नाम पर सब जायज था जैसे।
पत्थरबाजी जारी थी। भीड़ अंधी हो चली थी, मंदिर-मस्जिद भी दिख नहीं रहे थे बस
भीड़ के दो चेहरे थे जो एक-दूसरे को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे। पहले मारकर
कौन जीतता है इसी की सारी लड़ाई थी। दल-बल समेत पुलिस भी आ गई तब तक। माता अब
भी संहार देखकर प्रसन्न मुद्रा में थीं। स्पीकर कहीं टूटा पड़ा था। मस्जिद के
आगे क्रोशिए की टोपियाँ छितरी थीं, वजू के लिए पानी के जग दबी-दुचकी हालत में
जहाँ-तहाँ पड़े थे। और कई शरीर कभी न उठ पाने की हालत में ईंटों की गिरफ्त में
थे। सड़क का सारा ट्रैफिक भयभीत दर्शकों की तरह सिमटा और सन्न था। सड़क के
दूसरी तरफ भीड़ से बचकर भागे लोगों का जमावड़ा तमाशबीनों के साथ खड़ा था। सब
अपनी जान बचने का शुक्र मना रहे थे और कई अपनों को ढूँढ़ पाने में असमर्थ होकर
भय से चीख रहे थे। सड़क लहूलुहान थी। पत्तलें, पूरियाँ, सड़क पर धूल फाँक रही
थीं। सड़क पर पलट गए सब्जी के पतीलों से बही सब्जी खून की रंगत में तर थी।
कितने ही लोग घायल, बेहोश पड़े थे। कर्फ्यू लगा दिया गया। पुलिस ने घटनास्थल
की छान-बीन की। देर तक जारी इस तहकीकात का सच काफी दिन बाद सामने आया। कुछ
बाहरी लोगों ने इस काम को अंजाम दिया था। जमुनापुरी का यह पहला दंगा था। टीवी
चैनलों पर सांप्रदायिकता की समस्या पर कुछ चर्चा हुई। नेताओं ने शांति बनाए
रखने की अपील की। ग्यारह लोग मारे गए थे। मारे गए और घायल लोगों को मुआवजे की
रकम सरकार से मिलना तय हो गया था। मरे हुए और घायलों की लिस्ट बनाई जा चुकी
थी... मुआवजा मृत व्यक्ति तीन लाख रुपये और घायल पचास हजार प्रति व्यक्ति।
सोसायटी में उस दिन कपूर साहब के घर सुबह से ही जमील की जरूरत आन पड़ी थी।
एकदम अर्जेंट काम था। उसके आने के समय का हिसाब लगाकर मिस्टर कपूर ने गार्ड
रूम में फोन लगाया - "गार्ड, सुनो एक सौ दो नंबर से बोल रहा हूँ, जमील आए तो
फौरन भेजना... सबसे पहले मेरे घर। समझे?"
'समझे' शब्द की सख्ती समझकर गार्ड तुरंत बोला - "सर जी, जमील और अनोखे का कुछ
पता नहीं। कई दिनों से गायब हैं दोनों।"
गौ-ग्रास लेने के लिए आने वाली गाड़ी टाइम से सोसायटी में घुस रही थी। तेज
संगीत में गीत बज रहा था - "जय धरती माँ... जय गऊ माता... जय गऊ माता-जय गऊ
माता।"