''कॉलेज से आते ही माँ ने जैसे ही खबर दी कि नीति आई हुई है तो जैसे मुझे तो
पर ही लग गए। सीधी तुझ से मिलने चली आई। ...और बता न कैसी है तू ...सब लोग
कैसे हैं...'' चहकते हुए अभिधा ने बोलना शुरू किया लेकिन बात पूरी न हुई उससे
पहले ही उसे ये एहसास भी हो गया कि मेरे चेहरे पर वो खुशी नहीं प्रकट हुई जो
कि उसे देखने पर होती थी। वो भी एकाएक बुझ सी गई। एकटक देखते हुए सोचने लगी कि
क्या बात है?
''नीति क्या हुआ? इन आठ महीनों में ही तूने क्या हालत बना ली। नई शादीशुदा
लड़कियाँ भला ऐसे मुरझाती कब है? उनकी खुशी तो सँभाले नहीं सँभलती है। तुझे
क्या हुआ बता न! मेरा दिल बैठा जा रहा है सब ठीक तो है ना।''
अभिधा ने मेरा हाथ पकड़ गहरे अपनत्व से अपनी आँखों में मेरी पीड़ा लेने की कोशिश
की लेकिन मैं क्या बताती? कुछ भी तो नहीं था। लेकिन मन इस बात से सहमत न हुआ।
कुछ तो था जो बहुत था और अंदर ही अंदर खाए जा रहा था।
''अरे! अभिधा आ गई, बहुत अच्छा किया। अब तू ही सँभाल अपनी प्यारी सहेली को।
इतने दिनों बाद मायके आई है। लेकिन चेहरे पर खुशी ही नही दिख रही। आई तबसे
गुमसुम है। तू ही कुछ पूछ। मैं तो पूछ कर हार गई।''
मेरी उदासियों ने माँ को भी चिंता में डाल दिया था। लेकिन मैं क्या करती? कुछ
समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है। नील मुझे बहुत चाहते है। फिर भी मन का
एक कोना किरचा-किरचा सा रहता। एक खालीपन जो किसी प्रयास से भरता ही नहीं।
जब तक रही अभिधा आती रही लेकिन बार-बार पूछने पर भी मैं कुछ बता न सकी। हर
सवाल का एक ही जवाब होता 'अच्छी हूँ। सब लोग बहुत अच्छे है। बहुत खुश हूँ।'
मुझे मायूस देख कर कुछ देर जान-बूझ कर इधर-उधर की बातों से हँसाने की कोशिश
करती लेकिन इच्छानुरूप कुछ परिवर्तन न देख आप ही थक हार कर चली जाती। एकांत
में उसके साथ किए अपने व्यवहार पर पछतावा होता लेकिन मन उन उदास गलियों की
पहचान न कर पाता।
कुछ दिनों बाद ससुराल लौट आई। जीवन मंथर गति से चलता जा रहा था। काम करते-करते
नजरें कही ठहर जाती। मन कुछ का कुछ सोचने लगता।
वो चंचल उम्र जब चारों तरफ उमंग ही उमंग नजर आती थी। मन की खुशी तो जैसे छलक
पड़ने को आतुर ही रहती। हो भी क्यूँ नहीं। दिखने में मैं बेहद सुंदर, गोरी
सहेलियों की टोली की दुलारी थी ही पढ़ाई, खेल और दूसरी गतिविधियाँ भी मेरे बिना
पूरी न होती थी। कॉलेज में लड़कों की प्रशंसात्मक नजरें भी छुपी नही रहती थी।
लेकिन मन तो अपने राजकुमार के इंतजार में रहता। सोचती इतनी प्रतीक्षा क्यूँ
करा रहा है? झट से सपनों की चाँदनी की ओट से निकल सामने निकल क्यूँ नहीं आता।
वो काल्पनिक सौम्य, शालीन चेहरा कहीं गहरे तक पैठ चुका था मेरे मन में।
ये एकाकीपन खोयापन किसी की आवाज से भंग होता जब घर का कोई भी सदस्य अकेले में
मुझे मुस्कुराता देख कर अचंभित होता। मैं झेंप जाती। लेकिन वो तो ठगा ही रह
जाता कि मैं होश में होती हूँ तो कभी मुस्कुराती नहीं फिर ये मुस्कुराहट कैसी?
वर्तमान में मुझे ऐसा कुछ नजर न आता। वही दिन, वही काम एक सी बोझिल उत्साहहीन,
उमंगहीन दिनचर्या लेकिन अतीत की गलियाँ मुझे रगं बिरंगी लगती जहाँ मैं अक्सर
भटकती रहती। कही थाह न मिलती। कहाँ टूटा है, क्या कमी है कुछ समझ न आता। नील
दुकान जाने के लिए तैयार होते तो उदास सी एकटक देखती। आँखें भले नील पर रहती
लेकिन मन उसका चेहरा लेकर अतीत में घुसपैठ करता। उन बीते सपनों में उसका चेहरा
प्रतिस्थापित कर खुश होता। लेकिन इसकी परिणति डबडबाई आँखों से होती। क्षण भर
में वर्तमान में आ इधर-उधर तकने लगती। नील चिंतित से होकर मेरा चेहरा हाथों
में लेकर परेशान दिखाई देते लेकिन मैं काम का बहाना कर वहाँ से हट जाती। फिर
बालकनी में खड़ी होकर नील को स्कूटर पर जो हुए देखती और धीमे कदमों से अंदर
आती।
नील, शर्ट कमर पर पैंट के बाहर रखते। मैं उन्हें आकर्षक युवकों की तरह शर्ट
पैंट में डाल कर रखने को कहती लेकिन वो कहते नहीं दुकान में सामान उतारते हुए
अंदर शर्ट ठीक नही रहता। फिर क्या फर्क पड़ता है इससे। लेकिन मुझमें न जाने
इतनी छोटी सी बात से क्या दरक जाता। नील चले जाते। मैं उन्हें तकती रहती। रात
तक लौटते तो तेल, हल्दी, गुड़, धनिया की मिली जुली गंध से गंधाए हुए। बातें भी
सब्जी इतनी बिकी, तेल खतम होने को है, गुड़ तो आजकल बहुत कम निकलता आदि आदि।
सुनकर कान बंद करने का मन करता। उफ! ऐसी बातें क्यूँ करते हैं ये? दूसरी कोई
भी बात नही कर सकते। राजनीति, ज्ञान, दुनिया में हजारों हजार विषय पड़े है
लेकिन इनके लिए किरानी और किराणा दुकान ही सब कुछ है।
कभी खाना खाते कहते 'माँ! दुकान में नई मिर्ची आई हुई है कल ले आँऊगा। ये जरा
पुरानी हो गई है।' तो लगता जैसे उठ जाऊँ। नील इससे ऊँचे दर्जे की कोई दूसरी
बात करे, ऐसी मन ही मन कामना करती।
जीने का जैसे उत्साह ही चुकता जा रहा था। शादी के दिनों में कितनी खुश थी मैं।
मन की खुशियाँ जैसे मेरे इर्द-गिर्द फूल से बिखेरने लगी हो। सुंदर पति होगा,
अच्छा घर, बढ़िया नौकरी। पति जब बन-ठन कर ऑफिस जाएँगे तो मैं भी सज-सँवर कर
उन्हें छोड़ने बाहर तक जाऊँगी और जब तक ओझल न हो जाएँगे हाथ हिलाते उन्हें ही
देखती रहूँगी।
नील सुबह आठ बजे ही निकल पड़ते है। पहले स्कूटर धोते फिर उसे चालू करने की
मशक्कत करते। कई बार तो साइकिल की तरह दौड़ाते और चालू होने के बाद उस पर चढ़ते।
ये दृश्य मुझसे देखा न जाता। उस आवाज से बचने लिए स्नान घर में जाकर नल पूरा
खोल देती और दीवार से सिर टिका कर कुछ सोचने लगती। उस आवाज तले स्कूटर की
घर्रर्र-घर्रर्र दब जाती। बहुत बाद दरवाजा खोल कर बाहर आती सोचती अब वो आवाज
नहीं आएगी तभी हाथ में पेचकस और दूसरे छोटे मोटे औजारों के साथ दिखाई देते
यानी अब मिस्त्रीगिरी भी की जाएगी। सिर झुकाए मैं काम में जुट जाती इतनी
तल्लीनता से कि बाहरी दुनिया की आवाजें मुझ तक न पहुँचें। मेरी हरदम उदासी देख
दो-तीन बार डॉक्टर को भी दिखा आए लेकिन कहीं कुछ दिखाई देने वाली बात होती तो
पकड़ में आती न।
उस दिन कॉलेज की सहेलियाँ मुझसे मिलने आई। देखते ही छाती धक् रह गई। खुशी की
बजाय माथे पर पसीना चू आया। खिलखिलाती तितलियाँ इस आशा से चुपके से घर में
प्रविष्ट हुई कि अचानक सब प्यारी सहेलियों को सामने पाकर मैं झूम उठूँगी लेकिन
एकदम विपरीत देखकर उनका उत्साह भी सोडा के बुलबुले की भाँति बैठ गया। यह सब
मैंने जाना लेकिन पोल खुलने का डर खुशी पर ज्यादा हावी हो गया और ...लेकिन
कैसी पोल? अपने आपसे पूछा मैंने। कहाँ कमी है? और देख रही हूँ मेरी सहेलियाँ
कैसे सासू माँ से घुलमिल कर बातें कर रही है। एक बार मेरा रंग उड़ा जान चौंकी
अवश्य कितु इन तितलियों ने कितनी जल्दी वातावरण को एकदम ही रंग-बिरंगा,
हल्का-फुल्का बना दिया। छोटे देवर-ननद से ऐसे हिल-मिल गई है जैसे कब से ही
जानती हों। कोई घर देख रही है, कोई सासू माँ की बनाई मठरी की तारीफ कर रही है,
कोई छोटे देवर को गोद में उठा उसको अपने बचपन की हिंदी कविता सुना रही है।
देखकर मन कुछ हल्का हुआ। सोच कर तसल्ली हुई। और मैं धीरे-धीरे उनमें घुलने का
प्रयास करने लगी। कुछ ही देर में मन की कड़वाहट दब गईं। हँसी ठिठोली में मुझे
ध्यान ही न रहा कि सासू माँ चाय की ट्रे लिए एकटक मुझे देख ही देख रही है।
''बहुत अच्छी हैं तुम्हारी सहेलियाँ नीति! ओैर नीति तो बहुत ही अच्छी बहू है।
जब से आई है घर रोशन हो गया। हम तो इसका हँसता चेहरा देखते ही खुश हो जाते
हैं।''
कहते-कहते सबको चाय दी लेकिन मैंने चौंककर उन्हें देखा और अपराधबोध से मेरा
सिर झुक गया। तभी किसी ने सिर पर हाथ फेरा, देखा सासू माँ ही हैं। उस स्पर्श
में जाने क्या था कि मन भर आया। थूक गटक-गटक कर आँसुओं को रोकने की सफल कोशिश
की।
''नीति तुम्हारे घरवाले तो बहुत अच्छे है। इतनी ममतामयी सास कहाँ मिलती है?
हमें तो सास के नाम पर ताने मारती फिल्मी सास ही नजर आती है। ये तो एकदम अपनी
माँ सी ही है।''
शालू ने गंभीर बात को हल्का रुख देकर फिर गहरे अर्थ पर खतम की। तभी जूही चहकी
''और देख घर कितना अच्छा हैं। वैसे भी घरवालों से घर अच्छा होता है। निष्ठुर
घरवाले हो तो महल भी मिट्टी है। नहीं तो देख तेरी अच्छी सास के साथ एक घंटा
रहकर हमें ऐसा लगा जैसे किसी मंदिर में बैठे हैं। ''
मन के घने बादल कुछ छितराने लगे तभी घड़ी देख कर दिव्या ने इशारा किया और सब
खड़ी हो गई जाने के लिए। जाते-जाते जूही ने मेरे हाथों को अपने हाथ में लेकर
कहा
''बहुत अच्छा है नीति! तेरा ससुराल। सुख, शांति जो दूसरी भौतिक सुविधाओं से
कहीं बढ़कर है। इसे सँभाल कर रखना। तुम्हें भी सब कितना मानते है। जीजू भी
तुम्हें बहुत चाहते हैं... मेरा मतलब है... चाहते ही होंगे। सबके साथ अपना भी
ध्यान रखना।''
कहकर वह हाथ छुड़ाकर चली लेकिन मैं उसे अचंभित सी देखती रह गई। ऐसा लगा जैसे वो
कुछ देखने आई थी और 'सब कुछ ठीक' की तसल्ली कर के जा रही हो। वो चली गई लेकिन
मैं न जाने किन विचारों में गुम गई।
कुछ दिनों से देखती हूँ कि सुनील दुकान से थोड़ा जल्दी घर आ जाते है। कबाड़ कमरे
में पड़ी अपनी पुरानी किताबों में जा बैठते और कुछ किताबें झाड़-पोंछ कर एक तरफ
रखते जाते। कुछ ही दिनों में किताबों का एक बड़ा जत्था कमरे में स्थान पा गया।
जिस पुरानी पढ़ाई की मेज पर इस्त्री के कपड़े रहते थे वहाँ फिर से किताबें
स्थापित हो गई। शाम को थोड़ी देर बातें करते, हँसते-हँसाते और लाड़ से मुझे
सुलाकर खुद न जाने क्या पढ़ते। फोन पर भी अक्सर किसी से पढ़ाई-परीक्षा की ही
बातें करते। पूछने पर कुछ भी न बताते। मैं ऊहापेाह में फँसी कुछ समझ ना पाती।
सारा माजरा समझने की कोशिश करती लेकिन उतनी ही असफल होती। आखिर मैंने खुद को
समय के हवाले कर दिया। सब घर वाले अब अधिकाधिक मेरा ध्यान रखते। मैं भी लगभग
खुश ही रहती लेकिन कभी-कभी वही बात हावी हो जाती और मैं खिन्न हो जाती। कुछ
दिनों के लिए नील ने दुकान पर जाना कम कर दिया। अधिकतर अपने दोस्त के यहीं
रहते। कहते दूसरा नया काम मिला है सोच रहा हूँ पहले उसके बारे में सीख लूँ।
फिर ही वो काम शुरू करूँ। केवल सुबह-सुबह नहाने-धोने और सबसे मिलने आते।
खूब-खूब प्यार करते मुझे। मैं शिकायत करती कि मुझे ऐसे अच्छा नहीं लगता तो
कहते बस कुछ दिनों की बात है बस फिर सब ठीक हो जाएगा। अपने लिए उनकी आँखों में
असीमित प्रेम देखकर निहाल हो जाती लेकिन 'सब ठीक हो जाएगा' वाली बात समझ न
आती। दो-तीन महीनों बाद एकाएक वो पहले की तरह घर पर रहने लगे और नियमित रूप से
दुकान जाते। एक आदमी और रख लिया था दुकान पर। इससे घर पर भी समय देते।
फिर कुछ दिनों बाद ऐसा लगा जैसे हर सुबह घरवालों को अखबार में कुछ देखने की
बड़ी उत्सुकता रहने लगी है। अँधेरे-अँधेरे अखबार आता लेकिन उससे पहले ही सब
बरामदे में चहलकदमी करने लगते और अखबार देखते ही सब झुक कर न जाने क्या देखते
और कुछ मिनटों बाद ही सब सहजता से अपना-अपना पन्ना लेकर बैठ जाते। पूछने पर
मानसी कहती -
''देखो भाभी आजकल फिल्मी खबरें कितनी छपती है यही देखनी होती हैं सबको।''
मैं कुछ और पूछूँ उससे पहले ही खिसक लेती। हरदम भाभी की रट लगाने वाली मानसी
कुछ मुझसे बचने भी लगी थी।
ऐसे ही एक दिन सवेरे-सवेरे सब खुशी से उछल पड़े। मानसी भैया! भैया! कहते-कहते
गोद में ही चढ़ गई। माँ पिताजी तो जैसे नील पर वारि-वारि ही जा रहे थे। सब खुशी
से सरोबार थे लेकिन मै असल माजरे से अनजान अंदर बुत बनी समझने की कोशिश कर रही
थी। कुछ पूछना चाहूँ लेकिन किससे? कोई अंदर ही नहीं आना चाह रहा था। कुछ देर
बाद खुशी का ज्वार थमा तो खुसुर-पुसुर शुरू हो गई। फिर देखा कि मानसी ने नील
को अंदर धकेल दिया।
नील प्रेम भरी नजरों से वहीं खड़े-खड़े तकने लगे। मैं तो किंकर्तव्यविमूढ़ सी ही
रही। एकटक देखते आँखें भर आई थी तभी दौड़कर मुझे सीने से लगा लिया। बहुत दिनों
की इस लुकाछिपी से हार कर मैं भी निढाल हो चुकी थी। बलिष्ठ बाँहों का दृढ़
सान्निध्य पाकर विभोर हो गई। सीने से लगाए ही मुझे पलंग पर बिठा दिया और खुद
भी पास बैठ गए। थामा हुआ अखबार खोलाकर एक समाचार पर अँगुली फिराई। समाचार था
'पुलिस उप निरीक्षक का परीक्षा परिणाम घोषित'। मैंने धड़कते दिल से प्रश्नवाचक
नजरों से उनकी आँखों में झाँका तो उन्होंने इशारे से फिर अखबार में देखने को
कहा। देखा तो एक रोल नंबर पर पैन से गोला बनाया हुआ था। मैंने कहा तो उससे
क्या?
''एक बात कहूँ'' गंभीर होकर जैसे ही कहा उत्सुकता से मेरी धड़कनें बढ़ गई। ''तुम
जल्दी ही सब इंसपेक्टर की पत्नी कहलाओगी।''
मैं आँखें फाड़े कभी अखबार को, कभी इनको देखती। खुशी, क्षोभ, पश्चाताप से भरी
रो पड़ी। अब वो स्वयं भी सुबक पड़े। अब तक की मेरी पीड़ा, अवसाद, शरमिंदगी सब कुछ
आँसुओं में बहने लगी। अचानक एहसास हुआ मेरे कारण सभी परेशान थे। इतने दिनों तक
मैं सबकी परेशानी का कारण बनी रही लेकिन किसी ने मुझे इसका एहसास भी न होने
दिया। मेरे आने के बाद शायद घर का संतुलन बिगड़ गया था।
सोच कर ही अपराधबोध से भर उठी।
''मुझे माफ कर दीजिए। मैं ...मैं... बहुत बुरी हूँ, आपको खुश नही रख सकी। अपने
में ही उलझी रही, आपके प्यार को भी समझ न सकी ...लेकिन मुझे बताइए आप अचानक
दुकान छोड़कर पढ़ाई कैसे करने लगे थे?''
''तुम्हें बड़े ऑफिसर से पति की कामना थी ना!''
ऐसा लगा जैसे आत्मा के अंदर धँसी बात को नील ने खींच कर मेरे हाथ में धर दिया
हो। आश्चर्य, विस्मित सी इन्हें देखने लगी कि इन्हें कैसे पता चला? मेरे भीतर
की सुगबुगाहट को तो मैं भी कुछ नाम न दे पाई। इनको कैसे भनक पड़ी? फिर तो इनकी
आँखों का सामना करने की मुझमें ताब न रही।
''अरे! घबराओ मत। कोई पहाड़ नही टूट पड़ा। सुनो सब बताता हूँ। तुम्हें याद है हम
साइकैट्रिस्ट के पास गए थे। उसके बाद दो-तीन बार और बुलाया था। चौथी बार
उन्होंने मुझे अकेले ही बुलाया था। मैंने तुम्हारे पूरे व्यवहार और मनोस्थिति
के बारे में विस्तृत चर्चा की थी। सारे विचार विमर्श के बाद हम इस निर्णय
पहुँचे थे कि तुम्हें सुंदर, सौम्य अफसर पति की चाह थी। सगाई के दिनों में मैं
सी.ए. कर रहा था। लेकिन बाद में मुझे पिताजी की बीमारी के कारण न चाहते हुए भी
पढ़ाई छोड़ दुकान सँभालनी पड़ी। तुम्हारे मन में मेरी सी.ए. वाली छवि पैठ गई थी।
यही मन में लिए तुम इस घर में आई थी। मैं देखता था तुम शुरू-शुरू में तो बहुत
खुश रहती थी। मेरे दुकान आने-जाने को तुम 'ऑफिस से कब आओगे? ऑफिस से जल्दी
आना' यही कहती थी लेकिन मैं यही समझता था कि तुम यूँ ही कहती होगी। धीरे-धीरे
तुम्हें पता चला होगा कि मैं किसी ऑफिस नही बल्कि किराणा की दुकान जाता हूँ तो
तुम्हारा दिल टूट गया होगा, सपने बिखर गए होंगे...'' मैं भौचक्की सी सच्चे
प्रेम से भरे पति को बस ठगी सी देखती रही जिसने मेरे हदय में उतर कर मुझसे भी
अधिक मुझको पहचान लिया।
''...सचमुच नीति मैं सोचता ही रहता कि तुम्हें एकाएक ये क्या हो गया। झरने सी
खिलखिलती मेरी नीति गुमसुम कैसे रहने लगी। माँ से कहा तो उन्होंने तुम्हारा
ज्यादा ध्यान रखना शुरू किया। तुम्हारा उदास चेहरा मुझसे देखा न जाता। तुम्हें
बहलाने की कोशिश करता लेकिन तुम्हारे मन में जाने कौन सा काँटा था जो मेरे
इतने प्यार के बावजूद न निकला। फिर मै अभिधा से मिला उसने भी यही सवाल किया।
मैं क्या कहता? मैं तो खुद उलझन में था। उसने तुम्हारे कॉलेज की बातें बताई तो
मुझे तुम्हारे मन की सही स्थिति का भान हुआ। फिर हमने तुम्हारी सभी सहेलियों
को तुम्हारे पास भेजा जिससे कहाँ कमी है वो एक लड़की के नजरिये से बल्कि लगभग
तुम्हारे नजरिये से देख सके। माँ से, सब घरवालों से मिलकर पूरी तरह संतुष्ट हो
कर गई बस तुम ही खोई सी थी। तब मुझे विश्वास हो गया कि कमी मुझ में ही है। और
उसके बाद कई छोटी-छोटी घटनाएँ याद आई। नतीजा यह निकला कि मुझे मेरी नीति के
लिए चाहे कुछ भी करना पड़े करूँगा पर नीति का मनचाहा अवश्य बनूँगा। उसे वैसे ही
वापिस खिलखिलाता देखना जैसे मेरी जीवन का लक्ष्य बन गया। देखता था कि तुम सबसे
घुलने-मिलने का प्रयास करती। कभी किसी को शिकायत का मौका न देती। फिर तो मैंने
ठान ही लिया कि कुछ बनना है। सी.ए. की पढ़ाई तो वापिस संभव नही थी सोचा दूसरी
प्रतियोगी परीक्षाओं में ही सफल होकर तुम्हारे सपने को सच करूँ। इस काम में
हमारे परिवार का पूरा सहयोग रहा और दोस्त के यहाँ मैं काम सीखने नहीं बल्कि
पढ़ने जाता था। बस! परिणाम तुम्हारे सामने है।'' कहकर नील ने मेरी ओर देखा।
मेरे पास आँसुओं की लड़ियों के सिवा कुछ न था। वो नासमझ सहेलियाँ कितनी समझदार
निकलीं और माँ-पिताजी, नील की अच्छाई को बखान करने के शब्द ही नही थे।
सोनू-मानसी जो कोई बात बताए बिना चैन न पाते थे वो इतनी बड़ी बात कैसे पचा गए।
''मुझे माफ कीजिए।''
लेकिन नील बोले ''मुझे तो तुम्हारा शुक्रगुजार होना चाहिए कि तुम्हारे प्रेम
के बल पर यह काम कर पाया। नहीं तो हमेशा वैसा ही रह जाता।''
'' फिर भी आप जैसे सज्जन, स्नेहशील घरवालों के बीच रहते हुए भी ओहदे जैसी
तुच्छ चीज के पीछे भागती रही मैं। इसका मुझे बहुत दुख हो रहा है लेकिन ये सोच
कर संतुष्ट हूँ कि ये सब नही होता तो आप सबके मेरे प्रति असीमित प्रेम को मैं
कभी जान न पाती।'' कहकर मैं अपनी प्यारी सासू माँ, पिताजी और ननद-देवर की ओर
दौड़ पड़ी। मन के हर कोने से कोहरा छँटते ही जैसे प्यार, अपनत्व, संतोष की
सुहानी धूप किलक पड़ी।