भूमिका
1890 में 'प्रणयिनी परिणय' से रचना यात्रा प्रारंभ करने वाले किशोरीलाल गोस्वामी भारतेंदु परवर्ती और पूर्व द्विवेदी युग में अपने 65 उपन्यासों, कुछ नाटकों और कई निबंधों की रचना कर अपने समकालीन और परवर्ती रचनाकारों के प्रेरणा स्रोत बने। वे बालकृष्ण भट्ट, रत्नचंद्र, जगन्मोहन सिंह की परंपरा के उपन्यासकार थे। भारतेंदु हरिश्चंद्र की प्रेरणा से जो लोग साहित्य-लेखन में प्रवृत्त हुए उनमें किशोरीलाल गोस्वामी का नाम प्रमुख है। अपने पहले उपन्यास 'प्रणयिनी परिणय' के निवेदन में बाणभट्ट कृत कादंबरी का उल्लेख और उससे प्रभाव ग्रहण करने वाले गोस्वामी जी पर पारिवारिक एवं साहित्यिक संस्कारों तथा तत्कालीन नवजागरण की चेतना का प्रभाव देखा जा सकता है। रसिक पाठक समुदाय जो अभी पूरी तरह पाश्चात्य रंग में रंगा नहीं था, जिसकी संवेदना के तार अभी तक रीतिकालीन नख-शिख वर्णन, नायक-नायिका प्रेम-विरह से झनझनाते थे, उस पाठक समुदाय की रुचि उपन्यास की ओर मोड़ने का काम किशोरीलाल गोस्वामी ने किया। उन्होंने अनेक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को उपन्यासों की रचना का आधार बनाया जिनमें इतिहास कम, कल्पना अधिक है। इस संबंध में अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए लिखा ''हमने अपने बनाए उपन्यासों में ऐतिहासिक घटना को गौण और अपनी कल्पना को मुख्य रक्खा है; और कहीं-कहीं तो कल्पना के आगे इतिहास को दूर ही से नमस्कार कर दिया है।'' अधिकांश उपन्यासों का संबंध मुस्लिम शासन-काल से है। गुलाम वंश की सुल्ताना रज़िया (तेरहवीं शताब्दी) से लेकर नवाबों के पतन तक के लेखक क्योंकि मुसलमान थे; अतः गोस्वामी जी का विचार था कि उन्होंने अपनी जाति के शासकों के पक्ष में हिंदुओं को नीचा दिखाने के लिए घटनाओं को तोड़ा-मरोड़ा है और अनेक प्रकार की काल्पनिक तथा झूठी कथाएँ गढ़कर भर दी है। इसी से इन्होंने योरोपीय लेखकों की सामग्री से सहायता लेने का निश्चय किया। लेकिन दूसरों पर आरोप लगाना जितना सरल है, स्वयं निष्पक्ष रहकर काम करना उससे भी अधिक कठिन। कहने का तात्पर्य यह कि गोस्वामी जी ने ऐतिहासिक घटनाओं को अपने संस्कारों के अनुरूप ढालने में कम प्रयत्न नहीं किया है। हिंदुओं पर कुछ मुसलमान शासकों के अत्याचार से किसका मन क्षुब्ध नहीं होता? इनमें से कुछ लोग स्वभाव से विलासी थे। दूसरी ओर राजपूतों की वीरता और उनके चरित्र की उच्चता में भी किसी को संदेह नहीं है। लेकिन गोस्वामी जी ने बादशाहों और नवाबों की लंपटता, क्रूरता और कायरता तथा उनकी बेगमों और बाँदियों की विलासिता, चरित्रहीनता और छल-कपट का जैसा वर्णन किया है, वह निश्चित रूप से अन्यायपूर्ण और अतिरंजित है। मुस्लिम संस्कृति के किसी शुभ पक्ष की ओर इनकी दृष्टि गई ही नहीं। साथ ही इनके उपन्यासों में कहीं-कहीं काल-दोष भी पाया जाता है। पंडितराज जगन्नाथ सत्रहवीं शताब्दी के कवि थे और शाहजहाँ के शासन-काल में जीवित थे, यहाँ तक कि 'पंडितराज' की उपाधि उन्हें शाहजहाँ से ही प्राप्त हुई थी; लेकिन किशोरीलाल गोस्वामी ने उन्हें अपने उपन्यास 'सोना और सुगंध वा पन्नाबाई' में अकबर के दरबार में दिखाया है।
गोस्वामी जी पर समुदाय विशेष के प्रति पूर्वाग्रह रखने का आरोप कई आलोचकों द्वारा लगाया गया, परंतु उनके उपन्यासों को धैर्य से पढ़ने पर कई ऐसी बातें सामने आती हैं जो उन्हें अपने समय से आगे का कालजयी रचनाकार सिद्ध करती हैं, मसलन सुल्ताना रज़िया बेगम में उदार सांप्रदायिक दृष्टिकोण का वहन करते हुए स्वामी ब्रह्मानंद रज़िया से कहते हैं, ''खुदा के सामने हिंदू और मुसलमान दोनों बराबर हैं। हिंदू उसे राम कह कर पूजते हैं और मुसलमान खुदा कह कर। हिंदू उसकी मूरत बना कर पूजते हैं और मुसलमान बगैर मूरत रक्खे ही उसका ध्यान करते हैं। लेकिन खुदा हिंदू और मुसलमान दोनों का एक ही है और वह दोनों की परस्तिश से एक सा खुश होता है। मजहबी तअस्सुव को बिलकुल छोड़ कर हिंदू और मुसलमान को एक-सा समझना ही उस बादशाह के हक में बिहतर होगा, जो हिंदुस्तान की सल्तनत की बागडोर अपने हाथ में लेकर उसे बराबर कायम रखना चाहे।'' (वही, पृ. 11) उपन्यास में यह भी दिखाया गया है कि रज़िया स्वामी ब्रह्मानंद की प्रेरणा से एक मंदिर का ध्वंस नहीं होने देती। वह उन मुसलमानों को सजा देती है जो मंदिर को ध्वस्त करने तथा वहाँ एकत्र हिंदुओं को मार डालने पर आमादा थे। मुसलमान मंदिर की गोशाला से जो गाएँ खोल ले गए थे उन्हें भी वह वापस दिला देती है। वह मंदिर की देवमूर्ति के लिए मूल्यवान पन्ने का हार भी भेंट करती है। सांप्रदायिक उदारता से पूर्ण इन विचारों तथा प्रसंगों को देखते हुए गोस्वामी जी को 'मुसलमान विरोधी' कहने में झिझक होती है। रज़िया बेगम में एक स्थान पर ब्रिटिश शासन की तुलना में मुसलमानी शासन की न्याय व्यवस्था को श्रेष्ठ बताया गया है, ''इतना सुभीता उस समय अवश्य था कि न इतना स्टांपों का खर्च था, न वकील मुख्तारों की खेंचातानी थी, न मुद्दत तक मुकद्दमा झूला करता था और न मुद्दई मुद्दालह को आजकल की भाँति अत्यंत कष्ट उठाना पड़ता था, या सर्वस्व खोना पड़ता था। उस समय घूस भी अवश्य चलती थी और न्याय का अन्याय भी प्रायः होता था, पर सच्चा न्याय भी अवश्य होता था। ..आज की तरह खर्च इतना बढ़ा-चढ़ा न था कि लोगों को अखरता, या तबाह कर डालता।'' (रज़िया बेगम, पहला भाग, पृ. 44) समकालीन ब्रिटिश शासन की इससे अधिक कड़ी आलोचना उस युग में संभव नहीं थी। 'सुल्तान रज़िया बेगम वा रंगमहल में हलाहल' गोस्वामी जी के सबसे उल्लेखनीय उपन्यासों में गिना जाता है। गोस्वामी जी स्वयं को वाल्टर स्काट, विलियम थैकरे, बंकिमचंद्र की श्रेणी में रखे जाने के लिए प्रयासरत थे, उन्होंने स्वयं को 'हिंदी रसिकों का अनुगामी' कहकर अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों के प्रति कृतज्ञता भी ज्ञापित की। 'सुल्ताना रज़िया बेगम' के उपोद्घात में गोस्वामी जी ने उपन्यास लेखन के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा - ''हम इस उपन्यास में रज़िया बेगम का हाल लिखते हैं, इसलिए हमें उसी के राजत्व काल का इतिहास-मात्र लिखना था, किंतु हमने स्वाधीन भारतवर्ष पर पश्चिमवालों की चढ़ाई के आदि से लेकर गुलाम खान्दान तक का हाल, जिसमें रज़िया पैदा हुई थी, इसलिए लिख दिया है कि जिसमें इतिहास के सिलसिले में कोई गड़बड़ न हो और पढ़ने वाले उपन्यास के साथ ही साथ कुछ इतिहास का भी आनंद लें, जिसमें लोगों की रुचि केवल उपन्यास ही पर न रहकर इतिहास की ओर भी झुके, जिससे हिंदी भाषा में जो इतिहास का बिल्कुल अभाव है, वह मिटे।'' (सुल्ताना रज़िया बेगम वा रंगमहल में हलाहल, प्र. सं. संवत 1940, उपोद्घात)।
अपने समकालीनों की तुलना में अँग्रेजी सभ्यता के अनुकरण की प्रखर आलोचना करने का साहस उन्हें विशिष्ट बनाता है, वे अपने विचारों में स्पष्ट और दृढ़ हैं वे 'लीलावती' में लिखते हैं - ''स्त्री समाज की अधिष्ठात्री देवी है। सतीत्व उस देवी की जाज्वल्यमयी प्रभा है और उस प्रभा के प्रकाश से ही भारतवर्ष भूमंडल का आदर्श गुरु रहा है, किंतु जब स्त्रियों में अवैध स्वाधीनता, अयोग्य शिक्षा का प्रचार होगा तब भारत के महिला कुल के इस सतीत्व और उसकी प्रभा संपूर्ण विनाश हो जाएगी। तब यह देश घोर दुर्गति के गर्त में पड़कर सदैव के लिए मृतक हो जाएगा। अतएव, देश के नेता-जन स्त्रियों की रक्षा, उनके सतीत्व की रक्षा और समाज की रक्षा में विलायत वालों का अनुकरण कदापि न करें।'' समाज की उन्नति अशिक्षित जनों से संभव नहीं है। साहित्य का यह दायित्व है कि वह सिर्फ तत्वज्ञान नहीं बल्कि अपने पाठकों को वस्तुस्थिति का ज्ञान भी कराए। किशोरीलाल गोस्वामी ने अपने लेखन का यह प्रयोजन स्वीकार भी किया है। समाज सुधार एक ओर रीति रिवाजों में परिवर्तन एवं सुधार द्वारा संभव है तो दूसरी ओर आर्थिक-सामाजिक समृद्धि से भी। नवजागरण के प्रति यह वैज्ञानिक दृष्टि उन्हें विशिष्ट बनाती है।
सन 1903 ई. में प्रकाशित 'चपला वा नव्य समाज चित्र' में गोस्वामी जी ने आर्थिक उन्नति पर बल देते हुए लिखा है - ''...वरन एक दीन-हीन परिवार की शोचनीय स्थिति के साथ वर्तमान, शिथिल, उच्छृंखल और बंधनविहीन समाज-चित्र इस इच्छा से यथावत चित्रित किया गया है कि हमारे आर्य भ्राता लोग इस विशृंखल समाज को सुशृंखलाबद्ध करने के लिए मनसा, वाचा, कर्मणा, प्रयत्न करने में तत्पर हों और केवल नौकरी ही पर निर्भर न रहकर विद्योपार्जनपूर्वक, शिल्प, वाणिज्य, कला-कौशलादि के विस्तार से रसातलगत दीन भारत का उद्धार करें।'' (चपला वा नव्य समाज चित्र (चौथा भाग), निवेदन 1906 ई. में प्रकाशित)
गोस्वामी जी वे पहले रचनाकार हैं जो स्त्रियों के प्रति आधुनिक दृष्टिकोण को उपन्यासों में स्थान देते हैं। उनसे पहले के हिंदी उपन्यास या तो स्त्रियों का चरित्र सुधारने की चिंता से प्रेरित थे या उपन्यास के कलेवर में आचरण सहिताएँ (नवजागरण, स्त्री प्रश्न और आचरण पुस्तकें' लेख गरिमा श्रीवास्तव, प्रतिमान-4, अक्टूबर-दिसंबर 2014) लिखी जा रही थीं, गोस्वामी जी वे पहले उपन्यासकार हैं जिन्होंने देवदासी प्रथा के विरोध में आवाज उठाई। हिंदी में देवदासी प्रथा पर सबसे पहले लिखे जाने वाले 'स्वर्गीय कुसुम' की रचना का श्रेय उन्हें ही जाता है ''अब इस घोर कलिकाल में यह सत्यानासिनी प्रथा बंद हो जाए तो अच्छा है क्योंकि धर्म की व्यवस्था देश, काल और पात्र के अनुसार ही की जाती है।'' उपन्यास की केंद्रीय पात्र कुसुम को, उसके पिता द्वारा मंदिर की सेवा में अर्पित कर दिया जाता है जिसे छह सात वर्ष की उम्र में ही एक वेश्या खरीद लेती है और नृत्य-संगीत इत्यादि की शिक्षा देकर वेश्यावृत्ति करवाने लगती है। कुसुम असंतुष्ट है क्योंकि उसके अनुसार, ''संसार में यदि सचमुच किसी का जीना मरने से करोड़ दर्जे बुरा होता है तो वह वेश्याओं का है।'' जब उसे इस घृणित वृत्ति से बाहर निकलने का मार्ग दीखता है तब वह वसंत कुमार से गांधर्व विवाह कर वेश्यावृत्ति को हमेशा के लिए छोड़ देने का निर्णय लेती है। लेकिन समाज में गांधर्व-विवाह की स्वीकृति न मिल पाने की पीड़ा उसे सालती रहती है और वह अपने पति को दूसरा विवाह करने को बाध्य करती है। कथा में, परिस्थितिवश देवदासी बन जाने वाली स्त्री की यातना और सम्मानजनक जीवन जीने की इच्छा का सुंदर चित्रण हुआ है। कुसुम इस प्रथा के विरुद्ध सशक्त आवाज उठाते हुए अपने पिता से प्रश्न करती है - ''जिस प्रथा से व्यभिचार और वेश्यावृत्ति की दिन-दूनी और रात-चौगुनी बढ़वार हुई जा रही है, उस प्रथा को धर्म का अंग मानना - यह कैसा विचार है?'' इसके बाद कथा में उसके पिता राजा कर्ण सिंह, देवदासी प्रथा का नामो-निशान मिटा देने की प्रतिज्ञा करते हैं।
किशोरीलाल गोस्वामी के उपन्यासों में भारतेंदु हरिश्चंद्र तथा राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद दोनों की गद्य शैली का प्रभाव लक्षित होता है। भारतेंदु की गद्य शैली का प्रभाव 'माधवी-माधव' तथा 'अँगूठी का नगीना' तथा राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद की गद्यशैली का प्रभाव 'तारा वा क्षात्र कुल कमलिनी', 'सुल्ताना रज़िया बेगम' तथा 'लखनऊ की कब्र' में दिखाई देता है। किशोरीलाल गोस्वामी ने प्रभूत संख्या में उपन्यास लिखकर अपना स्थान परवर्ती भारतेंदु युग और द्विवेदी युग के प्रतिनिधि उपन्यासकार के रूप में निश्चित कर लिया था। जहाँ देवकीनंदन खत्री ने हिंदी उपन्यास के लिए पाठक-वर्ग का निर्माण किया वहीं किशोरीलाल गोस्वामी ने विपुल उपन्यास, और वो भी वैविध्यपूर्ण, लिखकर न केवल पाठकों की क्षुधा को तृप्त करने का प्रयास किया बल्कि नखशिख, विरह और प्रकृति के काव्यात्मक विवरणों के प्रस्तुतीकरण के साथ नई तरह की पाठकीय अभिरुचि के निर्माण का प्रयास किया। बालकृष्ण भट्ट ने 1905 में 'हिंदी प्रदीप' में किशोरीलाल गोस्वामी द्वारा 'हृदयहारिणी' उपन्यास के दसवें परिच्छेद में किए 'नखशिख वर्णन की प्रशंसा करते हुए उसे 'गोस्वामी जी की प्रौढ़ लेखनी का बड़ा उत्तम नमूना' बताया था। गोस्वामी जी नखशिख-वर्णन में सिद्धहस्त थे और मध्यकालीन साहित्य की तर्ज पर उपन्यासों में इसे शामिल करना उनकी उपलब्धि थी। उनके उपन्यासों के मुखपृष्ठ तथा परिच्छेदों का प्रारंभ संस्कृत के कवित्वपूर्ण, नीतिविषयक श्लोकों से होता था जो उनकी सुरुचि और संस्कृत ज्ञान का परिचय देने के लिए पर्याप्त हैं। भाषा के स्तर पर गोस्वामी जी अपनी राह स्वयं बनाते दीखते हैं। अपने पूर्ववर्ती देवकीनंदन खत्री की भाषा-शैली का अनुकरण करते वे नहीं दीख पड़ते। उनके उपन्यासों में सौंदर्य, विरह एवं प्रकृति-वर्णन का बाहुल्य है - उनमें भाषा प्रयोग का वैविध्य है, कहीं वे संस्कृतनिष्ठ काव्यात्मक और अलंकृत भाषा का प्रयोग करते दीखते हैं, कहीं चलती हुई तद्भव का। जगन्नाथ प्रसाद शर्मा ने उनकी भाषा पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि - ''गोस्वामी जी का भाषा पर अच्छा अधिकार था और यह बड़ी सजीव भाषा लिखते भी थे पर इसी अधिकार के कारण स्यात् वह उससे खिलवाड़ करने लगे थे। जहाँ तक हिंदी या विशेष संस्कृत-गर्भित हिंदी का उपयोग है वहाँ तक तो कुछ गनीमत है पर जहाँ इन्होंने उर्दू को अपने उपन्यासों में धर घसीटा है वहाँ यह बेतरह फिसले हैं। यदि यह अपनी ही संयत भाषा में लिखते तो इनके उपन्यासों का साहित्यिक गौरव बढ़ता ही। यह सब होते भी गोस्वामी जी ने काफी से अधिक उपन्यास लिख डाले हैं और उपन्यासकारों की श्रेणी में इनका स्थान आदरणीय है। साहित्य के सभी अंग विकसनशील हैं इस कारण वर्तमान उपन्यास-कला को दृष्टि में रखकर पहले के उपन्यासों को साहित्य कोटि से निकाल देना उचित नहीं है। हिंदी का साहित्य भंडार अपने अर्थ में विस्तृत है, संस्कृत सा संकुचित नहीं अतः केवल रस-संसार, भावविभूति या चरित्रचित्रण की कमी या अभाव से कोई रचना साहित्य के बाहर नहीं की जा सकती। सभी का अपना-अपना क्षेत्र है और उनके अंतर्गत उनकी सफलता ही उनका परिचायक है। गोस्वामी जी के उपन्यासों का अब कम प्रचार भी देखा जाता है और उनमें से कितने ही अप्राप्त भी हो गए हैं।''
किशोरीलाल गोस्वामी ने अपने लेखन से परवर्ती साहित्यिकों के हृदय में अपनी जगह बनाई। शिवपूजन सहाय ने उनके बारे में लिखा है - "गोस्वामी जी बड़े भारी लिक्खाड़ थे। इतना अधिक लिखा - इतने अधिक परिमाण में लिखा कि रचना की बहुलता में अपने समय के बहुत से लेखकों से बाजी मार ले गए।' किशोरीलाल गोस्वामी का रचनाकाल लगभग चालीस वर्षों तक विस्तृत है, उन्होंने रोमांटिक, तिलिस्मी, ऐयारी, जासूसी उपन्यासों की रचना की एवं रोमांटिक ऐतिहासिक उपन्यास लिखने की परंपरा गोस्वामी जी ने ही शुरू की। जब भी कोई समाज परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजरता है, उसके भीतर कई शक्तियाँ अपने-अपने दबावों के साथ मौजूद होती हैं, कई बार रचनाकार उन दबावों को पकड़ पाता है, जाने-अनजाने में वह अपने वक्त की आवाजों को अपनी रचना में जगह दे रहा होता है, जिनके बारे में उसे भी पता नहीं होता कि बहुत वक्त के बाद उसकी रचना वक्त की हलचल का सही पता देगी। औपनिवेशिक दासता और आम आदमी की घुटन को जिन उपन्यासकारों ने जाने अनजाने आवाज दी उनमें देवकीनंदन खत्री के बाद किशोरीलाल गोस्वामी का नाम आता है। जिन्होंने उर्दू दास्तानों के साथ साथ बंगला, अँग्रेजी और भारतीय पौराणिक कथाओं से प्रेरक भावसामग्री ग्रहण की। किशोरीलाल गोस्वामी का महत्व इस बात में है कि जहाँ उनके पहले और समकालीनों की चिंता का विषय था - पूर्वी और पश्चिमी सभ्यताओं का संघर्ष, जिनके लिए दोनों सभ्यताओं को जानने-परखने या उनका विश्लेषण करने की जरूरत नहीं थी, गोस्वामी जी पहली बार पुरातन मूल्यों को तर्कसम्मत दृष्टि से देखने और विवेचन करने का प्रयास करते हैं। औपनिवेशिक भारत में हिंदी के प्रारंभिक दौर में प्रकाशित किंतु अब अनुपलब्ध उपन्यासों वामा-शिक्षक (1873 - पुनर्प्रकाशन, नेशनल बुक ट्रस्ट) लवंगलता (1890) हृदयहारिणी (1890) पुनर्प्रकाशन - स्वराज प्रकाशन 2015) को पुनः सामने लाने के प्रयास तथा नवजागरण को पढ़ने-पढ़ाने के क्रम में प्रस्तुत विनिबंध लिखा गया। नवजागरण संबंधी कई शंकाओं के समाधान न मिल पाते यदि श्री कर्मेंदु शिशिरजी दूरभाष पर समय न देते। गोस्वामी जी से संबंधित सामग्री उन्होंने मुझे उपलब्ध करवाई। मेरे छात्र डा. विनोद कुमार, प्रफुल्ल कुमार और ज्योतिष यादव ने इस कार्य को संपन्न करने में सहायता की। हैदराबाद केंद्रीय विश्विद्यालय, नागरी प्रचारिणी सभा पुस्तकालय, दिल्ली विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों से मुझे बहुत सहयोग मिला। प्रोफेसर रविरंजन और डा. रमण प्रसाद सिन्हा ने निरंतर प्रेरणा और सुझाव दिए। सबके प्रति मैं अपनी कृतज्ञता निवेदित करती हूँ।
गरिमा श्रीवास्तव
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
नई दिल्ली-110067