शिवपूजन सहाय ने किशोरीलाल गोस्वामी के बारे में लिखा है - "गोस्वामी जी बड़े
भारी लिक्खाड़ थे। इतना अधिक लिखा - इतने अधिक परिमाण में लिखा कि रचना की
बहुलता में अपने समय के बहुत से लेखकों से बाजी मार ले गए।" (मासिक 'हिमाचल'
(पटना) वर्ष 1, अंक-2 फाल्गुन 2002 वि. सन 1945 ई.सं. शिवपूजन रचनावली खंड-4)
किशोरीलाल गोस्वामी का रचनाकाल लगभग चालीस वर्षों तक विस्तृत है। वृंदावन में
1866 ई. में जन्मे गोस्वामी जी को पूर्व द्विवेदी युग के महत्वपूर्ण कथाकार के
रूप में जाना जाता है। उन्होंने बाल प्रभाकर (काशी) वैष्णव सर्वस्व (वृंदावन)
सरस्वती संपादक मंडल में, उपन्यास (मासिक 1898) जैसे पत्रों का संपादन किया,
किशोरी सतसई की रचना की किशोरीलाल गोस्वामी ने पैंसठ उपन्यास लिखे, जिनकी
प्रामाणिक सूची रामनरेश त्रिपाठी द्वारा संपादित कविता-कौमुदी (दूसरा भाग) में
संकलित है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास में गद्य
साहित्य का प्रसार द्वितीय उत्थान (संवत 1950-1975) प्रकरण 4 में बाबू
देवकीनंदन खत्री के बाद दूसरे स्थान पर किशोरीलाल गोस्वामी को रखते हुए लिखा
है - "उपन्यासों का ढेर लगा देने वाले दूसरे मौलिक उपन्यासकार पंडित किशोरीलाल
गोस्वामी (जन्म संवत 1922, मृत्यु संवत 1989 है) जिनकी रचनाएँ साहित्य कोटि
में आती हैं। इनके उपन्यासों में समाज के कुछ सजीव चित्र, वासनाओं के रूप-रंग,
चित्राकर्षक वर्णन और थोड़ा बहुत चरित्र-चित्रण भी अवश्य पाया जाता है।"
गोस्वामी जी ने पाठकों की रुचि को ध्यान में रखते हुए उपन्यासों की रचना की।
उनके उपन्यासों में तिलिस्मी, ऐयारी, जासूसी, ऐतिहासिक, रोमांस सभी प्रकार की
पाठकीय रुचि का मसाला मिलता है। हिंदी में ऐतिहासिक रोमांस लिखने की परंपरा
गोस्वामी जी ने ही शुरू की। सन 1890 ई. में प्रतापनारायण मिश्र की प्रेरणा से
उन्होंने 'हृदयहारिणी वा आदर्श रमणी' शीर्षक ऐतिहासिक रोमांस की रचना की जो
मिश्र जी द्वारा संपादित 'हिंदुस्तान' के कई अंकों में प्रकाशित हुआ। सन 1890
ई. में ही उन्होंने 'लवंगलता वा आदर्शबाला' की रचना भी की। अपने समकालीन
उपन्यासकारों की अपेक्षा किशोरीलाल गोस्वामी में समाज-संबद्धता को देखा जा
सकता है। लाला श्रीनिवासदास ने 1882 में 'परीक्षा गुरु' को नई चाल की पुस्तक
कहा था, उसी विधा को अपनी समस्त प्रतिभा से संपन्न करने का कार्य किशोरीलाल
गोस्वामी ने किया। उपन्यासों की भूमिका में उन्होंने उपन्यास-संबंधी मान्यताओं
को अक्सर स्पष्ट किया है। किशोरीलाल गोस्वामी रचना के प्रयोजन के संदर्भ में
लिखते हैं - "आशा है कि ईश्वरानुग्रह से हम इसी प्रकार जीवन-पर्यन्त अपने
उपन्यासों से लोगों (पाठकों) का मनोरंजन किया करेंगे।" 'लवंगलता' उपन्यास के
'निवेदन' से उद्धृत ये पंक्ति उनके लेखन प्रयोजन की ओर इशारा करती हैं। पाठकों
की रस दशा की उपलब्धि कराना, उनका मनोरंजन करना ही उनका उद्देश्य है 'तारा वा
क्षात्र कुल कमलिनी' के निवेदन माँ वे लिखते हैं - "कतिपय सज्जनों ने 'तारा'
पर कुछ वक्र दृष्टि भी की थी, पर उस तीखी चितवन की हम कुछ भी चर्चा नहीं करते
और रसज्ञ एवं मर्मज्ञ पाठकों के सम्मुख 'तारा' का द्वितीय संस्करण उपस्थित
करते हैं। आशा है कि हमारे रसीले पाठक इस संस्करण का भी यथेष्ट आदर करेंगे।"
अपने पाठकों को देश के इतिहास से परिचित कराने का प्रयास भी वे करते हैं, मसलन
मल्लिका देवी वा बंग सरोजिनी (प्रथम भाग) के समय की घटना का अवलंबन करके यह
उपन्यास लिखा है। आशा है कि इसके पढ़ने से पाठक उस पुराने जमाने के आचार,
व्यवहार, राजनैतिक और सामाजिक तत्व तथा देश-दशा के परिचय को भी भली-भाँति पा
सकेंगे। स्कॅाट जेंस ने उपन्यास के प्रयोजनों में इसे मुख्य स्थान दिया है
'the novel has been made a vehicle for the teaching of history… (the making
of literature p. 363) इसका यह अर्थ नहीं है कि मात्र सूचना देना ही साहित्य
का उद्देश्य है। यदि कोई साहित्यिक रचना सूचनाएँ भी देती है, तो भी वह ज्ञान
के साहित्य से अलग है। किशोरीलाल गोस्वामी बार-बार रचनाओं में दिए ज्ञान या
यों कह लें ऐतिहासिक घटनाओं का ब्योरा देते हुए स्पष्टीकरण देते चलते हैं,
मसलन, सुल्ताना रज़िया बेगम की भूमिका में वे लिखते हैं-"इसलिए लिख दिया है कि
जिसमें इतिहास के सिलसिले में गड़बड़ न हो और पढ़ने वाले उपन्यासों के साथ ही साथ
कुछ-कुछ इतिहास का भी आनंद लें।" इससे स्पष्ट है कि वे उपन्यास का मुख्य
प्रयोजन पाठकों को आनंद देने के साथ ज्ञानप्रद साहित्य परोसना भी मानते हैं।
एक बात और महत्वपूर्ण है, वह यह कि किशोरीलाल गोस्वामी इस बात से पूर्णतः
परिचित थे कि हिंदी में ऐतिहासिक उपन्यासों का नितांत अभाव है। इस संदर्भ में
गोपालराय की टिप्पणी द्रष्टव्य है - "गोस्वामी जी को ऐतिहासिक रोमांस लिखने की
प्रेरणा कहाँ से मिली, यह ठीक-ठीक बता पाना कठिन है। ज्ञानचंद जैन के अनुसार
लगभग 1882 ई. में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने राधाकृष्ण दास से कहा था, "भारतवर्ष
में अब ऐसे नाटकों की आवश्यकता है जो आर्य संतानों को अपने पूर्व पुरुषों का
गौरव स्मरण करावें। ...कदर पिया की ठुमरी सुनते-सुनते आर्यों में क्लीवपन अब
चरम सीमा पर पहुँच गया अब आर्यों को इस बात की याद दिलानी चाहिए कि उनके पूर्व
पुरुष कैसे उदार, कैसे वीर, कैसे धीर, दृढ़ अध्यवसायी थे और उनकी वीर पत्नी
पतिव्रत धर्म और कुलमर्यादा की रक्षा हेतु अपने अमूल्य जीवन को कैसा तृण समान
त्याग देती थीं।' भारतेंदु के इस आह्वान पर हिंदी में अनेक नाटक लिखे गए पर
उपन्यास के क्षेत्र में इसकी पहल किशोरीलाल गोस्वामी ने हृदयहारिणी और लवंगलता
लिख कर की।" (हिंदी उपन्यास का इतिहास, पृ. 79)
किशोरीलाल गोस्वामी उपन्यास लिखकर एक ढंग से साहित्यिक अभावों की पूर्ति भी
करना चाहते थे 'सुल्ताना रज़िया बेगम वा रंगमहल में हलाहल' के उपोद्घात में वे
लिखते हैं - "जिससे हिंदी भाषा में जो इतिहास का बिल्कुल अभाव है, वह मिटे"
इसके साथ ही वे पाठकीय अभिरुचि को भी महत्व देते हैं इसलिए इतिहास को
औपन्यासिक कथ्य का ताना-बाना बुनकर परोसते हैं, मसलन 'लालकुवंर वा शाही रंगमहल
'ऐतिहासिक भूमिका' में वे लिखते हैं - " इस उपन्यास में हमने कहीं-कहीं पर
इतिहास के साथ विरोध किया है जैसे जहाँदारशाह को उस वक्त, जब वह दिल्ली के
तख्त पर बैठा था, लावल्द लिखा है; और ऐसी ही और भी कई बारीक-बारीक बातें हैं;
पर ऐसा हमने क्यों किया इसका सबब वे मर्मज्ञ पाठक जरुर समझ जाएँगे, जो उपन्यास
के जंजाल से वाकिफ हैं; उन्हें हम क्योंकर इस बारीकी की बात को समझावें!"
('लालकुवंर वा शाही रंगमहल 'ऐतिहासिक भूमिका' पृष्ठ 15-16) स्पष्ट है कि
गोस्वामी जी हिंदी के शुरुआती दौर के ऐतिहासिक उपन्यास लिखते हुए भी इस तथ्य
से अच्छी तरह परिचित थे कि इतिहास को उपन्यास की आधार-भूमि के तौर पर ही
प्रयुक्त किया जा सकता है, ऐतिहासिक तथ्यों को औपन्यासिकता का जामा पहनाने के
लिए रचनाकर कुछ अपेक्षित फेरबदल करता ही है, अक्सर अपनी कल्पना-प्रतिभा का
सहारा लेकर। गोस्वामी इसे ही 'उपन्यास का जंजाल' कहते हैं।
वे उपन्यास में रोचक कथानक के आवरण में ही इतिहास परोसने के पक्षधर हैं, साथ
ही वे ऐतिहासिक उपन्यासकार को कल्पना की भी छूट देते हैं, जिसके अभाव में
उपन्यास मात्र ऐतिहासिक तथ्यों का संकलन रह जाएगा। वे 'तारा वा क्षात्र कुल
कमलिनी' में इतिहास और ऐतिहासिक उपन्यास का अंतर स्पष्ट करते हुए कहते हैं -
"जैसे इतिहास की मूल भित्ति 'सत्य' है, वैसे ही उपन्यास की मूल भित्ति कल्पना
है। सत्य घटना बिना जैसे इतिहास इतिहास नहीं, वैसे ही 'योग्य कल्पना' बिना
उपन्यास भी उपन्यास नहीं कहला सकता। इतिहास में जैसे 'वास्तविक घटना' बिना काम
नहीं चलता, वैसे ही उपन्यास में भी कल्पना का आश्रय लिए बिना प्रबंध नहीं लिखा
जा सकता। ऐसी अवस्था में 'ऐतिहासिक' उपन्यास लिखने के लिए इतिहास के सत्यांश
के साथ तो कल्पना की थोड़ी आवश्यकता भी पड़ती है, पर जहाँ इतिहास की घटना जटिल,
सत्याभास मात्र और कपोल-कल्पित भासती है वहाँ लाचार हो इतिहास को बाधा कर
कल्पना ही अपना पूरा अधिकार फैला लेती है।" गोस्वामी जी ऐतिहासिक उपन्यास
लिखते हुए भी अनुभव करते हैं, कि ऐतिहासिक उपन्यास इतिहास को शुद्ध एवं अविकृत
रूप में प्रस्तुत करने का माध्यम भी हो सकते हैं। लेकिन इतिहास के कुछ लेखकों
ने इतिहास और ऐतिहासिक तथ्यों को कतिपय स्थानों पर विकृत कर दिया है। ऐसी
स्थिति में 'कल्पना' द्वारा ही विकृत इतिहास में से तथ्य एवं सत्य का शोध किया
जा सकता है। यहाँ गोस्वामी जी कल्पना को सामान्य कल्पना से अलगाते हुए लिखते
हैं - "इसलिए (मुसलमान इतिहासकारों पर विश्वास न होने के कारण) हमने अपने बनाए
उपन्यासों में ऐतिहासिक घटना को 'गौण' और कल्पना को 'मुख्य' रखा है और
कहीं-कहीं तो कल्पना के आगे इतिहास को दूर से ही नमस्कार कर दिया है। इसलिए
हमारे उपन्यास के प्रेमी पाठक हमारे अभिप्राय को भली-भाँति समझ लें कि यह
उपन्यास है, इतिहास नहीं। यहाँ कल्पना का राज्य है, यथेष्ट लिखित इतिहास का
नहीं और इसमें आर्यों के यथार्थ गौरव का गुण-कीर्तन है, कुछ मुसलमान इतिहास
लेखकों की भाँति स्वजातीय पक्षपात नहीं है।" (तारा वा क्षात्र कुल कमलिनी,
निवेदन पृष्ठ1-2) 'सुख शर्वरी' के निदर्शन में उन्होंने उपन्यास की संवेदना पर
अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा है - "इसमें (उपन्यास में) प्रेम की प्रबलता,
प्रणय की उन्मत्तता, चाह की मत्तता, यौवन का पूर्ण विकास, लालसा का प्रबल
प्रवाह, कामना का वेग, रस की तरंग, प्रीति की लहरी, सभी कुछ रहता है, इसलिए
कवियों ने साहित्य श्रेणी में उपन्यास को श्रेष्ठ गद्दी दी है।"
'प्रेमचंद पूर्व के हिंदी उपन्यास' में ज्ञानचंद जैन ने किशोरीलाल गोस्वामी की
इतिहास दृष्टि के संदर्भ में लिखा है - "उपन्यास लेखक को जहाँ इतिहास की घटना
जटिल, सत्याभास और कपोल-कल्पित भासती हो, वहाँ उसे इतिहास को ताक पर रखकर अपनी
कल्पना का पूरा साम्राज्य फैला लेने का अधिकार है। किशोरीलाल गोस्वामी के
ऐतिहासिक उपन्यासों में इतिहास नहीं, कल्पना का राज्य था। उन्होंने 'तारा' के
निवेदन में लिखा था - हमने अपने बनाए उपन्यासों में ऐतिहासिक घटना को गौण और
अपनी कल्पना को 'मुख्य' रखा है और कहीं-कहीं तो कल्पना के आगे इतिहास को दूर
से ही नमस्कार कर दिया है। उदाहरण के लिए उन्होंने अपने 'तारा' उपन्यास में एक
फुटनोट लगाकर सूचना दी थी - हमने कई ऐतिहासिक उपन्यासों में यह बात साबित की
है, कि किसी राजघराने की कोई भी लड़की मुसलमानों को नहीं दी गई। जो दी गईं वे
राजकन्याएँ न थीं वरन उन राजाओं की भुजिष्या लौंडियों की लड़कियाँ थीं (भाग-2
पृष्ठ 33) इस प्रकार उनके ऐतिहासिक उपन्यासों को 'ऐतिहासिक' कहना उचित न होगा,
उनमें इतिहास का आवरण बहुत झीना होता था, कल्पना का विस्तार ही अधिक होता था।
यहाँ यह स्वीकार करना होगा कि ऐतिहासिक उपन्यासों में कल्पना के मिश्रण की यह
प्रवृत्ति केवल किशोरीलाल गोस्वामी में नहीं, उस काल के अन्य ऐतिहासिक उपन्यास
लेखकों में भी मिलती है।"(पृष्ठ 182)
यहाँ यह प्रश्न उठता है कि किशोरीलाल गोस्वामी जब 'कल्पना' की भित्ति पर अपने
उपन्यासों का साम्राज्य खड़ा कर ही रहे थे तो उन्हें 'इतिहास' के आधार की
आवश्यकता क्यों पड़ी! यद्यपि गोस्वामी जी ने स्वयं कहीं भी इतिहास ज्ञान की
आवश्यकता को स्पष्ट रूप से विवेचित नहीं किया है, यह उनके ज्ञान की सीमा भी हो
सकती है लेकिन 'ऐतिहासिक' उपन्यास लिखने की ललक के पीछे निश्चित ही लेवी
स्ट्रास की अवधारणा काम कर रही होगी। लेवी स्ट्रास को न जानने के बावजूद
गोस्वामी जी यह जानते थे कि 'जो इतिहास को नजर अंदाज करते हैं, वे वर्तमान के
प्रति अनभिज्ञ रहने के लिए अभिशप्त से हो जाते हैं क्योंकि वर्तमान के विभिन्न
तत्वों को उनके विभिन्न संबंधों के संदर्भ में तौलना और उनका मूल्यांकन करना
केवल इतिहास के विकास क्रम से संबंध है। कोई भी समाज अपने इतिहास के माध्यम से
ही अपने बारे में जान पाता है-स्मृति और आत्मज्ञान से विहीन व्यक्ति और समाज
दिशाहारा हो जाते हैं। फ्रेडरिक हैरिसन ने कहा था कि हम एक ऐसी दौड़ की कल्पना
करें जिसमें हिस्सा लेने वाले मनुष्यों का मस्तिष्क दुर्भाग्यपूर्ण आघात के
कारण स्मृति खो बैठा हो और उनके लिए सारी दुनिया एकदम नई हो' उन्होंने पूछा
क्या हम 'ऐसी असहायता, अस्तव्यस्तता और दुर्दशा की स्थिति की कल्पना कर सकते
हैं? इतिहास मनुष्य के भौतिक, सांसारिक और पारिवारिक परिवेश को समझने के
संघर्ष का सहयात्री होता है। समाज को इतिहास की जरूरत होती है, इतिहासकार की
नहीं। इतिहासकार कई बार कल्पना का सहारा लेता है, वह अतीत का अध्ययन समाज के
लिए करता है, इस प्रक्रिया में वह कई चीजों को जोड़ता और घटाता है, इसके पीछे
उसके सामाजिक उद्देश्य होते हैं, जिनका विश्लेषण उसकी परिस्थितियों के संदर्भ
में करने पर ही उसकी उपयोगिता/अनुपयोगिता का पता लगता है। किशोरीलाल गोस्वामी
को जी इतिहास ज्ञान मिला था वह अँग्रेजी औपनिवेशिक दृष्टि से लिखा गया था।
ज्ञानचंद जैन का मानना है कि 'उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में देश में
नए शहरी मध्यवर्ग के उदय के साथ राष्ट्रीय नवजागरण की नई लहरें उठने तथा समाज
में नई चेतना जागृत होने पर ऐसे ऐतिहासिक उपन्यास बड़े लोकप्रिय हुए जिनमें
मुस्लिम शासनकाल अथवा ईस्ट इंडियन कंपनी के शासन-काल को कथा की पृष्ठ भूमि
बनाकर शासकों के अत्याचार, उनके द्वारा प्रजा का उत्पीड़न उनकी काम-लोलुपता,
हिंदू ललनाओं का अपूर्व शौर्य तथा उनके द्वारा अपने पतिव्रत और सतीत्व की
रक्षा के लिए हँसते-हँसते प्राणों की आहुति दे देना, मातृभूमि की स्वतंत्रता
तथा स्वजाति तथा स्वधर्म की रक्षा के लिए राजपूत योद्धाओं का अपूर्व
शौर्य-बलिदान इन सबका चित्रण किया जाता था।" (प्रेमचंद पूर्व के हिंदी
उपन्यास, पृष्ठ 182)
किशोरीलाल गोस्वामी पर बंगला के अनूदित उपन्यासों का बहुत प्रभाव था, उन्हें
परंपरा से या तो देवकीनंदन खत्री के चंद्रकांता की तर्ज पर लिखे तिलिस्मी,
ऐयारी उपन्यास मिल रहे थे या अँग्रेजी और बंगला के अनूदित उपन्यास। रेनॉल्ड्स
के 'लंदन रहस्य' की लोकप्रियता का प्रभाव भी गोस्वामी जी पर पड़ा था। वे अपने
पाठकों को मनोरंजन और संदेश दोनों देना चाहते थे। विजयदेवनारायण साही ने
'जायसी' पर शोध के अनंतर लिखा - "वस्तुतः मात्र मनोरंजक और मात्र संदेशवाहक
साहित्य अक्सर एक ही सिक्के के दो पहलू साबित हो जाते हैं। मनोरंजक साहित्य यह
देखने के लिए तैयार ही नहीं होता कि जिंदगी को अर्थ से आलोकित करने वाले तत्व
क्या हैं और कहाँ हैं?" किशोरीलाल गोस्वामी अपने उपन्यासों को अपनी रचनात्मक
सीमा के भीतर मात्र संदेशवाहक और मात्र मनोरंजक - दोनों होने से बचाते हैं -
बल्कि यों कहें कि दोनों का मिश्रण करते चलते हैं। यह मिश्रण कहाँ तक फलदायक
हो सका है यह विचारणीय है क्योंकि उनके समकालीन बालकृष्ण भट्ट ने 'हिंदी
प्रदीप' के जनवरी 1899 अंक में काशीप्रसाद जायसवाल का एक प्रबोधन लेख छापा था
जिसका शीर्षक था' हिंदी उपन्यास लेखकों को उलाहना' - इस लेख में किशोरीलाल
गोस्वामी का नाम बिना लिए कहा गया था - "दो-चार को छोड़कर प्रायः सभी बंगभाषा
के अनुवादित हैं, उनमें एक प्रायिक या सामान्य दोष है और उसी दोष के लिए हमारा
उलाहना है। वह महादोष यह है, मुसलमानों के चरित्र का ऐसा चित्र खींचना कि
जिस्से यह भाव होने लगे कि संसार की मनुष्य जाति भर में सबसे नीच, दुष्ट,
मायाचारी, विश्वासघातक ये ही होते हैं। सभी अवगुण और पापों के मुसलमान अवतार
हैं। पृथ्वीतल पर किसी विशेष जाति व संप्रदाय के जनमात्र दुष्ट या पापी नहीं
हो सकते। सभों में अच्छे और बुरे होते हैं। हिंदू-मुस्लमानों में मेल कराना तो
दूर रहा, इस प्रकार दिन-दिन दोनों में परस्पर घृणा और द्वेष बढ़ाया जा रहा है।"
ज्ञानचंद जैन ने काशीप्रसाद जायसवाल की इस टिप्पणी को किशोरीलाल गोस्वामी से
जोड़ कर देखा जबकि हिंदी उपन्यास का इतिहास लिखते समय गोपाल राय ने पर्याप्त
तर्कों से यह सिद्ध कर दिया कि यह लेख देवकीनंदन खत्री और बंगला से अनूदित
उपन्यासों की प्रवृत्ति पर चोट करता है, न कि गोस्वामी जी पर। गोपाल राय लिखते
हैं - "दरअसल किशोरीलाल गोस्वामी का उद्देश्य अपने ऐतिहासिक उपन्यासों में
हिंदू गौरव को प्रतिष्ठापित करना था। तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए इसे
अस्वाभाविक नहीं माना जा सकता। काशीप्रसाद जी ने जिस प्रबुद्ध इतिहास बोध का
परिचय दिया था, वह अपने समय से आगे की चीज थी। हिंदू समाज, मुस्लिम शासन से,
विशेषकर औरंगजेब और उसके बाद के मुगल शासन से ऊबा हुआ था। हिंदू समाज के
उच्चवर्ग को अँग्रेजी शासन से एक प्रकार की राहत महसूस हुई थी। अँग्रेजी
इतिहासकारों ने राजनीतिक कारणों से अंतिम मुगल शासकों तथा नवाबों के चरित्र और
प्रशासनिक क्षमता का जो चित्र खींचा था, वह हिंदुओं के मन में उनके प्रति
वितृष्णा पैदा करने वाला था। स्कूलों में जो इतिहास पढ़ाया जाता था उससे
मुसलमान शासकों के प्रति हिंदू छात्रों में विरोध और घृणा पैदा होती थी तथा
मुसलमान छात्रों में एक मिथ्या गर्व का भाव जगता था। अँग्रेजी इतिहासकारों ने
अनेक ऐसी पुस्तकें लिखी थीं, जो मुस्लिम शासकों की चरित्रहीनता, निरंकुशता और
असहिष्णुता की परिचायक थीं। गोस्वामी जी ने अपने उपन्यासों के लिए जो ऐतिहासिक
आधार प्राप्त किया था, वह ऐसी ही पुस्तकों से गृहीत था। उन्होंने अपने
उपन्यासों के लिए कर्नल टाड लिखित राजस्थान का इतिहास तथा फिच, सर टामस रो,
बर्नियर, मनूची आदि के यात्रा विवरणों से सामग्री ली थी और उनके आधार पर
कल्पना का महल खड़ा किया था। द्रष्टव्य तारा की भूमिका) इन विवरणों से मुस्लिम
बादशाहों और शहजादों-शहजादियों की विलासप्रियता, कपटाचरण तथा अंतःपुरीय
षड्यंत्रों का पता चलता है, जिनका अतिरंजित वर्णन गोस्वामी जी के ऐतिहासिक
रोमांस में मिलता है।" (हिंदी उपन्यास का इतिहास, गोपाल राय पृ. 81)
किशोरीलाल गोस्वामी ने दो प्रकार के ऐतिहासिक उपन्यास लिखे। पहली श्रेणी के
उपन्यासों में ऐतिहासिकता में कल्पना समन्वित कर उसे पाठकों के लिए कम बोझिल
बनाने का प्रयास किया गया है। दूसरी श्रेणी में वो उपन्यास आते हैं जिनमें
गोस्वामी जी ने सच ज्ञान और कल्पना शक्ति के आधार पर विकृत तथ्यों में संशोधन
द्वारा पाठकों को इतिहास का यथार्थ ज्ञान उपलब्ध करवाने का प्रयास किया है।
गोस्वामी जी ने घटना प्रधान उपन्यास ही लिखे। इन घटनाओं का संबंध अधिकतर
प्रेम, नैतिकता, सामाजिक एवं आर्थिक पतन से है। उपन्यासों के कथानक में अक्सर
उत्सुकता उत्पन्न करने का प्रयास किया करते थे-अतः चरित्र-चित्रण पर विशेष
ध्यान नहीं दे पाए। किशोरीलाल गोस्वामी ने ऐतिहासिक रोमांस उपन्यासों की रचना
की, उन पर रेनॉल्ड्स के उपन्यासों-जिनके अनुवाद सन 1890-1900 के बीच उर्दू और
बाद में हिंदी में उपलब्ध हुए-का प्रभाव देखा जा सकता है। उर्दू और हिंदी के
पाठकों को रहस्य, रोमांच, रति-व्यापार से भरे इन उपन्यासों ने बहुत प्रभावित
किया। सस्ती लोकप्रियता अर्जित किए हुए रेनॉल्ड्स के लंदन रहस्य, लॅायला,
फाउस्ट, राई हाउस प्लॅाट, लब्स ऑफ दि हरम, जोजेफ विल मट, मिस्त्रीज ऑफ द कोर्ट
ऑफ लंदन, उमर पाशा सरीखे उपन्यासों ने किशोरीलाल गोस्वामी को प्रेरणा दी होगी।
अंतर केवल इतना था कि गोस्वामी जी ने ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का सहारा लिया लेकिन
जैसाकि रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है - "गोस्वामी जी के ऐतिहासिक उपन्यासों से
भिन्न-भिन्न समयों की सामाजिक और राजनीतिक अवस्था का अध्ययन और संस्कृति के
स्वरूप का अनुसंधान नहीं सूचित होता।" (हिंदी साहित्य का इतिहास पृ. 274)
गोस्वामी जी की ऐतिहासिक दृष्टि पूर्वग्रहग्रस्त थी, साथ ही कल्पना के मनमाने
मिश्रण के कारण उन्होंने ऐतिहासिक दृष्टि सुचिंतित और सुविचारित न होने के
पीछे उस समय की प्रचलित हिंदू भावना थी तथा अँग्रेज इतिहासकारों द्वारा
हिंदू-मुसलमानों में परस्पर फूट और वैमनस्य पैदा करने के लिए उनकी अपनी दृष्टि
से लिखा भारतीय इतिहास था। दूसरी और महत्वपूर्ण बात यह थी कि भले ही ऐतिहासिक
उपन्यास लेखन में प्रवृत्त हुए हों, लेकिन इतिहास के गंभीर अध्येता वे थे
नहीं। ब्रजरत्नदास ने ठीक ही लिखा है - "ऐतिहासिक उपन्यासों के लिखने में कोरा
इतिहास-ज्ञान ही अपेक्षित नहीं है। इतिहास केवल सुश्रृंखलित रूप में घटना
क्रम, वंश परंपरा आदि का विवरण उपस्थित करता है और उपन्यास में केवल इतने से
काम नहीं चलता। उपन्यास के पात्र सजीव, चलते-फिरते, दुख-सुख उठाते हुए चित्रित
करने पड़ते हैं, जिससे उनके समय के खान-पान, वस्त्र, सवारी आदि का उनकी सामजिक
स्थिति के अनुकूल ज्ञान रखना बहुत आवश्यक हो जाता है। इन सबके लिए तत्कालीन
उनके ग्रंथों का अध्ययन विशेष परिश्रम-साध्य है और इसका गोस्वामी जी में
नितांत अभाव है। यही कारण है कि इनके ऐतिहासिक उपन्यास असफल रहे। कह सकते हैं
कि इनमें नाम मात्र इतिहास से लिए गए हैं पर वे ऐतिहासिक नहीं हैं।" (हिंदी
उपन्यास साहित्य पृ. 158)
किशोरीलाल गोस्वामी के प्रमुख उपन्यासों की सूची इस प्रकार है - प्रणयिनी
परिणय (1890) त्रिवेणी वा सौभाग्यवती (1890) हृदय हारिणी वा आदर्श रमणी (1890)
लवंगलता वा आदर्श बाला (1890) लीलावती वा आदर्श सती (1901) तारा वा
क्षात्र-कुल-कमलिनी (1902) राजकुमारी (1902) चपला वा नव्य समाज चित्र (1903)
कनक कुसुम वा मस्तानी (1904) सुल्ताना रज़िया बेगम वा रंगमहल में हलाहल (1904)
मल्लिकादेवी वा बंग सरोजिनी (1905) ही राबाई वा बेहयाई का बोरका (1905) जिंदे
की लाश (1906) पुनर्जन्म वा सौतियाडाह (1907) सोना और सुगंध वा पन्नाबाई
(1911) गुलबहार वा आदर्श भ्रातृ-स्नेह (1916) लखनऊ की कब्र वा शाही महलसरा
(1917) अँगूठी का नगीना (1918) इन उपन्यासों में प्रमुख ऐतिहासिक उपन्यास
'सुल्ताना रज़िया बेगम', तारा वा क्षात्र-कुल-कमलिनी, कनक कुसुम वा मस्तानी,
मल्लिकादेवी वा बंग सरोजिनी, हृदय हारिणी, लवंगलता, गुलबहार, लखनऊ की कब्र वा
शाही महलसरा हैं। गोपाल राय ने उनके ऐतिहासिक उपन्यासों पर टिप्पणी करते हुए
लिखा है - "इस काल का प्रबुद्ध हिंदू मानस देशभक्ति और राजभक्ति के द्वंद्व से
ग्रस्त था। शताब्दियों तक मुस्लिम शासन का दंश झेलने के बाद हिंदुओं ने
मुसलमानों को अँग्रेजों के सामने घुटने टेकते देख एक प्रकार के नकारात्मक सुख
का अनुभव किया था। यद्यपि सन अट्ठारह सौ सत्तावन के स्वाधीनता संग्राम में
हिंदू-मुसलमान अँग्रेजों के विरुद्ध साथ-साथ लड़े थे, पर मुसलमानों से हिंदुओं
का एक बड़ा वर्ग असंतुष्ट था और अँग्रेजों ने इसका राजनीतिक लाभ उठाकर दोनों
कौमों में बहुत अधिक फूट डाल दी थी। यही कारण है कि भारतेंदुकालीन लेखकों ने
सामान्यतः अँग्रेजी शासन का अभिनंदन ही किया है, यदि उन्होंने अँग्रेजी शासन
की आलोचना की है तो उसकी आर्थिक नीतियों तथा अँग्रेज और मुसलमान नागरिकों के
प्रति पक्षपातपूर्ण व्यवहार के कारण। गोस्वामी जी के ऐतिहासिक उपन्यासों में
इसी राष्ट्रीय चेतना की झलक मिलती है। इन उपन्यासों में मुस्लिम शासन की तुलना
में ब्रिटिश शासन को बेहतर बताया है ...बीसवीं शताब्दी के आरंभ में भारत का
बहुलांश वर्ग उच्च वर्ग अँग्रेजी शासन के प्रति यही भाव रखता था। गोस्वामी जी
इस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, पर वे यत्र-तत्र अँग्रेजी शासन की आलोचना
भी करते हैं जो तत्कालीन विभाजित निष्ठा का परिचायक है। 'लवंगलता' तथा
'रज़ियाबेगम' में उन्होंने सेठ अमीचंद के प्रति अँग्रेजों की कृतघ्नता तथा
अँग्रेजी शासन के न्याय विभाग की आलोचना की है।" (हिंदी उपन्यास का इतिहास,
पृष्ठ 87)
गोस्वामी जी के ऐतिहासिक उपन्यासों को आज के संदर्भ में देखने पर उनकी दृष्टि
एकांगी और पूर्वाग्रह ग्रस्त दीख पड़ती है। इसके पीछे इतिहास की सीमित जानकारी
तथा अँग्रेजी इतिहासकारों द्वारा तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किए गए इतिहास को स्रोत
रूप में ग्रहण करना मुख्य है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किशोरीलाल गोस्वामी
का उपन्यास लेखन हिंदी के अति आरंभिक उपन्यासों के भंडार को समृद्ध करने के
उद्देश्य से किया गया है। रेनॉल्ड्स के उपन्यासों का रहस्य-रोमांच, प्रेम
व्यापार इत्यादि का वर्णन पाठकों को लुभा रहा था। किशोरीलाल गोस्वामी को भी उस
ढंग के उपन्यासों ने लुभाया था, साथ ही वे हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों
देवरानी-जेठानी कहानी, वामा-शिक्षक, भाग्यवती, परीक्षागुरु से भी अवश्य परिचित
होंगे। जिनमें से प्रथम तीन तो स्त्री-आचरण संहिताएँ ही कही जानी चाहिए,
जिनमें उपदेशात्मकता को परोसने के लिए कथा का मोटा ताना-बाना बुना गया है। इन
पुस्तकों की रचना-प्रेरणा के पीछे सरकारी पुरस्कार थे। "सन 1868 ई. में
तत्कालीन पश्चिमोत्तर प्रदेश और अवध की सरकार ने विद्यालयों के लिए शिक्षा
उपयोगी पुस्तकों के लेखन अथवा संस्कृत, अँग्रेजी आदि भाषाओं से अनुवाद हेतु एक
सौ रुपये से लेकर पाँच सौ रुपये तक के पुरस्कार की घोषणा की थी। इससे प्रेरित
होकर हिंदी तथा उर्दू में नीति शिक्षापरक अनेक कहानी पुस्तकों की रचना हुई। सन
1869 में डेपुटी नजीर अहमद ने 'मिरातुल उरुस' शीर्षक उर्दू पुस्तक रची, जिसकी
भूमिका में उन्होंने लिखा - "गरज ये कि कुल खानदारी की दुरुस्ती अकल पर है और
अकल की दुरुस्ती इल्म पर मौकूफ है' इस पुस्तक को मुस्लिम लड़कियों को शिक्षित
करने के उद्देश्य से लिखा गया, जिस पर सरकार की ओर से एक हजार रुपये का
पुरस्कार भी उन्हें प्राप्त हुआ। मुंशी ईश्वरी प्रसाद और मुंशी कल्याण राय ने
224 पृष्ठों का (लीथो मुद्रण) 'वामा शिक्षक' उपन्यास 'मिरातुल उरुस' की
प्रेरणा से लिखा ...हिंदी उपन्यास कोश खंड एक में डॅा. गोपाल राय ने हिंदी
गद्य साहित्य के इतिहास में 1870 का वर्ष अत्यंत महत्वपूर्ण मानते हुए 'मौलिक
कथा साहित्य' शीर्षक के अंतर्गत 'देवरानी-जेठानी की कहानी' को पहली मौलिक गद्य
कथा मानते हुए लिखा - "देवरानी-जेठानी की कहानी की रचना उपन्यास के रूप में
नहीं, बल्कि बालिकाओं के लिए उपयोगी पाठ्य पुस्तक के रूप में हुई थी। अब तक
हिंदी क्षेत्र का मध्यवर्गीय पाठक इतना सक्षम नहीं हो पाया था, न ही हिंदी का
लेखक इतना सक्षम और सजग था कि अँग्रेजी और बंगला से प्रेरणा ग्रहण कर उपन्यास
की रचना करता सरकारी सहायता से' देवरानी-जेठानी की कहानी' का लेखन और मुद्रण
हुआ। बाद में इसी तरह की दो और पुस्तकें 'वामा शिक्षक' (1872) और भाग्यवती
(1877) लिखी गई। इनका मकसद था स्त्री शिक्षा का विकास और आदर्श स्त्री-चरित्र
की प्रस्तुति (वामा शिक्षक, भूमिका, सं.गरिमा श्रीवास्तव) इसी तरह परीक्षागुरु
(1882) एक 'नई चाल की पुस्तक' के रूप में सामने आई जिसके बारे में लाला
श्रीनिवासदास ने लिखा-"अब तक नागरी और उर्दू भाषा में अनेक तरह की अच्छी-अच्छी
पुस्तकें तैयार हो गई हैं, परंतु इस रीति से कोई नहीं लिखी गई है, इसलिए अपनी
भाषा में यह नई चाल की पुस्तक होगी।' आगे उन्होंने इस 'नई चाल' की व्याख्या
करते हुए लिखा "अपनी भाषा में अब तक जो वार्तारूपी पुस्तकें लिखी गई हैं,
उनमें अक्सर नायक-नायिका वगैरह का हल ठेठ से सिलसिलेवार लिखा गया है जैसे
राजा, बादशाह, सेठ-साहूकार का लड़का था ...उसके मन में इस बात से रुचि हुई और
उसका यह परिणाम निकला ...ऐसा सिलसिला इसमें कुछ भी नहीं है" (परीक्षागुरु,
पृष्ठ-8)
बदली परिस्थितियों में जीवन को परिचालित करने वाली समस्याओं से मुँह मोड़कर
नहीं चला जा सकता था। परंपरागत कथा को छोड़कर यथार्थवादी वस्तु को ग्रहण करना
लेखक के लिए जरूरी हो गया था। बुर्जुआ सभ्यता, पूँजीवाद और मध्यवर्ग के उदय के
परिणाम स्वरूप परंपरागत समाज में विघटन हो रहा था, ऐसी दशा में समाज के यथार्थ
चित्रण की आवश्यकता थी, जिनके पात्र अपनी दुर्बलताओं-सबलताओं समेत मानव का
प्रतिनिधित्व कर सकें। इन नए विचारों ने 'परीक्षागुरु' के लिए विषयवस्तु का
निर्माण किया। इसी के ठीक बाद गोपालराम गहमरी और देवकीनंदन खत्री
ऐयारी-तिलिस्मी, अपराध प्रधान जासूसी कथाओं से लोकप्रियता अर्जित कर रहे थे।
1887 ई. में देवकीनंदन खत्री ने चंद्रकांता का पहला भाग लिखा था, प्रकाशित
होते ही 'चंद्रकांता' की धूम मच गई। चंद्रकांता संतति के चौबीस भाग 1894 से
'उपन्यास लहरी' नामक पत्रिका में प्रकाशित होने लगे थे, गोपालराय ने लिखा है
कि 'चंद्रकांता का प्रकाशन हिंदी उपन्यास के इतिहास में एक ऐसी घटना है जिसने
उपन्यास के स्वरूप में अभूतपूर्व परिवर्तन ला दिया। मानो एक पहाड़ी नदी मैदान
में उतर आई हो।' (हिंदी उपन्यास का इतिहास, पृष्ठ 69) किशोरीलाल गोस्वामी की
रुचि उपदेशपरक उपन्यासों/आख्यानों की ओर न होकर देवकीनंदन खत्री और गोपालराय
गहमरी की ओर हुई, लेकिन वे दस-पंद्रह उपन्यास लिख कर भी पाठकों के अभाव की
समस्या से जूझ रहे थे, क्योंकि 1892 तक हिंदी उपन्यास के पाठकों की संख्या
लगभग नगण्य थी। 'सुख-शर्वरी' की भूमिका में 1892 में गोस्वामी जी ने सूचित
किया था कि उन्होंने अब तक 'दस-पंद्रह उपन्यास लिख रखे हैं, पर उन्हें छापने
वाला कोई नहीं है। दरअसल यह वो समय था, जब हिंदी में उपन्यास के पाठकों की
संख्या बहुत सीमित थी क्योंकि हिंदी के अभी तक उच्च शिक्षा के माध्यम विषय
बनने में अभी देर थी। उर्दू और फारसी का ज्ञान नौकरी दिलाने में मददगार था और
इनसे ऊपर की स्थिति अँग्रेजी की थी, जो अच्छी सरकारी नौकरी का प्रवेशद्वार थी।
उर्दू, फारसी पढ़े लोग अक्सर नागरी भी जानते थे, अधिकांश हिंदू घरों में नागरी
में लिखी धार्मिक पोथियाँ होती थीं। 1870 के आसपास से नागरी आंदोलन जारी था,
आम आदमी जो प्राथमिक शिक्षा प्राप्त था, नागरी लिपि जानता था। दिन भर मेहनत
करने के बाद उसे उपदेशपूर्ण साहित्य से अधिक रुचिकर रोमांस, तिलिस्मी, ऐयारी,
मनोरंजक साहित्य लगेगा-इस ओर सबसे पहले देवकीनंदन खत्री का ध्यान गया था।
हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों को विशाल पाठक वर्ग नहीं मिल पाया था, लेकिन
देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों को पढ़ने के लिए लाखों लोगों ने हिंदी सीखी। उनके
उपन्यासों की भाषा बोलचाल की उर्दू सहित, संस्कृत के क्लिष्ट शब्दों से रहित
थी। इसलिए उनके उपन्यास बड़ी संख्या में साधारण या साक्षर-मात्र पाठकों को
आकृष्ट कर पाए। उन्होंने चंद्रकांता संतति (भाग 24, आठवाँ बयान) में लिखा था -
"जिस समय मैंने चंद्रकांता लिखनी आरंभ की थी उस समय कविवर प्रतापनारायण मिश्र
और पंडित प्रवर अंबिकादत्त व्यास जैसे धुरंधर सुकवि और सुलेखक विद्यमान थे।
...उस समय हिंदी के लेखक थे परंतु ग्राहक न थे, इस समय ग्राहक हैं पर वैसे
लेखक नहीं हैं। मेरे बहुत से मित्र हिंदुओं की अकृतज्ञता का यों वर्णन करते
हैं कि उन्होंने हरिश्चंद्र जी जैसे देशहितैषी पुरुष की उत्तम-उत्तम पुस्तकें
नहीं खरीदीं। पर मैं कहता हूँ कि यदि बाबू हरिश्चंद्र अपनी भाषा को थोड़ा सरल
करते तो हमारे भाइयों को अपने समाज पर कलंक लगाने की आवश्यकता न पड़ती और
स्वाभाविक शब्दों के मेल से हिंदी की पैसिंजर भी मेल बन जाती ...मेरी हिंदी
किस श्रेणी की हिंदी है, इसका निर्धारण मैं नहीं करता, परंतु मैं यह जानता हूँ
कि इसके पढ़ने के लिए कोश की तलाश नहीं करनी पड़ती।
चंद्रकांता के आरंभ के समय मुझे यह विश्वास न था कि उसका इतना अधिक प्रचार
होगा, यह मनोविनोद के लिए लिखी गई थी पर पीछे लोगों का अनुराग देखकर मेरा भी
अनुराग हो गया और मैंने इन विचारों को, जिनको मैं अभी तक प्रकाश नहीं कर पाया
था फैलाने के लिए इस पुस्तक को द्वार बनाया और सरल भाषा में इन्हीं मामूली
बातों को लिखा जिसमें मैं उस होनहार मंडली का प्रिय पात्र बन जाऊँ। ...मुझे इस
बात से बड़ा हर्ष है कि मैं इस विषय में सफल हुआ और मुझे ग्राहकों की अच्छी
श्रेणी मिल गई। यह बात बहुत से सज्जनों पर प्रकट है कि चंद्रकांता पढ़ने के लिए
बहुत पुरुष नागरी की वर्णमाला सीखते हैं और जिनको कभी हिंदी सीखना न था उस
लोगों ने भी इसके लिए हिंदी सीखी।"
खत्री जी और गोपालराम गहमरी के तिलिस्मी, ऐयारी, जासूसी उपन्यासों की
लोकप्रियता किशोरीलाल गोस्वामी से छिपी न थी। अपनी निजी प्रकृति से पाठकों का
रुझान मिलाकर उन्होंने पाठकों के लिए जासूसी किस्म के, रोमानी और ऐतिहासिक
मिलाकर कुल 65 उपन्यास लिखे।
किशोरीलाल गोस्वामी का भाषा पर अच्छा अधिकार था। ज्ञानचंद जैन ने लिखा है कि
किशोरीलाल गोस्वामी ने हिंदी उपन्यास को साहित्य की सबसे लोक प्रिय विधा बना
देने में महत्वपूर्ण योगदान किया। उन्होंने प्रेमचंद के उपन्यासों के लिए पाठक
उत्पन्न किए। उन्हीं का पाठक समुदाय प्रेमचंद के उपन्यासों का पाठक समुदाय
बना। उनके उपन्यासों में राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद तथा भारतेंदु हरिश्चंद्र
दोंनों की गद्य शैलियों के उम्दा नमूने मिलते हैं। तारा, रज़िया बेगम, लखनऊ की
कब्र आदि में पहली शैली का ललित गद्य मिलता है तो माधवी-माधव तथा अँगूठी का
नगीना में दूसरी शैली का। यही दूसरी ललित गद्य शैली उनके उपन्यासों की मुख्य
गद्य शैली थी। उसमें मुख्य रूप से प्रतिदिन की बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया
गया है। मधुरेश ने किशोरीलाल गोस्वामी के महत्व का आकलन करते हुए लिखा है कि
"उन्होंने मराठी, बांग्ला सहित अन्य भारतीय भाषाओं में ऐतिहासिक उपन्यास में
किस्सागोई के तत्वों को मिलाकर उन्होंने एक पठनीय और रोचक शैली का विकास किया।
जब तब उर्दू-हिंदी की दो समानांतर पटरियों पर चलने वाले यात्रियों की अबूझ और
हास्यास्पद भाषा के बावजूद उन्होंने उपन्यास में पात्रानुकूल भाषा का आदर्श
प्रस्तुत किया।"
किशोरीलाल गोस्वामी ने उपन्यास विधा को पर्याप्त समृद्ध किया साथ ही उपन्यास
मासिक पुस्तक नामक मासिक पत्र का प्रकाशन भी किया, जिसमें उपन्यास दर उपन्यास
छपते थे। उपन्यासों को सर्व साधारण तक पहुँचाकर महत्वपूर्ण कार्य इस पत्रिका
ने किया, क्योंकि चालीस पृष्ठों के इस पत्र का वार्षिक मूल्य मात्र दो रुपये
रखा गया था। किशोरीलाल गोस्वामी ने अपने प्रेस से बत्तीस स्वरचित उपन्यास
प्रकाशित किए। बत्तीस उपन्यासों के सेट का मूल्य मात्र छब्बीस रुपये तीन आना
रखा। संभवतः 1909 में कुछ कानूनी झमेलों के कारण उन्होंने काशी छोड़कर वृंदावन
में बसने का निर्णय लिया। वे वृंदावन के केशोघाट स्थित अटलबिहारी जी के मंदिर
के स्वत्वाधिकारी थे। स्वकीय प्रेस, वृंदावन से 1913 में उन्होंने अपने
उपन्यासों को दुबारा प्रकाशित किया। ज्ञानचंद जैन ने किशोरीलाल गोस्वामी जी के
बारे सही ही लिखा है - "यदि भारतेंदु ने हिंदी साहित्य वाटिका में उपन्यास की
नई क्यारी लगाई, राधाकृष्ण दास तथा श्रीनिवास दास ने हिंदी में उपन्यास रचना
के प्रथम नमूने पेश किए। बालकृष्ण भट्ट ने 'हिंदी प्रदीप' और फाइलों में बंद
पड़े अपने अधूरे और दो प्रकाशित उपन्यासों में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय जैसी
औपन्यासिक प्रतिभा का परिचय दिया, देवकीनंदन खत्री ने हिंदी उपन्यास को बिकाऊ
पुस्तक बनाया तो किशोरीलाल गोस्वामी को इस बात का श्रेय दिया जाएगा कि
उन्होंने हिंदी में उपन्यास रसिक पाठकों का एक समुदाय तैयार करने में
देवकीनंदन खत्री के साथ-साथ सबसे अधिक योगदान किया। उन्होंने रिकार्ड तोड़
संख्या में पाठकों की रुचि के अनुकूल सभी प्रकार के उपन्यासों की रचना करके
हिंदी उपन्यास को साहित्य की सबसे लोकप्रिय विधा बना देने में महत्वपूर्ण
योगदान दिया। हिंदी में ऐतिहासिक उपन्यास लेखन की परंपरा का प्रारंभ पंडित
किशोरीलाल गोस्वामी से माना जाता है। यदि हम हिंदी के ऐतिहासिक उपन्यासों को
अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से तीन भागों में विभक्त करें - प्रथम उत्थान काल
- 1890-1916, द्वितीय उत्थान काल - 1917-1929 और तृतीय उत्थान काल 1930 से आज
तक, तो प्रथम उत्थान काल में पं. किशोरीलाल गोस्वामी जी ही अपनी रचनात्मकता से
पूरे औपन्यासिक परिदृश्य को घेरे हुए मिलते हैं। वे इतिहास के पात्रों के नाम
ग्रहण करते हैं, कल्पना का संसार बुनते हैं - क्योंकि उनका मूल उद्देश्य है -
पाठकों का मनोरंजन करना। अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वे ऐयारी, तिलिस्म
और प्रणय कथा को साधन बनाकर घटना प्रधान उपन्यासों की रचना करते हैं। उनके
प्रभाव से कई रचनाकारों ने इस क्षेत्र में अपना उल्लेखनीय योगदान दिया। प्रथम
उत्थान के अंतर्गत ही बाबू गंगाप्रसाद गुप्त जी ने नूरजहाँ (1902), वीर पत्नी
(1903), कुँवरसिंह सेनापति (1903), पूना में हलचल (1903), हम्मीर (1904), वीर
जयपाल या कृष्ण कांता (1904) जैसे ऐतिहासिक उपन्यास लिखे, जिनमें पात्रों के
चरित्र विश्लेषण पर अत्यधिक ध्यान दिया गया बाबू जयरामदास गुप्त ने रंग में
भंग (1907) काश्मीर पतन (1907) मायारानी (1908) कलावती चाँद बीबी (1909)
प्रभात कुमारी (1909) रोशन आरा या चाँदनी और अँधेरा, नवाबी परिस्तान (1909)
शूर शिरोमणि, फूल कुमारी, चंपा किशोरी जैसे तिलिस्मी-ऐयारी प्रणय कथाओं की
रचना की। इनकी शैली पर गोस्वामी जी की शैली का काफी प्रभाव था। किशोरीलाल
गोस्वामी की तर्ज पर केदारनाथ शर्मा (तारामती 1901) बल्देव प्रसाद मिश्र
(पृथ्वीराज एवं पानीपत 1902) (ब्रज बिहारी सिंह कोटा रानी 1902) विट्ठल नागर
(पद्मा कुमारी 1903) मिट्ठूलाल मिश्र रणधीर सिंह (1904 ) गिरिजानंदन तिवारी
(पद्मिनी 1905) लालजी सिंह (वीर बाला 1905) झाबर मल दारुका (कुमारी 1907) जंग
बहादुर (राजेंद्र कुमार 1907) चतुर्भुज सहाय (कुमारी चंद्र किरण 1908) शाली
ग्राम गुप्त (आदर्श रमणी 1911) कृष्ण देव प्रसाद अखौरी (वीर चूड़ामणि (1915)
मुरारीलाल पंडित (विचित्र वीर 1915) जैनेंद्र किशोर (गुलेनार 1907) जयराम मल
(ताजमहल 1907) आदि ने ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना की।