मैं आपको यह बात पहले ही बता दूँ कि मैं चोर नहीं हूँ। यानी असली चोर नहीं
हूँ। जिस चोरी की बात मैं आपको बताना चाहता हूँ, वह समझिए मेरी एक मजबूरी थी।
ऐसी भी कोई बात नहीं है कि पहले मैंने छोटी-मोटी चोरियाँ न कि हों, लेकिन यकीन
मानिए कि जब भी की किसी मजबूरी के तहत ही की। इतने भर से आप समझ गए होंगे कि
मैं पेशेवर चोर कतई नहीं हूँ।
हाँ, यह बात जरूर मानता हूँ कि उस रात मैं असली और थोड़ी बड़ी चोरी की नीयत से
ही, उस घर में घुसा था। सिर्फ यह ध्यान जरूर रखा कि वह घर मोहल्ले में, कुछ
अलग-थलग हो ताकि चोरी करने में सुविधा हो। हाँ आप चाहें तो कह सकते हैं कि
चोरी से ठीक पहले मैंने थोड़ी रेकी कर ली थी कि अगर हाथा-पाई की नौबत आ ही जाए,
तो अड़ोस-पड़ोस को जल्दी पता न चले और जब तक पता चले, मैं वहाँ से रफूचक्कर हो
जाऊँ।
अब बताता हूँ कि इसकी शुरुआत कैसे हुई। जाहिर है कि रात का वक्त था। मेरे
ख्याल से, आधी रात के बाद का ही। मुझे उस घर में घुसने में कोई दिक्कत नहीं
हुई। दीवार फाँद कर आँगन में उतरा और थोड़ा आगे बढ़कर देखा कि भीतर जाने का
दरवाजा खुला है। जैसे मेरे लिए ही खुला हुआ हो। अंदर जाकर देखा कि दो कमरे
हैं। एक कमरे में एक बुढ़िया थी। न जागने में, न सोने में। कुछ होश में, कुछ
बेहोशी में। कुछ कराहती, कुछ खँखारती।
लगा कि शायद बीमार है। इस बीच उस पूरे और छोटे घर का एक चक्कर भी सावधानी से
लगा लिया। घर में दो ही कमरे थे और उनमें रहने वाला जीव एक, यानी बुढ़िया, शायद
बीमार। चलो, इससे बढ़िया मौका और नहीं मिलेगा।
जल्दी अपना काम निपटाओ भाग लो, मैंने खुद को समझाया। इसके पहले कि मैं अपना
काम समेटूँ, मुझे लगा कि शायद बुढ़िया उठने कि कोशिश कर रही है। मैं चुपचाप
उसके बिस्तर से कुछ दूर खड़ा हो गया। मैंने देखा कि वह बिस्तर से बाहर निकलकर,
अँधेरे में टटोलती-लड़खड़ाती शायद बाथरूम की तरफ जा रही है। कुछ आगे बढ़कर वह
दरवाजे से टकराकर गिर पड़ी। तब अचानक शायद मैं भूल गया कि वहाँ चोरी करने आया
हूँ। लपककर उसे उठाया और खड़ा किया। वह ठीक से खड़ी तक नहीं हो पा रही थी। उसे
सहारा दिया। जब वह बाथरूम से बाहर आई, सीढ़ी पर फिर लुढ़कने को हुई। मैंने उसे
थाम लिया। मैं तो बस यही चाहता था कि उसे अपने बिस्तर पर पटककर, अपना काम तमाम
करूँ और वहाँ से फूट लूँ। इसीलिए उसे सहारा देकर फिर से लिटा दिया। उसने न तो
मुझे पहचाना और न ही चीख-पुकार मचाई। वह शायद अपने पूरे होश-हवास में थी भी
नहीं। वह तो बस लगातार कराह रही थी।
इसके बाद मेरी चोरी का मामला कुछ आगे बढ़ा। इस बीच एक बड़ी सी चादर में मैंने
काफी कुछ समेट लिया। अच्छा-बुरा, जरूरत-गैर जरूरत सब। दूसरे कमरे से चादर
समेटने को ही था कि, बुढ़िया के कराहने के साथ किसी को पुकारने का स्वर भी
सुनाई पड़ा। मैं वहाँ पहुँचा। वह पानी के लिए पुकार रही थी। जब कि वहाँ मेरे
अलावा और कोई था नहीं। मुझे लगा कि इतनी सुविधा से चोरी का मौका मिल गया, तो
एक गिलास पानी पिला देने में, क्या हर्ज है। गोया मैंने बिस्तर के पास ही पानी
ढूँढ़कर गिलास उसकी ओर बढ़ाया। वह बिस्तर में ही काँपती सी उठ बैठी और गिलास बड़ी
मुश्किल से थामने की कोशिश की, पर उसके हाथ से गिलास छूट रहा था और बिस्तर पर
पानी गिरने लगा था। मैंने फिर अपने हाथ से उसे पानी पिला दिया, यह सोचकर कि
वहाँ से जाते-जाते किसी प्यासे को पानी पिला देने में कोई हर्ज नहीं है, पर
इधर उसने पानी पिया और उधर एकाएक उसका शरीर बिस्तर से लुढ़ककर सीधे नीचे जमीन
पर आ गया। जाहिर था कि वह बेहोश हो गई है। मैं एकदम से परेशान हो गया। एक नई
मुसीबत। इसे कैसे पार लगाऊँ। पहली और जोरदार इच्छा हुई कि तुरंत वहाँ से भाग
निकलूँ, बुढ़िया को अपने हाल पर छोड़कर। फिर लगता कि कुछ तो इसके लिए करके जाना
चाहिए, नहीं तो मर जाएगी। सच कहूँ तो मैं हाँ और न के बीच कुछ देर तक झूलता
रहा, फिर अचानक ही तय किया कि ऐसे छोड़कर जाना ठीक नहीं होगा। कहीं इस बीच
मर-मरा गई तो खुद को भी लेने के देने पड़ सकते हैं। थोड़ा खुदा से भी तो डरना
चाहिए। कल को अपना भी कुछ यही हाल हो तो। सच कहूँ तो मैं कुछ खुद से घबरा गया
था और कुछ खुदा से भी डर गया था। इसलिए सोचने लगा कि इस मरीज बुढ़िया के हित
में क्या किया जा सकता है।
उसकी बिगड़ती हालत देखते हुए मुझे एक ही बात सूझ रही थी कि उसे किसी तरह
अस्पताल पहुँचा देना चाहिए, लेकिन समस्या थी कैसे। बेहतर यही होगा कि किसी तरह
इस बीमार बुढ़िया को अस्पताल में पटककर, वहाँ से उड़नछू हो जाऊँ। अब बात रही कि
अस्पताल तक कैसे ले जाऊँ। एक ही उपाय समझ में आ रहा था कि चौराहे तक जाकर, कोई
आटो ले आऊँ और इस मुसीबत से निजात पाऊँ। इतना सूझना था कि मैं सरपट दौड़ा।
चौराहे पर एकमात्र आटो वाला ऊँघ रहा था। उसे झकझोरकर उठाया...
'भैया... उठो... ओ भैयाजी...'
'क्या बात है' ...उसने आधी नींद में पूछा।
'एक मरीज को अस्पताल ले जाना है।'
'कौन मरीज...'
'एक बुढ़िया है... बहुत बीमार है।'
'हमको माफ करो...सोने दो।'
'भैया उसे अस्पताल तुरंत नहीं ले जाएँगे तो मर जाएगी।'
'कितने पैसे दोगे।'
'जो कहोगे मिल जाएँगे... पहले चलो तो...'
'सौ रुपए लगेंगे।'
'सौ रुपए... ये तो बहुत... खैर चलो... दूँगा।'
वह बेमन से उठा। अपनी देह झाड़ी। आटो स्टार्ट किया। लगभग उछलकर मैं उसमें सवार
हो गया और उसे रास्ता बताने लगा। आटो लेकर मोहल्ले में आया और आटोवाले की मदद
से बुढ़िया को आटो में अनाहट लादकर आनन-फानन अस्पताल पहुँचा। बुढ़िया को हमने
अस्पताल के बरामदे में लिटा दिया। वहाँ और भी कई मरीज कुछ हाल, कुछ बेहाल पड़े
थे। मैने आटोवाले को कुछ दे-दिलाकर, समझा-बुझाकर विदा करना चाहा। मेरे पास कुल
जमा पचास रुपए ही थे, जिनसे न जाने कितने दिनों का गुजारा मुझे करना था, लेकिन
वह अड़ गया...
'पहले ही बोला था। सौ से कम नहीं। पचास और निकालो।'
'भैया इस वक्त मेरे पास इतने ही हैं। जल्दी में पैसे घर में छूट गए। बाद में
दे दूँगा। तुम मेरी हालत पर तरस खाओ। मेरी माँ मर रही है।'
मैंने रुआँसा होकर कहा। शायद वह तनिक पसीज गया और बड़बड़ाता हुआ चला गया। मेरा
झूठ काम कर गया। तब एक मौका मेरे पास था कि वहाँ से फूट लूँ, लेकिन तभी
अस्पताल के बरामदे से किसी के पुकारने कि आवाज आई, जो उस नए मरीज के घर वाले
को ढूँढ़ रहा था। वहाँ के किसी अन्य मरीज के साथ का आदमी मेरी ओर इशारा कर रहा
था। मुझे लगा कि मेरे वहाँ से भागने का वह सही समय नहीं है, पकड़ा जाऊँगा। उससे
एक अलग समस्या खड़ी होगी और मामला पुलिस तक पहुँचेगा। इससे बेहतर है कि जान
लिया जाए कि क्यों खोजा जा रहा है। मैं बेमन से बुढ़िया के पास आया। उस आदमी ने
पूछा...
'क्या मरीज के साथ तुम ही हो...?'
'जी...'
'तो वहाँ क्या कर रहे थे... क्या लगती है मरीज तुम्हारी...?'
'अम्मा!' ...मैंने अचानक कह दिया।
'यहीं रहो समझे, रात पाली का डाक्टर आने वाला है। मरीज को देखेगा।'
मैंने बुढ़िया की ओर देखा। वह बेसुध थी। शरीर में कोई हरकत नहीं। वाकई कुछ देर
बाद एक डाक्टर नशे और नींद में ऊँघता-सा आया और बारी-बारी से मरीजों का
हाल-चाल लेने लगा। जब वह मेरे करीब आया और पूछा, तब मैंने मरीज के बारे में
मुक्तसर बताया। मैं खुद भी कहाँ जानता था कि बुढ़िया को क्या बीमारी है। अधिक
बोलने पर पकड़ा जाने का भी डर था। डाक्टर ने झुककर मरीज को टटोला और एकदम से
बताया...
'यह तो गई!'
'क्या' ...मैं चौंका।
'ले जाओ उठाके यहाँ से' ...उसने कहा और दूसरे मरीज के पास पहुँच गया। डाक्टर
की बात सुनकर मैं भौंचक रह गया। हे भगवान, अब क्या करूँ। यह तो और बड़ी मुसीबत
से घिर गया। इस बुढ़िया ने तो मुझे कहीं का नहीं छोड़ा। न घर का रहा, न घाट का।
इच्छा तो हुई कि भाग ही जाऊँ। बुढ़िया और उसकी लाश को लेकर अस्पताल वाले जो
चाहें, सो करें। मैंने बुढ़िया का ठेका नहीं लिया है कि उसे ठिकाने भी लगाऊँ।
मैं वहाँ से भागने को निकला भी, लेकिन सचमुच भाग नहीं पाया। मुझे लगा कि कम से
कम मोहल्ले वालों तक इसकी खबर पहुँचा दूँ, फिर वे जानें, वे ही समझें। जो भी
आगे करना है, खुद करें। इससे अधिक और मैं कर ही क्या सकता हूँ। मैं दौड़ा
मोहल्ले की ओर। अपने प्लान के अनुसार बु्ढ़िया के निकट पड़ोसी के घर का दरवाजा
खटखटाया। अभी रात बाकी थी, इसलिए काफी दरवाजा पीटने पर ही भीतर से किसी ने कुछ
पूछा...
'कौन है?' ...उसकी आवाज डरी-घबराई थी।
'अस्पताल से आया हूँ... दरवाजा खोलो।'
'क्या बात है?'
'कहा न अस्पताल का आदमी हूँ।'
'क्या काम है?'
'तुम्हारे पड़ोस में एक बुढ़िया बीमार थी न वह...'
यह सुनकर उसने आधा दरवाजा खोला।
'वह बुढ़िया अस्पताल में मर गई है।' ...मैंने जल्दी में कहा।
'क्या' ...वह कुछ और भी पूछने को हुआ।
वह खोज-खोदकर सवाल पूछे, इसके पहले ही अँधेरे का फायदा उठाकर मैं वहाँ से खिसक
गया, लेकिन कछ दूरी पर छिपा खडा रहा, यह देखने के लिए कि अब क्या होता है। वह
आदमी अपने दरवाजे पर कुछ पल खड़ा रहा, फिर अपने पड़ोसी की ओर लपका। दोनों के बीच
कुछ खुस-फुस हुई फिर वे दोनों तीसरे के यहाँ गए। धीरे-धीरे लोग जुटते गए। कुछ
औरतें देखकर लौटीं कि सचमुच बुढ़िया घर में नहीं है। वे लोग इकट्ठे होकर शायद
सोच रहे थे कि अब क्या करना चाहिए। कुछ बातें अँधेरे में मेरे कानों तक पहुँच
ही रही थीं।
'यह तो अच्छी मुसीबत गले लग गई।'
'अब लग ही गई तो किसी तरह निपटाना ही पड़ेगा...। '
'आधी रात ही मिली थी बुढ़िया को सिधारने के लिए।'
'छोड़ो अभी कल देखा जाएगा...।'
'अरे भाई छोड़ा कैसे जाय अस्पताल से आदमी आकर खबर गया...।'
'तो क्या हम उसके रिश्तेदार लगते हैं जो इतनी रात में अस्पताल भागें...!'
'रिश्तेदार तो इस मुसीबत को हमारे गले डाल गए हैं...'
'शव को वहाँ से उठा लाने भर से तो नहीं होगा उसे नहलाना-धुलाना फिर घाट ले
जाना... एक मुसीबत थोड़ी है...'
'क्या जरूरत है घर लाने की...।'
'फिर...।'
'अस्पताल से सीधे घाट ले जाकर फूँक देने का है और क्या...'
'वही ठीक रहेगा... जल्दी छुट्टी मिल जायगी...।'
'लौटकर नींद पूरी करने का मौका तो मिलेगा...।'
'खाक मिलेगा। बुढ़िया को जाना था, गई, पर हमारी नींद हराम कर गई...।'
यही सब बकवास करते हुए अधिकांश पुरुष अस्पताल की ओर झींकते हुए बढ़ गए। कुछ
वहीं रुक गए। औरतों के बीच काना-फूसी चालू हो गई। मैं निश्चिंत हो गया। मेरा
प्लान काम कर गया। मैंने भी सोचा कि अब सामान लेकर चलता बनूँ। उस घर में घुसने
में अब कोई दिक्कत भी नही थी, क्योंकि वे लोग व्यस्त थे। शव को ठिकाने लगाए
जाने के इंतजार में थे और मैं उससे पहले ही अपना काम तमाम कर लेना चाहता था।
मैं बचे-खुचे अँधेरे का लाभ उठाते हुए उस घर में घुसा। पहले मुझे बिलकुल पता
नहीं चला था कि अभी कुछ औरतें बुढ़िया के कमरे में हैं। मैंने तो समझा था कि
तभी बुढ़िया को वहाँ न पाकर सभी कमरे से बाहर निकल आईं थीं। मैं इस बार थोड़ा
असावधान भी था, सो मेरे घुसते और मुझपर नजर पड़ते ही वे "चोर...चोर..."
चिल्लाने लगीं। मैं उलटे पाँव भाग खड़ा हुआ। यह देखकर वे और जोरों से चिल्लाने
लगीं। तब तक मोहल्ले के बचे-खुचे आदमी भी वहाँ पहुँच गए। मुझे उन लोगों ने
चारों ओर से घेरकर पकड लिया और लगे लातों और घूसों से मारने। मैं बेदम होता जा
रहा था। रो-गिड़गिड़ा रहा था, लेकिन उन पर तो जैसे भूत सवार था। इस बीच मैं
बेहोश हो गया था और जब होश में आया तो देखा कि हाजत में हूँ और शायद पुलिस
इंतजार में थी कि मुझे होश आए तो वह अपनी भड़ास निकाले। पहली बार मैं बड़ी
शिद्दत से बुढ़िया को याद कर रहा था। एक वही थी जो मेरी सचाई जानती थी, पर
जीवित नहीं थी। मैंने उसकी आत्मा की शांति माँगी। मेरा सिर झुका हुआ था। मेरे
हाथ जुड़े हुए थे और मेरी आँखों से अनजाने आँसू बह रहे थे और मुझे कहीं कोई
दर्द या अफसोस नहीं महसूस हो रहा था। मैं जानता हूँ कि आप मेरी बात पर विश्वास
नहीं करेंगे और इसे कथा-कहानी समझेंगे, पर यह झूठी नहीं, बल्कि सरासर सच्ची
है। यह भी बता ही दूँ कि अभी जेल में ही हूँ, कब यहाँ से छूटूँगा, पता नहीं।
कोई जल्दी भी नहीं है। दिन मजे से कट रहे हैं। रोटी मिल जाती है और उस मरी हुई
बुढ़िया से, माफ कीजिएगा, अपनी अम्मा से मन ही मन दुख-सुख बतिया लेता हूँ। सच
कहूँ तो चोरी-चमारी का कोई टेन्शन नहीं है। कभी-कभी लगता बुढ़िया तो मर गई, पर
मुझे जिंदा कर गई। बुढ़िया को यानी अम्मा को सलाम। आपको रामराम।