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कविता

अनाप्तकामिनी

सर्वेश सिंह


डूब जाओ
कितना! ये मत पूछो
बस जितना हो
और समझते हो
तथा समझाए गए हो
वो सब मिलाकर
डूब जाओ
पर ये मत समझना
कि बस उतनी भर जगह है मुझमें
डूबने की
जगहें और भी हैं
उनके अलावें
जो तुम्हें डूबने लायक लगती हैं
लगती रही हैं
सदियों से जिनमें डूबने की
बस आदत है तुम्हें 
जबकि वे जगहें
जिनमें आज तक तुम डूबने से बचते रहे 
और भी ज्यादे गहरी हैं
तरल हैं
कुँवारी हैं
पर उन तक तुम कभी आए नहीं
आते ही नहीं
डूबते ही नहीं! 
सच-सच बताना
आसमानों से अब तक भी डरते ही हो क्या?
देखो!
तुम उन जगहों में किसी और तरह से भी
डूब सकते हो
जैसे कि हवा बनकर
या बादल 
या पानी
या बस एक नन्हीं तितली बनकर  
जो कि दूसरी जगहों पर तुम बनते हो
पर मेरी इन जगहों पर पता नहीं क्यों?  
कैसे बताऊँ तुम्हें
कि सदियों से बची हुई हैं 
सुलगतीं न जाने कितनी योनियाँ मुझमें 
तुम्हारे पानियों की चाह में
पर जिन्हें न देख पाए तुम
और ना ही छू सके  
तुम सुन तो रहे हो ना?
क्या डूबना चाहोगे उनमें!
बेशर्म, बेगुनाह, बेवक्त
बिना कुछ खोले
बिना कुछ उतारे
बिना कुछ डाले
बिना कुछ तोड़े
बिना कुछ झिंझोड़े
पौरुषहीन, मंथनहीन 
निस्पंद, निःश्वास, लगातार   
आह! कि बस एक बार!
इन्हें यदि देख सकते तुम
मुकम्मल छू भी सकते तुम
निकलकर स्वयं से
आपादमस्तक
डूब सकते तुम
फकत एक आदमी बनकर...
 


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