वहाँ जूते उतार कर जाते हैं
जैसे बिस्तरों पर
द्वार पर नदी है
उत्तुंग और उत्तेज
अँगूठे और तर्जनी की योग-मुद्रा से उसे आभार दें
यहाँ से अब वापसी मुश्किल है
ध्यानावस्थित मन
लसलसे रास्तों पर
खुद-ब-खुद आगे बढ़ता जाएगा
खून में मुक्ति की चाहना के काबुली घुड़सवार
दौड़ेंगे सरपट
एक-सा ही जादू है
यहाँ भी...
और वहाँ भी...
कि मन की अज्ञानता में
गर्भ-गृह के द्वंद्व की सुखद यातना में
एक गति, एक ताल और एकतानता में
सारी ये कायनात
मंथनमय है
और वहाँ-जहाँ गिरता दूध जमा हो रहा है
और गल रहे हैं फूल, बेलपत्र
वह आकृति, रूप के भवन में दीप की शिखा-सी है
त्रिभंगी और लसलसी
वह बिस्तरों की सत्यापित प्रतिलिपि-सी है
देवताओं में सुडौल वे
सनातन काल से वहीं जमे हैं
पत्थर के चाम हो गए हैं
पर पत्थरों के इस विन्यास में
कितना तो साफ है
धर्म का उद्योग
कितना तो उज्जवल है उनका चिर-संयोग
कितना तो समान है
कि बिस्तरों में उस कामना के बाद
जागना नहीं
और जागरण इस प्रार्थना के बाद भी नहीं
कर्म के बस दो अलग-अलग तंत्र हैं
आस्था और वासना
श्रेयस और प्रेयस
बस विरह में दो मंत्र हैं
ओह मेरे प्यारे शिवा!
ओम नमः शिवाय!