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कविता

प्रेम के आईनों-सी तुलसी की पत्तियाँ

सर्वेश सिंह


आजकल रोज रात सोने से पहले
सिरहाने पानी से भरा
शीशे का एक गिलास रख लेता हूँ
और सुबह आँख खुलने पर
उसे तुलसी पर चढ़ा देता हूँ
पता नहीं बासीपन से
या शीशे में रखने से
या अँधेरे में रात भर रखे रहने से  
या सिरहाने पड़े रहने से
या मुझ से कुछ पानी में मिल जाने से
पर ध्रुव है की पानी से ही
होता यह है कि 
दिन ढले तुलसी की पत्तियाँ
आईनों-सी दिखने लगती हैं  
उनमें झलकते हैं चाँद सितारे
आकाश और आकाशगंगाएँ
देवियों और देवताओं के चेहरे
अमृत और विष के कलश
आसमानी किताबों के फड़फड़ाते पन्ने
और सूरज को मुट्ठियों में दबाए पृथ्वी के चक्कर लगाता मैं  
यह सब धार्मिक-सा लग सकता है
पर मैं साफ दिल से कहता हूँ
कि यह अजूबा देखकर
मेरा यकीन इस बात पर बढ़ने लगा है
कि मैं किसी से प्रेम करने लगा हूँ    
 


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