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कविता

लोकतंत्र पर संकट-2

अनुकृति शर्मा


देखो संकट आया है
राजमार्ग पर छाया है

फिसल रहे पग, पथ अस्थिर
रक्त-आँधियाँ आतीं घिर
धूल नेत्र में कंठ तपे
जिह्वा पर विषदंश जले
जनमन पर घहराया है
देखो संकट आया है

घंटे गिरजे व्रत रमजान
कव्वाली रतजगे अजान
मुहिम बने हैं युद्धों के
टोल जुटे हैं गिद्धों के
बिखरा सब सरमाया है
देखो संकट आया है

देशपति धर्मज्ञ सुजान
नेता वक्ता और विद्वान
वाकवितंडा फैलाते
हिंस्र अहं को सहलाते
निज पर को भरमाया है
देखो संकट आया है
 


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