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लेख

रंगमंच के माध्यम से शिक्षा का विकास

सुरभि विप्लव


सभ्यता के विकास में शिक्षा का अहम योगदान रहा है। आदिम युग से वर्तमान विज्ञान और तकनीक के इस युग तक मनुष्य का पहुँचना शिक्षा के बगैर असंभव था। आज शिक्षा विशेष कर उच्च शिक्षा की गुणवत्ता की चुनौतियों से हम रूबरू हैं और तब हमें इस सवाल से टकराना पड़ता है कि कैसे इसे उन्नत किया जा सकता है? जब इसकी गुणवत्ता का प्रश्न आता है तो इसके विकास हेतु स्वस्थ उपकरणों की चिंता और खोज का प्रश्न होना भी लाजिमी है। शिक्षाविदों ने इसके कई उपाय खोजे भी हैं, उनमें से नाट्य कला बहुत ही अहम है। नाट्य कला को एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में हमारी सभ्यता और संस्कृति ने हमें दिया है। जैसा कि विदित है कि प्रदर्शन कला एक आदिम कला रही है जो शिक्षा के साथ हर युग में नाभिनालबद्ध रही है। नृत्य, गायन, संगीत, चित्रकला, नाटक आदि कलाओं के प्रयोग से प्राथमिक शिक्षा सहित उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में ये मूल रूप से प्रभावकारी रही हैं। विशेष कर नाट्य कला इस संदर्भ में बहुत ही कारगर हथियार रही है। क्योंकि इस कला में लगभग सभी कलाएँ समाहित हैं।

नाट्य कला निरपेक्ष रूप से अपने आप में कुछ नहीं है लेकिन अन्य समस्त प्रदर्शनकारी कलाओं मसलन नृत्य, गायन, संगीत, चित्रकला इत्यादि किसी विशेष संतुलन पर विशेष समय में जब एक साथ मिश्रित होती हैं तो नाट्य कला का रूप धारण करती हैं। यह नाट्य कला जब शिक्षा पद्धति के साथ एकाकार होती है तो शिक्षक और छात्र पढ़ने और पढ़ाने की ऊँची पायदानों को ग्रहण करते हैं। नाट्य कला एक आदिम और प्रगतिशील कला है जो मनुष्य को मानसिक, शारीरिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक स्तर पर समृद्ध करती है। इसके माध्यम से छात्रों में किसी भी जटिल से जटिल विषय को आत्मसात करने की प्रक्रिया को सहज, सुगम और स्पष्ट बनाया जा सकता है 'भरतमुनि' से लेकर वर्तमान काल के नाटककारों ने शिक्षा में रंगमंच के योगदान को महत्वपूर्ण माना है। चूँकि रंगमंच में समस्त प्रदर्शनकलाएँ अंतर्निहित हैं अतः शिक्षकों और छात्रों को रंगमंच की सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक प्रक्रिया से गुजार कर उनके शैक्षणिक और सांस्कृतिक अनुभव को समृद्ध किया जा सकता है। ऐसे देखा जाए तो मानवीकरण की समस्या नैतिक, सौंदर्यात्मक और धार्मिक तीनों प्रकार के मूल्यों की दृष्टि से हमेशा ही मनुष्य की केंद्रीय समस्या रही है, लेकिन अब इसका चरित्र एक विशुद्ध मशीनीकरण का हो चुका है।

जैसे-जैसे मशीनीकरण से हमारा समाज ओत-प्रोत हुआ है, वैसे-वैसे अमानवीयता भी बढ़ी है। इसके प्रभाव से छात्र और शिक्षक भी बच नहीं पा रहे हैं। आज जबकि समाज में जहाँ छात्र रहते हैं, चारो तरफ अराजकता, अनिश्चतता और हिंसा का माहौल है इसके प्रभाव से छात्रों का सांस्कृतिक और दार्शनिक मेरुदंड टूट रहा है। सिनेमा, टीवी जैसे मास मीडिया के साधन भी उन्हें मूल्यहीन बना रहे हैं जबकि इसके समानांतर रंगमंच और प्रदर्शन कलाओं की आत्मा में मानव मूल्य आधारित गतिविधियाँ और विचार अंतर्गुंफित हैं। शुभ और अशुभ को पहचान करने की दृष्टि ये कलाएँ देती हैं। इसीलिए भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में लिखा है कि "भवताम देवतानाम च शुभा शुभ विकल्प, कर्म भावा वयापेछी नाट्य वेदों मया कृत"! अतः रंगमंच छात्रों को दार्शनिक एवं सांस्कृतिक स्तर पर जीवन का मूल्य और दृष्टिकोण की शिक्षा देता है। आज शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना हो गया है जिससे वह सामाजिक और सांस्कृतिक सरोकारों से विमुख हो रही है, लेकिन रंगमंच आज भी व्यापक स्तर पर सामाजिक और दार्शनिक सरोकार से लबरेज है। नाट्य कला अपने हृदय में भरत मुनि, भास, कालिदास, शेक्सपियर, भारतेंदु, जयशंकर प्रसाद, ब्रेख्त, प्रेमचंद, मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, सुरेंद्र वर्मा इत्यादि के नाट्यकला संबंधित मानवीय मूल्यों को सँजो कर रखा है जिससे छात्रों के अंतर्मन में नाट्य शैली के माध्यम से पिरोना आज आसान और आवश्यक है। विवेकानंद ने कहा है कि "शिक्षा के ज्ञान वर्धन क्षेत्र में छात्रों के सामने सामाजिक उद्देश्य न हो एवं उसे प्राप्त करने के लिए सही प्रेरणा का माध्यम न हो तो ऐसी शिक्षा अपनी व्यक्तिगत लालसा पूर्ति मात्र बन कर रह जाएगी"।

विवेकानंद के इस वक्तब्य को देखें तो छात्रों के आंतरिक गुणवत्ता के तीन पक्ष होते हैं, एक मानवीय और दूसरा तकनीकी और तीसरा जिज्ञासा। भारतीय स्वतंत्रता का दौर शायद एकमात्र ऐसा समय था जब शिक्षा को सामाजिक और मानवीय जागरण का जरिया समझा जाता था लेकिन आज स्थितियाँ बदल गई हैं। बड़ी विडंबना यह है कि तकनीकी शिक्षा अर्थोपार्जन और व्यक्तिगत लालसा पूर्ण का मुख्य जरिया बन गया है, जिससे मनुष्य मशीन मात्र बनकर रह जाता है। उससे उसका मानवीय और सांस्कृतिक पक्ष छूट जाता है। ऐसी स्थिति में नाट्य कला ही एक मात्र ऐसी कला है जिसे शिक्षा पद्धति के एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में लागू किया जा सकता है। संचार के समस्त माध्यमों में आज मूल्यों का क्षरण हुआ है लेकिन नाट्य कला आज भी अपनी आत्मा के स्तर पर मूल्यों से लबरेज हैं। यह कला सैद्धांतिक और व्यावहारिक उपकरण के द्वारा छात्रों के बहुमुखी विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान देती रही है। आज इसकी उपादेयता और भी ज्यादा बढ़ गई है। अतः छात्रों के दिलो-दिमाग में सच्चे अर्थों में दार्शनिक और सांस्कृतिक मूल्यों के निर्माण और विकास के लिए रंगमंचीय मूल्यों को संस्कारित करना अति आवश्यक है जिससे उनका शैक्षणिक अनुभव परिमार्जित और समृद्ध होगा।

रंगमंच के बहुत सारे व्यवहारिक एवं तकनीकी क्रियाकलाप हैं, जिनके माध्यम से छात्रों के व्यक्तित्व को समग्र रूप से विकसित किया जा सकता है। मसलन नाटकीय खेल, दैहिक अभ्यास, वाचिक अभ्यास, अभिनय, कहानी निर्माण, साज-सज्जा, सुर-ताल और संगीत, कंठस्थ करने का कौशल निर्माण, एकाग्रता लाने के अभ्यास, प्रकाश व्यवस्था, मुखौटा निर्माण, आत्म विश्वास को जगाने की शिक्षा, तार्किकता के खेल, किसी भी जटिल पथ को नाट्य प्रदर्शन द्वारा आसान बनाना, नृत्य की विभिन्न भाव-भंगिमा द्वारा, याददाश्त को वृहद और तीव्र करने की नाट्य कार्यशाला, किसी भी निबंध, उपन्यास, कविता या कहानी का नाट्य रूपांतर और प्रस्तुति और मस्तिष्क का विकास सृजनात्मक आदि। ये कुछ ऐसी नाट्य कला की गतिविधियाँ हैं जिनको व्यावहारिक रूप से लागू करने से छात्रों और शिक्षकों दोनों का विकास संभव होता है। यहाँ पर उक्त नाट्य तकनीक को थोड़ा विस्तार से देखते चलें।

नाटकीय खेल एक ऐसी मनोरंजनात्मक प्रक्रिया है, जिसे खेलते हुए छात्रों में सीखने की सहज वृत्ति का निर्माण होता है। यह सतही स्तर पर महज कुछ खेल ही लगता है लेकिन मन और मस्तिष्क की गहराइयों में इसका बहुत ही सूक्ष्म प्रभाव पड़ता है। दैहिक अभ्यास नाट्यकला की बहुत ही महत्वपूर्ण गतिविधि है। इसकी व्याख्या 'नाट्य शास्त्र' में विस्तृत रूप से की गई है। किसी भी भाव को अभिव्यक्त करने हेतु देह की भाषा की अहम भूमिका है। किताबों में रचित गूढ़ और गंभीर बातों को समझने और समझाने के लिए दैहिक भाषा का उपयोग आवश्यक होता है जिसे समृद्ध करने के लिए कुछ दैहिक अभ्यास करना पड़ता है। प्रख्यात नाट्य निर्देशक 'मेयर होल्ड' ने इस संदर्भ में एक 'थियेटर बायोमैकेनिक्स' का सिद्धांत खड़ा किया है जो शिक्षा में दैहिक भाषा के व्यवहारीकरण में बहुत ही उपयोगी है। वाचिक परंपरा हमारे वेदकाल से ही मौजूद रही है। किसी भी शब्द और वाक्य को स्पष्ट और अर्थपूर्ण बनाने के लिए वाचिक अभ्यास अत्यंत ही आवश्यक है।

भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र में इसकी वृहद विवेचना की है। शब्दों का सटीक उच्चारण और सही अभिव्यक्ति की समस्या से छात्रों और शिक्षकों को जूझना पड़ता है। वाचिक अभ्यास से इस समस्या से मुक्त होने में बहुत ही सहायता मिलती है। अभिनय नाट्य कला का सबसे प्रमुख क्षेत्र है। उच्च शिक्षा ही नहीं बल्कि जीवन में मनुष्य अभिनय को हर पल जीता है और सुख-दुख में उसके चेहरे के भाव बनते-बिगड़ते रहते हैं। इसे जब हम शिक्षा के क्षेत्र में लागू करते हैं तो अभिनय एक कला बन जाती है जिसे सीखना पड़ता है। अभिनय कला की सटीक शिक्षा के माध्यम से शिक्षक किसी भी विषय के अर्थों को छात्रों तक पहुँचाने में समर्थ होता है। नाट्य कला की कुछ सृजनात्मक गतिविधियों के माध्यम से कहानी का निर्माण भी फ्लोर पर संभव है। बच्चे अपने जीवन की घटनाओं को देखते हुए, उन्हे एक-दूसरे के साथ समंजस्य बैठा कर खेल-खेल में दृश्यों की रचना करते हुए कहानी का निर्माण कर डालते हैं। एक कथाकार अपने एकाकी जीवन में अकेले जिस कहानी की रचना करता है उसे नाट्य कला में समूहिक रूप से दृश्यों के माध्यम से रचा जाता है, जिसके माध्यम से छात्रों में कल्पनाशीलता का विकास होता है। एक नाटक के मंचन हेतु पात्रों को चरित्रों के अनुकूल सजना पड़ता है और तब नेपथ्य में उसे साज-सज्जा की सूक्ष्म प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। किसी भी नाटक में साज-सज्जा उसका अहम हिस्सा है, जिसे छात्रों को सीखना पड़ता है। यह बात स्वाभाविक है कि सुर-ताल, छंद-लय का ज्ञान संगीत के माध्यम से प्राप्त होता है। और इसका इस्तेमाल रंगमंच पर होता है। दरअसल आज जीवन से सुर-ताल और छंद-लय गुम होता जा रहा है। शिक्षा ग्रहण करने की सुगमता में संगीत शिक्षा की अति आवश्यकता है।

शिक्षा में किसी भी टेक्स्ट (पाठ) को उसकी समझ के साथ कंठस्थ करना पड़ता है जो छात्रों के लिए बहुत ही बोझिल काम लगता है लेकिन जब हम इसे नाटकीय प्रक्रिया से गुजारते हैं तो यह आसान हो जाता है। यह भी एक कौशल का निर्माण करना होता है। शिक्षा पद्धति में एकाग्रता एक अहम पहलू है। मनुष्य की आज की तकनीकी भागदौड़ और व्यस्तता में किसी भी अहम बात या ज्ञानार्जन के बिंदुओं पर एकाग्रता नहीं बन पा रही है। नाट्य कला के कुछ निरंतर अभ्यास मूलक क्रियाएँ ऐसी हैं जिसे लागू करने से छात्रों में एकाग्रता के कौशल का विकास संभव है। प्रकाश की चकाचौंध को हम उपभोग और सुविधाओं का अतिरेक भी कह सकते हैं लेकिन नाट्य कला में प्रकाश व्यवस्था एक संतुलन के साथ उपस्थित होती है। किस दृश्य पर कितना प्रकाश डालना है, इसकी समझ और कुशलता का ज्ञान आवश्यक होता है। इसके बारे में छात्रों को सीखना जरूरी है। यह केवल मंच मात्र पर ही नहीं बल्कि इसके माध्यम से जीवन के पहलुओं के आलोक को भी समझने की दृष्टि भी जुड़ी हुई है। बहुत सारे मुखौटों की जरूरत भी छात्रों को कलाकार बनाती है। कभी-कभी चरित्रों के अनुसार अभिनेताओं को मुखौटा पहनना पड़ता है तब इसका निर्माण भी करना पड़ता है। इस प्रकार से अपने आप में एक कला का निर्माण होता चलता है।

आज की पीढ़ी में आत्मविश्वास का बहुत ही अभाव दिख रहा है। इस स्थिति में नाटक की समस्त प्रक्रिया में छात्रों को गुजरने से उनमें आत्मविश्वास की संवृद्धि होती है। वह मंच पर अभिनय करते-करते समाज में कहीं भी अपनी बातों और विचारों को रखने में संकोच नहीं करेगा। नाट्य कला में अंतर्निहित कौशल के विकास की प्रक्रिया के अतिरिक्त तार्किकता के खेल से व्यक्तित्व के उच्च विकास के लिए किसी भी जटिल पथ को नाट्य प्रदर्शन द्वारा आसान बनाया जा सकता है। नृत्य की विभिन्न भाव-भंगिमा द्वारा दैहिक भाषा को समृद्ध बनाया जाता है जिससे प्रत्येक जटिल भावों और अर्थों को अभिव्यक्ति प्रदान की जा सकती है तथा शिक्षक और शिक्षार्थी के माध्यम से शिक्षा की गुणवत्ता को समृद्ध किया जा सकता है। इसके साथ ही स्मरण शक्ति को वृहद और तीव्र करने की नाट्य-कार्यशाला का आयोजन बार-बार होने से किसी भी जटिल निबंध, वृहद उपन्यास गूढ़ कविता या कहानी में अंतर्निहित अर्थों को खोलने की प्रतिभा का विकास संभव किया जा सकता है। उक्त सिद्धांत और व्यवहार के समुचित अभिव्यक्ति और गतिविधि के माध्यम से हम छात्रों के शैक्षणिक अनुभव-कौशल को विस्तृत कर सकते हैं तथा उन्हें आत्मविश्वास, तार्किक, भाषिक, दैहिक, मानसिक और सांस्कृतिक स्तर पर समृद्ध कर सकते हैं, जिससे उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में वृद्धि की जा सकती है।

आज वैश्विक स्तर की प्रतिद्वंद्विता में हमारे उच्च शैक्षणिक संस्थान जिस प्रकार से पिछड़ते जा रहे हैं। स्नातक और परास्नातक छात्रों में कौशल का अभाव दिख रहा है, सांस्कृतिक और दार्शनिक दिवालियापन उपस्थित हुआ है, ऐसी स्थिति में नाट्य कला के प्रयोग से हम इस गिरावट को रोक सकते हैं। इस भयावह स्थिति पर विजय प्राप्त करने के लिए सामग्री रूप से आलोचनात्मक ढंग को अपनाना होगा। प्रदर्शनकारी कलाएँ जो हमारी सभ्यता का अहम हिस्सा रहीं हैं उन्हें पुनः सच्चे अर्थों में लागू करना होगा। आज देश के प्रत्येक शहरों और कस्बों में रंगमंच जिंदा है लेकिन औपचारिक स्तर पर कुछ ही उच्च संस्थानों में इनकी शिक्षा-दीक्षा होती है वह भी अन्य विभागों से विछिन्न होकर, जबकि आवश्यकता है प्रत्येक विभागों से इसे जोड़ने की। विज्ञान, शिक्षा, कानून, साहित्य, इंजीनियरिंग, चिकित्सा विज्ञान सहित अन्य विभागों के साथ इसे युक्त और अनिवार्य बनाने की आवश्यकता है। आज नाट्य कला को प्राथमिक स्तर से उच्च शिक्षा के स्तर तक लागू करना अति आवश्यक है तभी हम विषयों की जटिलता का हल, सांस्कृतिक समरसता, लोकतांत्रिक बहुलता और दार्शनिक समृद्धि को प्राप्त कर पाएँगे। तभी इस तकनीकी अमानवीयता के दौर में मानवीयता को बचा पाएँगे। नाट्य कला के प्रयोग की शक्ति से सृजन और पुनर्सृजन करते हुए शिक्षा के वर्तमान स्वरूपों के अवरोध को हटाकर सकारात्मक गति प्रदान की जा सकती है।


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